पश्चिमी देशों की ही भांति अब हमारे देश में भी ‘वूमन्स डे’, ‘मदर्स डे’, ‘फादर्स डे’ मनाए जाने की परंपरा शुरू हो गयी है. बौलीवुड के कलाकार तो इस तरह के दिनों को प्रचार का एक नया हथियार मानकर चलने लगे हैं. इस तरह के दिन आते ही बौलीवुड की हस्तियां अपनी प्रतिक्रियांए देने के अलावा कई तरह के कार्यक्रम करने लगे हैं. हाल ही में ‘‘फादर्स डे’’ मनाया गया. इस वर्ष भी अजय देवगन, शाहरुख खान से लेकर कई बौलीवुड हस्तियों ने तरह के के प्रपंच रचे. मगर लोगों को सबसे बड़ा आश्चर्य तो मशहूर अभिनेता इरफान को लेकर हुआ. इरफान उन कलाकारों में से हैं, जो कि बौलीवुड के साथ साथ हौलीवुड में भी अपने अभिनय की पताका फहरा रहे हैं. इसके बावजूद वह भारतीय रीति रिवाजों व परंपरा में अमिट विश्वास रखते हैं. पर इस वर्ष ‘‘फादर्स डे’’ मनाने के लिए इरफान अपने बेटे के साथ महात्मा गांधी के साबरमती आश्रम पहुंच गए.

इरफान के साबरमती आश्रम से वापस आने के दो तीन दिन बाद जब हमारी मुलाकात हुई, तो हमने इरफान से पूछा-‘‘हाल ही में आप ‘फादर्स डे’ मनाने के लिए अपने बेटे के साथ गुजरात में महात्मा गांधी के साबरमती आश्रम गए थे. इसके पीछे आपकी क्या सोच थी?’’

तब ‘‘सरिता’’ पत्रिका से एक्सक्लूसिव बात करते हुए इरफान ने कहा-‘‘मैं दो तीन बार गुजरात जा चुका हूं. पर ठीक से गुजरात को समझने या गुजरात घूमने का अवसर कभी नहीं मिला. मैं फिल्म ‘डी डे’, तिग्मांशु धूलिया की फिल्म ‘साहब बीबी और गैंगस्टर’ के अलावा ‘पीकू’ की शूटिंग के लिए गया, पर गुजरात को समझने का मौका नहीं मिला. अचानक कुछ दिन पहले ‘फादर्स डे’ की चर्चा शुरू हो गयी. हम सभी बिना सोचे समझे पश्चिमी देशों के कल्चर को अपने उपर लादते हुए कोई न कोई डे मनाने लगे हैं. हम अपने देश व समाज की जो परंपरा, रीति रिवाज या रिच्युअल हैं, उनके मायने भूलते जा रहे हैं.

आप किसी भी त्यौहार को उठाकर देख लीजिए. उस त्यौहार की शुरूआत क्यों हुई थी और अब उस त्यौहार की आड़ में क्या हो रहा है. सभी त्यौहार बेमानी होते जा रहे हैं. पर यदि यही बात आपने या हमने कह दी, तो लोग गुस्सा हो जाते हैं. इसलिए ‘फादर्स डे’ को लेकर कुछ कहने की बजाय मैंने सोचा कि हम इसे इस तरह अपनाएं कि हमें तकलीफ न हो. तो मैंने सोचना शुरू किया कि मेरे लिए ‘फादर’/पिता कौन है? मैंने सोचा कि यदि मैं अपने पिता से इस दिन बात करता हूं, तो कोई बड़ा मसला निकलता नहीं है. फिर आज की पीढ़ी सब कुछ बाहर तलाश रही है.

काफी सोचने के बाद मैंने सोचा कि हम अपने बच्चों को बताएं कि देश का राष्ट्रपिता कौन है? मेरा बेटा अपने पिता यानी कि मुझे जानता है. वह अपने दादाजी को भी जानता है. ऐसे में वह ‘फादर्स डे’ नए मायने के साथ कैसे मनाएगा? हम तो अपने घर पर जन्मदिन का केक भी नहीं काटते है. तो मेरे दिमाग में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का ख्याल आया. मैंने एक दिन अपने बेटे से गांधी जी के बारे में पूछा. तो पता चला कि वह जानता है कि हर नोट पर गांधी का चेहरा होता है. इससे अधिक वह कुछ बहुत ज्यादा जानकारी नहीं रखता है. मैंने महसूस किया कि युवा पीढ़ी के मन में गांधीजी को लेकर कोई आकर्षण है ही नहीं.

सच कह रहा हूं,जब रिचर्ड एटेनब्रो ने महात्मा गांधी पर फिल्म ‘गांधी’ बनायी, तब हमारे देश के तमाम लोगों को अहसास हुआ कि गांधीजी कितने बडे़ हीरो थे. हम सभी को अपने जीवन में हीरो जरूर ढूंढ़ना चाहिए. काफी सोचने के बाद मुझे लगा कि मुझे अपने बेटे को लेकर गुजरात के साबरमती आश्रम जाना चाहिए. हम जब अपने बेटे के साथ गांधी आश्रम से लौटकर आए, तो उसने गांधी पर बनी फिल्म देखने की इच्छा जाहिर की. पिता के तौर पर मैं यही कर सकता हूं कि किसी चीज के प्रति उसके अंदर उत्सुकता जगाऊं. आज की जो नयी पीढ़ी है, हम उसे सिर्फ एक्सपोजर दे सकते हैं. उसने वहां पर चरखा भी काटा. मैंने भी चरखा काटा.’’

हमारे यह पूछ जाने पर कि गांधी आश्रम जाने के बाद उनके बेटे की प्रक्रिया क्या रही? इस पर ‘‘सरिता’’ पत्रिका से इरफान ने कहा-‘‘वहां पर बहुत भीड़ थी. उस वक्त बेटे से ज्यादा बात नहीं हो पायी. पर मैंने उसके चेहरे पर खुशी देखी. उसके मन में आश्रम में रखे हुए गांधी जी के चश्में, खड़ाउ आदि को लेकर उत्सुकता जगी कि यह असली हैं या..अब जब मुझे मौका मिलेगा, तब मैं उसे समझाउंगा कि गांधी जी के लिए सिम्पलीसिटी के क्या मायने थे और जिंदगी में सफलता के लिए सिम्पलीसिटी कितनी जरूरी है. अन्यथा हम लोग बहुत कुछ खोते जा रहे हैं. आज की तारीख में चरखा हममें से किसी को भी आकर्षित नहीं करता. वह कहीं मौजूद ही नही है. ना टीवी पर, ना फिल्मों में. चरखा से मेरा मतलब सिम्पलीसिटी से है.’’

क्या उनके बेटे ने साबरमती के आश्रम में गांधी के ‘अहिंसा ही परम धर्म है, को लेकर कोई सवाल नही किया? मेरे इस सवाल पर इरफान ने कहा-‘‘उसने कई सवाल किए हैं. पर उसके हर सवाल का जवाब वहां भीड़ में दे पाना संभव नहीं था. पर मैं अवसर मिलते ही उसे उसके सवालों को लेकर सब कुछ समझाउंगा. देखिए, गांधीजी ने कभी यह नहीं कहा कि मेरा धर्म हिंदू हैं या मुसलमान. गांधी जी ने कहा अहिंसा मेरा धर्म है. जबकि अहिंसा तो कोई धर्म है ही नहीं. तो उनकी बात को समझना जरुरी है. मेरा कहना है कि इंसान को उसी तरह अपना धर्म चुनना चाहिए, जिस तरह से वह अपना करियर चुनता है. हिंदू, मुस्लिम, सिख इसाई यह सब तो बड़ी मोटी बात हैं. यह सब धर्म नही है.’’

पर आपको नहीं लगता  कि ‘फादर्स डे’ या ‘मदर्स डे’ आदि का  बाजारीकरण हो गया है? मेरे इस सवाल पर इरफान ने कहा-‘‘जी हां! यह बाजारीकरण है. आज की तारीख में तो पूरे देश का बाजारीकरण हो गया है. हम पूरे देश को दुकान बना रहे हैं. हम भूल रहे हैं कि दुकान दुकान होती है और घर घर होता है. घर में रहना एक अलग बात होती है. जबकि दुकान में आदान प्रदान होता है, जिससे आपको पैसा मिलता है. पर देश या जिंदगी को लेकर ऐसा नहीं सोच सकते. जिंदगी एक साइकल है. आपने खाना खाया है, तो आपका शरीर कभी दूसरे प्राणियों के लिए खाना बनेगा. हम खाना खाने के बाद लोगों को कुछ तो दें. जहर देने से प्रकृति बिगड़ेगी जैसे कि हम प्लास्टिक देते हैं. यदि इसी तरह से हम जहर देते रहें तो संसार बनेगा नहीं.’’

आपने सिम्पलीसिटी और आम आदमी के प्रतीक के रूप में ‘फादर्स डे’ मनाने के लिए महात्मा गांधी के साबरमती आश्रम को चुना. कहीं इसका संबंध आपकी 15 जुलाई को प्रदर्शित होने वाली फिल्म ‘‘मदारी’’ से तो नही है? इस सवाल पर बड़ी बेबाकी से इरफान ने ‘‘सरिता’’ पत्रिका से कहा-‘‘महात्मा गांधी के आश्रम और उनकी सिम्पलीसिटी का मेरी फिल्म ‘मदारी’ से सीधा कोई संबंध नही हैं. संबंध यह जरूर हो सकता है कि सिनेमा का काम होता है कि वह दर्शक का मनोरंजन करने के साथ साथ उसे एक सोच दे. यानी कि फिल्म देखकर दर्शक कुछ सोचना चाहें. उसके अंदर एक उत्सुकता जगाने का काम सिनेमा करता है. गांधीजी भी यही करते थे. सिनेमा लोगों का मनोरंजन करता है,पर गांधीजी मनोरंजन नहीं करते थे. वह लोगों को सिर्फ इनकरेज/ प्रोत्साहित करते थे. वह देश तथा मानव जाति को बहुत गहरे स्तर पर एक दिशा निर्धारित करना चाह रहे थे. उनका जो सपना था, वह आजादी के बाद साकार नहीं हुआ.

आजादी से पहले वह स्टार थे. लोग उन्हें देखने व सुनने के लिए उमड़ पड़ते थे. लेकिन आजादी के बाद लोग भूल गए. पर महात्मा गांधी ने जो कुछ कहा है, उससे देश के हर इंसान का परिचित होना जरूरी है. वह सिर्फ आत्मंचिंतन नहीं, बल्कि पूरी मानव जाति के चिंतन की बात कर रहे थे. उनका सपना विकसित ग्रामीण था. वह आज जिस विकास की बात हो रही है, गांधी जी ने इस विकास का सपना नहीं देखा था. उनकी नजर में सड़क बन जाना या बिजली आ जाना विकास नहीं है. वह कहते थे कि आजादी का कोई मतलब नहीं, जब तक आप अंदर से आजाद नहीं हैं. आप अभी भी अंदर से गुलाम हैं, आपके अंदर अपने देश की परंपरा, देश की सभ्यता संस्कृति, देश के ट्रेडिशन के प्रति सम्मान नहीं है, तो आप कभी भी आजाद नही है. हमारे मन में अभी भी अंग्रेज ही बैठे हुए हैं.’’

तो क्या फिल्म ‘‘मदारी’’ का प्रभाव आम इंसान पर नहीं पड़ेगा? हमारे इस सवाल पर इरफान ने कहा-‘‘यह तो रहस्य है. फिल्म रिलीज के बाद क्या काम करेगी, कह नहीं सकता. मेरी राय में जब तक मैं अभिनय कर रहा होता हूं या फिल्म बन रही होती है, वह तब तक हमारी होती है. एक बार वह सिनेमा घर पहुंच गयी, तो फिर वह दर्शकों की प्रापर्टी हो जाती है. आखिरकार सिनेमा एक एक्सप्रेशन है, एक भाव है. सिनेमा दर्शकों तक एक अनुभूति पहुंचाता है. उस अनुभूति से दर्शक क्या अर्थ निकालता है, यह तो इस बात पर निर्भर करता है कि उस दर्शक की कौन सी खिड़की खुली हुई है. अभी हम लोग जो बात कर रहे हैं, उसे सामने बैठा इंसान सुनकर या जो पढ़ेगा, वह हमारी बातचीत को बहुत बोरिंग मान सकता है. कोई इसे फिलासफी की संज्ञा दे सकता है. तो कोई पता नहीं हमारी बातों का क्या अर्थ लगा ले. यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि उसकी कौन सी खिड़की खुली हुई है.’’ 

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