5 राज्यों के विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को जिस जीत की उम्मीद थी वह उसे मिली नहीं. वह इस बात से खुश है कि उस ने पहली बार असम में बहुमत से सरकार बना ली. केरल में एक सीट जीत ली. भाजपा के रणनीतिकारों का कहना है कि दक्षिण भारत में पार्टी की सफलता बताती है कि लोगों का केंद्र सरकार पर भरोसा बढ़ा है. राजनीतिक समीक्षक मानते हैं कि लोकसभा और विधानसभा चुनावों में मिलने वाले वोट प्रतिशत को देखें तो पता चलता है कि भाजपा को लोकसभा के मुकाबले विधानसभा चुनावों में कम वोट मिले हैं.
2014 के लोकसभा चुनाव में असम में भाजपा को 7 सीटें मिलीं और उस का वोट प्रतिशत 36.86 था. विधानसभा चुनाव में भाजपा ने असम में सरकार तो बनाई पर उस का वोट प्रतिशत घट कर 29.5 रह गया. बंगाल में भाजपा का वोट प्रतिशत 17.2 से घट कर 10.2 रह गया. केरल में जरूर भाजपा का मत प्रतिशत मामूली सा बढ़ा हुआ नजर आया. जहां 2014 के लोकसभा चुनावों में उसे 10.33 प्रतिशत वोट मिले थे, विधानसभा चुनाव में 10.6 प्रतिशत हो गया. तमिलनाडु में भाजपा को लोकसभा चुनावों में 5.56 प्रतिशत वोट मिले थे जो विधानसभा में घट कर 2.8 प्रतिशत रह गया.
भाजपा के लोग इस तर्क को स्वीकार नहीं करते. उन का मानना है कि लोकसभा चुनावों में मतदाता अलग मुददों पर वोट देता है और विधानसभा चुनावों में अलग मुददों पर वोट पड़ते हैं. भाजपा के पास इस बात का जवाब नहीं है कि जब लोकसभा और विधानसभा चुनावों में मुद्दे अलग हैं तो जीत का श्रेय केंद्र सरकार को कैसे दिया जा सकता है. भाजपा के लिए परेशानी वाली बात यह है कि केंद्र में सरकार बनाने के बाद ‘मोदी मैजिक’ काम नहीं कर रहा है. भाजपा को केवल उन राज्यों में ही सफलता मिल रही है जहां उस का कांग्रेस के साथ मुकाबला होता है. भाजपा के मुकाबले में जिस प्रदेश में दूसरे दल हैं वहां पर भाजपा को जीत हासिल नहीं हो रही है. असम चुनाव में मिली जीत को वह केंद्र सरकार की सफलता से जोड़ती जरूर है पर उस के पास इस बात का जबाव नही है कि केंद्र्र की यह चमक तमिलनाडु, बंगाल, पुद्दुचेरी और केरल में क्यों दिखाई नहीं दी.
असम में भाजपा को जीत कांग्रेस के नकारेपन के कारण मिली है. असम में पिछले 15 सालों से लगातार कांग्रेस की सरकार बनती आ रही थी. कांग्रेस ने अपनी जीत के लिए स्थानीय समीकरणों को ध्यान में रख कर चुनाव लड़ा. असम की जनता की समस्याओं को ले कर वहां की कांग्रेस सरकार ने कोई काम नहीं किया. कांग्रेस को लग रहा था कि जनता के सामने कोई विकल्प न होने के कारण वह कांग्रेस को ही वोट देगी. कांग्रेस के नेताओं की यही सोच पार्टी की हार का कारण बनी. लोकसभा चुनावों में भी कांग्रेस यही सोच रही थी कि भाजपा नेता नरेंद्र मोदी को देश का मतदाता स्वीकार नहीं करेगा. मजबूरी में कांग्रेस को वोट दे देगा, कांग्रेस को यह भूल जाना चाहिए. आज मतदाता के पास विकल्प हैं, ऐसे में बिना काम के वोट नहीं मिलेगा.
सच को छिपाने की जुगत
असम, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, पुद्दुचेरी और केरल के विधानसभा चुनावों में से भारतीय जनता पार्टी को केवल असम में जीत हासिल हुई. खेल की बोली में बात करें तो खेल का परिणाम 5-1 से भाजपा के पक्ष में रहा. जीत की खुशी का शोर भाजपा इस तरह से मचा रही है जैसे उस ने सभी मैच जीत लिए हों. जीत के शोर में भाजपा ने यह जताने की कोशिश की कि उस के 2 साल के कार्यकाल से पूरा देश खुश है. केंद्र में मोदी सरकार बहुत अच्छा काम कर रही है. भाजपा जीत के शोर में दिखाई देने वाले सच को भूल जाना चाहती है. यह कहा जा रहा है कि असम में जिस टीम और मुद्दों ने जीत दिलाई, उस को उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी सौंपी जाए.
5 राज्यों के इन विधानसभा चुनावों और 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के प्रदर्शन को देखा जाए तो जीत के शोर में न दिखाई देने वाला सच सामने आ जाएगा. चुनाव परिणामों को थोड़ा आंकड़ों की नजर से देखें तो तमिलनाडु में भाजपा को 234 सीटों में 0 सीट, पुद्दुचेरी में 30 में से 0, केरल में 140 सीटों में
से 1, पश्चिम बंगाल में 294 में से 3 और असम में 126 में से 88 सीटें ही मिली हैं. महज एक राज्य में मिली जीत को पूरे देश का जनादेश बता कर केंद्र सरकार के
2 साल के कामकाज को सर्वश्रेष्ठ बताया जा रहा है.
सीटों के अलावा 5 राज्यों के चुनाव परिणामों को पार्टी को मिलने वाले वोट प्रतिशत से देखें तो भी साफ दिखाई देगा कि 2014 के मुकाबले इन चुनावों में भाजपा की लोकप्रियता घटी है. जीत के शोर में भाजपा इन आंकड़ों को न खुद देखना चाहती है और न दूसरों को दिखाना चाहती है. इस सच को दरकिनार कर पूरी तरह से इस तरह बात को पुख्ता करने की कोशिश हो रही है कि पूरा देश केंद्र सरकार की नीतियों से खुश है.
पार्टी का आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए भाजपा केवल कांग्रेस मुक्त भारत की बात कर रही है. वहां वह यह समझना नहीं चाहती कि भाजपा कांग्रेस को हरा रही है पर दूसरों से हार रही है. जिस तरह की सोच पर भाजपा चल रही है, कभी यही सोच कांग्रेस की होती थी. कांग्रेस ने समय रहते अपनी कमियों को दूर करने का प्रयास नहीं किया. जिस से प्रदेशों में धीरेघीरे उस का जनाधार सिमटता गया. कोई भी पार्टी अपने अखिल भारतीय स्वरूप में तब तक रहेगी जब तक वह प्रदेशों में मजबूत हालात में रहेगी. क्षेत्रीय दलों से गठबंधन कर सत्ता का गणित कुछ दिनों तक चल सकता है. भाजपा यह समझने का प्रयास नहीं कर रही कि 2014 के मुकाबले उस की लोकप्रियता घट रही है. उस का यही भुलावा उसे भारी पड़ेगा. समय रहते अपनी कमियों का निदान जरूरी है. इस के लिए जरूरी है कि अलोचनाओं को भी वह सकारात्मक रूप से ले. आलोचना को विरोध मान कर दरकिनार करना घातक साबित होता है.
नाम नहीं, काम को वोट
पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु के चुनावों में सब से बड़ा संकेत यह आया कि जनता नाम को नहीं, काम को देखती है. जो लोग यह मान कर चलते हैं कि चुनावों में सत्ता विरोधी हवा चलती है, वह गलत है. अगर नेता का काम अच्छा होगा तो उस को वोट जरूर मिलेगा. ऐसे दलों को सबक है जो सोचते हैं कि 5 साल मिली सत्ता की मलाई खा लो. आगे चुनाव का क्या पता? अगर सही तरह से सरकार की योजनाओं का लाभ जनता तक पहुंचे, सरकार बिना किसी भेदभाव के काम करे तो जनता उस को फिर वोट देगी. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और तमिलनाडु में जयललिता की वापसी से यह बात साबित हुई है.
यह सच है कि असम में केंद्र में सरकार चला रही भाजपा को सरकार बनाने में सफलता हासिल हुई है. यह उस के लिए इतिहास की बात हो सकती है. असम में भाजपा ने हिंदुत्व का जो कार्ड खेला उस की कोई काट कांग्रेस के पास नहीं थी. कांग्रेस को लग रहा था कि उसे असम में काम करने का लाभ मिलेगा. भाजपा नरेंद्र्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी को इस जीत का पूरा श्रेय दे रही है. नरेंद्र्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी मतदाताओं को इतनी पसंद आई तो असम के बाहर वह सरकार बनाने में सफल क्यों नहीं रही? पहले मुख्यमंत्री घोषित कर चुनाव लड़ने का काम दिल्ली में भाजपा देख चुकी है. ऐसे में असम चुनाव की पहली जीत को भाजपा की खूबियों की वजह से नहीं, कांग्रेस की खामियों की वजह से देखा जाना चाहिए.
असम के अलावा भाजपा का प्रदर्शन किसी और प्रदेश में अच्छा नहीं रहा है. यह बात सही है कि आलोचनाओं के घेरे में चल रही भाजपा के लिए असम की जीत नया राग अलापने का जरिया बन गई है. अगर भाजपा को अपनी जीत के फार्मूले पर इतना ही यकीन है तो क्यों नहीं उत्तर प्रदेश में वह मुख्यमंत्री के नाम को सामने ला कर चुनाव की तैयारी शुरू करती. असल में भाजपा इस सच को जानती है कि वह अपनी रणनीति से नहीं, कांग्रेस के खराब प्रदर्शन से जीती है. जिनजिन प्रदेशों में कांग्रेस की सरकारें रही हैं वहां भाजपा को सीधी लड़ाई का लाभ मिला है. जहां भाजपा का मुकाबला काम करने वाले मुख्यमंत्री से रहा है, वहां वह चुनाव हार गई है. दिल्ली से ले कर बिहार, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु इस के उदाहरण हैं.
कांग्रेस मुक्त बनाम भगवायुक्त
भारतीय जनता पार्टी का कांग्रेस मुक्त भारत का सपना भले ही पूरा हो रहा हो पर भगवायुक्त भारत का सपना पूरा होने की राह में तमाम कांटे हैं. कांग्रेस मुक्त भारत देश की जरूरत है. पर भगवायुक्त भारत देश के लिए उस से बड़ा खतरा है. देश का मतदाता यह समझ रहा है. यही कारण है कि भाजपा के इतने प्रभाव के बाद भी देश की राजनीति में उस की हिस्सेदारी क्षेत्रीय दलों से कम ही है.
पूरे देश में विधायकों की संख्या को देखें तो यह बात साफ हो जाती है. देश में गैरभाजपाई और गैरकांग्रेसी विधायकों की संख्या 2,137 है जो भाजपा के विधायकों की संख्या 1,050 और कांग्रेसी विधायकों की संख्या 869 से बहुत ज्यादा है. कांग्रेस के डूबने का कारण उस की नीतियां और नेता हैं जो देश की जनता से जुड़ना पसंद नहीं करते. भाजपा में भी ऐसे नेताओं का बड़ा वर्ग है. ऐसे में जहांजहां भाजपा और कांग्रेस का सीधा मुकाबला है, वोटर एकदूसरे में उलझ कर रह जाता है. जहां विकल्प के रूप में अच्छी पार्टी, अच्छा नेता मौजूद होता है वहां पर वह दोनों ही दलों को नकार रहा है.
असम में सरकार बनाने के बाद भाजपा के कांग्रेस मुक्त अभियान की चर्चा जोरों पर है. भाजपा नेताओं ने अपना पूरा ध्यान कांग्रेस मुक्त भारत पर फोकस कर लिया है. भाजपा को यह देखना चाहिए कि देश की जनता कांग्रेस मुक्त भारत चाहती है. इस के बाद भगवा युक्त भारत उस की कल्पना में नहीं है. अगर देश के मतदाता को भगवा युक्त भारत चाहिए होता तो गैरभाजपाई विधायकों की संख्या इतनी अधिक नहीं होती. 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा की लोकप्रियता का ग्राफ लगातार गिर रहा है. कांग्रेस मुक्त भारत अभियान की खुशी में भाजपा इस बात को समझ नहीं रही है. भाजपा को समझना चाहिए कि देश कांग्रेस मुक्त तो हो जाएगा पर यह भगवा युक्त नहीं होगा. भाजपा के विधायकों की संख्या गैरभाजपाई और गैरकांग्रेसी विधायकों से बहुत कम है.
कांग्रेस के कमजोर होने का जो लाभ भाजपा को मिलना चाहिए था वह नहीं मिल रहा है. भाजपा इस बात को समझ रही है पर वह इस बात को स्वीकार करने को तैयार नहीं है. भाजपा इस बात से खुश नजर आ रही है कि कांग्रेस कमजोर हो रही है. भाजपा के सामने असल संकट क्षेत्रीय दलों का है. भाजपा में जिस तरह से कांग्रेस विरोध को अपनी सफलता से जोड़ कर देखा जा रहा है वह गलत नजरिया है.
देश के लोगों ने भाजपा को कांग्रेस के मुकाबले बेहतर माना है. इस के बाद भी गैरभाजपाई और गैरकांग्रेसी राजनीति पर भरोसा ज्यादा है. भाजपा को इस बात को ध्यान में रखते हुए अपने विकास के एजेंडे को आगे करना चाहिए. जनता को राहत देने वाली योजनाओं को न बना कर, भाजपा की सरकार वही गलती कर रही है जो कांग्रेस ने की थी. देश के लोगों को पहले विकास चाहिए, बाकी काम बाद में होने चाहिए. इस के जरिए ही देश पर अपनी पकड़ बनाई जा सकती है.
मोदी विरोध की जो गलती कांग्रेस ने दोहराई अब वही गलती प्रधानमंत्री नरेंद्र्र मोदी कर रहे है. नरेंद्र्र मोदी जब गुजरात में मुख्यमंत्री थे उस समय कांग्रेस ने उन को निशाने पर ले लिया. कांग्रेस भाजपा के कट्टरवाद और गुजरात दंगों को ले कर बेहद मुखर हो गई. कांग्रेस को लगा कि नरेंद्र मोदी की आलोचना के सहारे वह भाजपा को हाशिए पर लाने में सफल हो जाएगी. इस अभियान में कांग्रेस ने भाजपा के नेताओं में केवल नरेंद्र मोदी को ही निशाने पर लिया. 2002 के गुजरात दंगों के बाद कांग्रेस की केंद्र में 10 साल सरकार रही. इस बीच, कांग्रेस केवल नरेंद्र मोदी के विरोध को ही प्रमुखता से उठाती रही. केंद्र सरकार के रूप में कांग्रेस के मोदी विरोध की राजनीति ने ही नरेंद्र्र मोदी को गुजरात से निकाल कर देश के बाहर मजबूत हालत में खड़ा कर दिया. 2014 के लोकसभा चुनावों के समय कांग्रेस को उम्मीद थी कि भाजपा में नेतृत्व के मसले पर नरेंद्र मोदी का विरोध होगा जिस का लाभ कांग्रेस को मिलेगा.
विरोध की राजनीति
जिस तरह से कांग्रेस ने मोदी का विरोध किया था, उस के जवाब में मोदी ने कांग्रेस मुक्त भारत अभियान शुरू किया. केंद्र में सरकार बनाने के बाद नरेंद्र मोदी कांग्रेस विरोध की राजनीति में इतना डूब गए कि बाकी मुद्दे वे भूलते जा रहे हैं. असल में जिस तरह से कांग्रेस विरोध में मोदी देश के प्रधानमंत्री बने, उसी तरह से मोदी के विरोध से कांग्रेस की सत्ता में वापसी हो सकती है. दरअसल, भारतीय मतदाता बहुत ही संवेदनशील है. वह हमेशा उस को पसंद करता है जो दूसरों के द्वारा परेशान किया जाता है. भारत में ‘सहानुभूति वोट’ मिलने के तमाम उदाहरण मिलते है. मोदी ही नहीं, उन के समर्थक भी कांग्रेस और कांग्रेस नेता राहुल गांधी व सोनिया गांधी के किसी विरोध को छोड़ना नहीं चाहते हैं. कांग्रेस विरोध को अगर ऐसे ही हवा मिलती रही तो कांग्रेस कमजोर होने के बजाय मजबूत होगी.
अगस्ता वेस्टलैंड डील के मामले में केंद्र सरकार को कांग्रेस के खिलाफ पुख्ता सुबूत एकत्र करना चाहिए. जिस तरह से बोफोर्स मसले में हुआ. उस से सीख ले कर मोदी सरकार को कदम उठाना चाहिए. कई बार बडे़ नामों को आरोपी बनाने की जल्दबाजी में लड़ाई कमजोर हो जाती है. कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी भी मानते हैं कि कांग्रेस और राहुल गांधी को निशाना बनाने से पार्टी को लाभ होगा. भाजपा सांसद किरीट सोमैया और राज्यसभा सांसद सुब्रह्मण्यम स्वामी जिस तरह से कांग्रेस और गांधी परिवार को निशाने पर लेते हैं उस से कांग्रेस को अपने बचाव का रास्ता मिल जाएगा.
मोदी सरकार को लगता है कि वह जनता से किए गए वादों को पूरा नहीं कर पा रही है, ऐसे में अगर वह कांग्रेस विरोध की राजनीति को ले कर काम करेगी तो एक वर्ग तो खुश हो ही सकता है. यह हो सकता है कि कांग्रेस के विरोधी इस से
खुश रहें पर जनता में कांग्रेस का विरोध ‘सहानुभूति वोट’ में बदल सकता है. मोदी सरकार का 2 साल का समय पूरा हो चुका है. इस कार्यकाल में देश में मोदी की चमक फीकी पड़ी है. भाजपा का बेस वोटर भी खुश नहीं है. भाजपा ने देश की जनता से लोकसभा चुनावों में जो वादे किए थे वह उन को पूरा नहीं कर रही है. ऐसे में उस की लोकप्रियता घट रही है. सिर्फ कांग्रेस विरोध से मोदी की नैया पार नहीं लगेगी.
भाजपा को लग रहा है कि देश से कांग्रेस खत्म हो जाएगी तो भाजपा को राष्ट्रीय स्तर पर किसी दल से चुनौती नहीं मिलेगी. यह भाजपा की गलत सोच है. देश के मतदाताओं के पास हमेशा विकल्प होते है. ऐसे में जो काम करेगा, उस को ही वोट मिलेगा
नासूर पर मरहमपट्टी
मतदाता के फैसले का हम सम्मान करते हैं, हार की समीक्षा की जाएगी, ये ऐसे शब्द हैं जिन्हें कांग्रेस हर हार के बाद दोहराती है. इस के बाद दूसरी पंक्ति के नेता अपने हिस्से के संवाद दोहराते हैं कि दरअसल, कांग्रेस में बड़ी सर्जरी की जरूरत तो है पर शीर्ष में नहीं, बल्कि निचले स्तर पर है. बचेखुचे आधा दर्जन दिग्गजों में से एक कमलनाथ ने भी यही कह कर एक तरह से आलाकमान यानी सोनिया और राहुल गांधी को क्लीन चिट दे दी है. इस से समझने वाले समझ गए हैं कि 5 राज्यों की दुर्दशा पर अब पूर्णविराम लग गया है. वैसे भी चुनावी झांकी उठ गई है और मूर्ति विसर्जन भी हो चुका है. सियासी कुरुक्षेत्र में अब धूल उड़ रही है.
कमलनाथ के कहने का मतलब बेहद साफ है कि चिंता की कोई बात नहीं, कुछ दिनों बाद चमत्कार होगा और कांग्रेस पहले की तरह राज करेगी. जो हो रहा है वह सब मिथ्या और भ्रम है, इसलिए जो कांग्रेसी बचे हैं उन्हें निराश होने की जरूरत नहीं. कांग्रेस ऐसी आकाशवाणियां जमीन से करने की आदी हो चुकी है, जिस का सार इतना भर होता है कि सोनिया और राहुल के बाबत कोई मुंह न खोलें, क्योंकि उस से कोई फायदा नहीं होने वाला. वे तो शाश्वत हैं, फिर सर्जरी कहां होनी है और कौन करेगा, यह न तो अब कोई पूछने वाला है और न कोई बताने वाला है.
दूसरी पंक्ति के होनहार व आरामतलब नेता असल में एक तीर से दो निशाने साधते हैं. पहला सोनिया और राहुल को यह भरोसा दिलाना कि आप चिंता मत करो, नीचे वालों को हम संभाल लेंगे. अब यह इनेगिने लोग ही जानते हैं कि नीचे अब कुछ नहीं बचा है. इन नेताओं को चिंता खुद को बनाए रखने की है क्योंकि कांगे्रस छोड़ ये कहीं जा नहीं सकते और न कांग्रेस को डुबोने वाले इन होनहार नेताओं को कोई भाव देने वाला है. इन से बेहतर तो रीता बहुगुणा जोशी हैं जो अफवाहों में ही सही, भाजपा खेमे में जाने की संभावनाओं से इनकार नहीं करतीं और इन सब खुशामदियों से लाख गुना बेहतर और दूरदर्शी ममता बनर्जी थीं, जिन्होंने अलग पार्टी बना कर खुद का अस्तित्व बनाए रखा.
– भारत