अभिनेता से निर्देशक बने दीपक तिजोरी अतीत में ‘‘उप्स’’, ‘‘खामोश’’, ‘‘फरेब’’, ‘‘टाम डिक एंड हैरी’’, ‘‘फाक्स’’ जैसी फिल्में निर्देशित कर चुके हैं. पूरे सात साल बाद बतौर निर्देशक दीपक तिजारी एक कोरियन फिल्म ‘‘आलवेज’’ का हिंदी रूपांतरण ‘‘दो लफ्जों की कहानी’’ के नाम से लेकर आए हैं. फिल्म का इंटरवल तक का हिस्सा परी तरह से एक टीवी सीरियल की तरह चलता है. इंटरवल के बाद कहानी में कई मोड़ आते हैं, पर कुछ मोड़ क्यों है, इसकी वजह साफ नहीं होती. यानी कि पटकथा की कमजोरी साफ तौर पर नजर आती है.

फिल्म की कहानी मलेशिया में रह रहे भारतीय व पूर्व बाक्सर सूरज (रणदीप हुड्डा), जो कि कभी स्ट्राम्स के नाम से मशहूर थे, से शुरू होती है. वह सुबह से रात तक कई काम कर रहा है. वह चैन से नहीं बैठता. एक दिन उसकी मुलाकात नेत्र हीन भारतीय लड़की जेनी (काजल अग्रवाल) से होती है. धीरे धीरे दोनों में प्यार  हो जाता है और दोनो शादी करने का निर्णय लेते हैं. तब पता चलता है कि कभी वह बाक्सर था और हेनरी के साथ जुड़ा हुआ था. सूरज एक मैच हारता है, जिससे हेनरी (अनिल जार्ज) भी सड़क पर आ जाता है और बाक्सिंग की उसकी सदस्यता भी रद्द हो जाती है. वह यह मैच एक साजिश की वजह से जानबूझकर हारा था. पर बाद में उसे इसका पश्चाताप होता है.

फिर वह दूसरों के पैसे की वसूली करके देने का काम करने लगता है. इसी काम को करते समय एक हादसा ऐसा होता है, जिसमें एक कार भी दुर्घटनाग्रस्त होती है. कुछ समय बाद राज खुलता है कि इस कार को जेनी चला रही थी. जेनी की आंखें चली गयी और उसके माता पिता की मौत हो गयी थी. खैर, शादी से पहले खुद को स्थापित करने के लिए सूरज फिर से हेनरी के संग बाक्सिंग क्लब से जुड़कर मेहनत करने लगता है. अब वह फिर से किक बाक्सिंग के मैच लड़ना चाहता है. इसी बीच उसे पता चलता है कि यदि जेनी की आंखों का आपरेशन कराया जाए तो वह फिर से देख सकती है. सूरज को पता चल चुका है कि उसी की वजह से जेनी को अपने माता पिता खोने पड़े और वह अंधी हुई थी. इसलिए अब वह उसकी आंखों का आपरेशन करवाना चाहता है. इस तरह उसने जिस अपराध को किया ही नही है, पर उसके पश्चाताप में अब तक वह जलता आ रहा था, उससे वह छुटकारा पा सकेगा.

जेनी की आंख के ऑपरेशन के लिए उसे पंद्रह दिन में तीन लाख रूपए चाहिए. ऐसे में एक अन्य बाक्सर सिद्धार्थ उससे कहता है कि वह गेविन से मिले. गेविन उसे मुंहमांगी रकम इस शर्त पर देता है कि उसे एक मैच अपनी पहचान छिपाकर लड़ना पड़ेगा. इस मैच में ज्यादातर लोग जिंदा नही बचते. यह मैच गैरकानूनी होता है. इसलिए पकड़े जाने पर वह खुद जिम्मेदार होगा. इस मैच के लिए वह जाता है. तो पता चलता है कि उसका मुकाबला सिद्धार्थ से ही है और सिद्धार्थ उसे हमेशा के लिए खत्म कर देना चाहता है. पर किसी तरह सूरज बच जाता है.

तब गेविन उसे ड्रग्स का पैकेट किसी को देने भेजता है. रास्ते में फिर सिद्धार्थ मिलता है और उसे मरा हुआ छोड़कर चला जाता है. पर पता चलता है कि छह माह बाद अस्पताल में जेनी की उससे एक अलग नाम से मुलाकात होती है. फिर नाटकीय ढंग से जेनी व सूरज मिल जाते हैं. पर सवाल यह है कि सूरज, सरफराज बनकर दूसरे देश गया था. वहां से वह वापस मलेशिया कैसे पहुंचा. सिद्धार्थ ने सूरज को खत्म करने की कोशिश क्यों की?

कोरियन फिल्म ‘‘आलवेज’’ का भारतीयकरण करते समय दीपक तिजोरी ने ऐसे मसाले पिरोए हैं कि फिल्म‘‘दो लफ्जों की कहानी’’ देखते हुए दीपिका पादुकोण व नील नितिन मुकेश की फिल्म ‘‘लफंगे परिंदे’’ की याद आ जाती है. कहने का अर्थ यह कि कहानी में कोई नयापन नहीं.

जहां तक अभिनय का सवाल है, रणदीप हुड्डा ने काफी मेहनत की है. जिन्होंने कोरियन फिल्म ‘आलवेज’ देखी है, उन्हें कोरियन अभिनेता व रणदीप हुड्डा में काफी समानताएं नजर आएंगी. मिक्स्ड मार्शल आर्ट हो या रोमांटिक दृश्य हर जगह वह छा जाते हैं. वह पूरी फिल्म में अपने अभिनय की छाप छोड़ते हैं, मगर अफसोस की बात यह है कि उनके हिस्से कमजोर पटकथा व कमजोर निर्देशक ही आते हैं. जेनी के किरदार में काजल अग्रवाल ने ठीक ठाक काम किया है. वैसे उनके हिस्से में मुस्कुराने के अलावा ज्यादा कुछ करने को था ही नहीं. फिल्म के सारे गाने पृष्ठभूमि में हैं, जो कि ठीक ठाक बन गए हैं.

वक्त के साथ दीपक तिजोरी अपने आपको नहीं बदल पाए. अभी भी वह बीस साल पहले के युग में जी रहे हैं. इसी के चलते उसी तरह के घटनाक्रमों का ताना बाना इस फिल्म में बुना है. जो कि फिल्म को नीरस बना देते हैं. प्रेम कहानी को लेकर कोई दिलचस्पी दर्शक के मन में पैदा नहीं होती. बल्कि दर्शक यह सोचता रहता है कि यह फिल्म कब खत्म होगी.

निर्देशक के तौर पर दीपक तिजोरी ने इस फिल्म को तहस नहस किया है. रणदीप हुड्डा की परफार्मेंस के चलते भले इस फिल्म को कुछ दर्शक मिल जाएं, अन्यथा इस फिल्म का कोई भविष्य नहीं. फिल्म में न तो इमोशन हैं और न ही प्रेम कहानी ही सही ढंग से उभर पाती है. कैमरामैन मोहाना कृष्णा ने जरुर फिल्म में खूबसूरती लाने का काम किया है. पटकथा लेखक गिरीश धमीजा कई जगह चूक गए हैं. फिल्म के कई दृश्य लाजिकली सही नहीं बैठते. मसलन- जेनी किस वजह से अपने घर से कई किलोमीटर दूर एक पार्किंग गैरेज की सिक्यूरिटी केबिन में सिर्फ टीवी पर एक सीरियल देखने हर दिन जाती है?

दो घंटे सात मिनट की फिल्म ‘‘दो लफ्जों की कहानी’’ का निर्माण धीरज शेट्टी, अविनाश वी राय, धवल जयंती लाल गाड़ा ने किया है. निर्देशक दीपक तिजोरी, पटकथा लेखक गिरीश धमीजा, संगीतकार बबलील हक, अमान मलिक, अंकित तिवारी, अर्जुन हरजे, कैमरामैन मोहाना कृष्णा तथा कलाकार हैं- रणदीप हुड्डा, काजल अग्रवाल, अनिल जार्ज, मामिक.

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