बिहार की राजधनी पटना शहर का मुख्य और पुराना इलाका है-अशक राज पथ. करगिल चौक की ओर से इस सड़क में घुसने के बाद मिलता है बांकीपुर पोस्ट औफिस. उसी बिल्डिंग के बगल से सटी एक तंग गली गंगा नदी के किनारे बने कंगला घाट तक पहुंचती है. कुछ लोग इसे नाम कंटाहा घाट भी कहते हैं. इस घाट पर रहने वाले लोग हर दिन मौत का जश्नन मनाते हैं. उन्हें रोज ही इस बात का इंतजार रहता है कि शहर में कोई बड़ा आदमी मरे, तो उन्हें भरपेट लजीज खाना मिले.
अंधविश्वास में डूबे लोग अपने परिजनों की आत्मा को शांति पहुंचाने के टोटके के नाम पर इसी घाट के भिखारियों को खाना खाने बुलाते हैं या उनके बीच पूरी, सब्जी और मिठाई का पैकेट बांटते हैं. समाज में फैले अंधविश्वास ने इस घाट को जिंदा रखने में अहम भूमिका अदा की है. शहर में रोज कोई न कोई मरता ही है, इसलिए इस घाट के बाशिंदों को कभी पकवानों की कमी नहीं हुई. घाट के पास बनी झोपड़ी में पिछले 31 सालों से रह रहा रामखेलावन बताता है कि महीने में 20-22 दिन पूरी, सब्जी और मिठाई खाने का मजा मिलता हैं. उसके पिता और मां भी इसी घाट के पास में रहते थे, 12 साल पहले उनकी मौत हो गई. अब वह अपने 3 बच्चों और बीबी के साथ छोटी सी झोपड़ी में रह रहा है.
शहर के अमीर और बड़े लोगों के मरने पर ही इस घाट के करीब 100 परिवारों की जिंदगियां चल रही हैं और उनका वंश आगे बढ़ रहा है. उनकी सुबह इसी उम्मीद के साथ होती है कि शहर में आज कोई मरे और उन्हें उम्दा खाना मिल सके. पिछले 70-75 सालों में शहर का रंग-रूप बदला. कई सरकारें बदल गईं. तरक्की के हजारों दावे और वादे हुए. पर इस घाट के पास बसी झोपड़पट्टी और उसमें रहने वालों तक रत्ती भर भी तरक्की नहीं पहुंच सकी है. अंधविश्वासियों के बूते उनकी पीढ़ी-दर-पीढ़ी पल रही हैं.
सच ही कहा गसा है कि जब बैठे ठाले मुफ्त में खाने को पुआ-पकवान मिल रहा हो और हराम का खाना खाने की आदत पड़ गई हो, तो कोई काम करने के लिए हाथ-पांव क्यों चलाए? भिखारियों की इस घाट के आसपास बसने, पनपने और बढ़ने के पीछे पोंगापंथ का ही हाथ रहा है. घाट के पास रहने वाला 15 साल का लड़का अपने साथियों के साथ कंचे खेल रहा है. जब उससे पूछा गया कि उसे लोग बढ़िया-बढ़िया खाना खाने के लिए क्यों दे जाते हैं तो वह तपाक से कहता है-‘जब तक लोग हम कंगलों को खाना नहीं खिलाएंगे, तब तक मरने वाले की आत्मा भटकती रहेगी. दूसरा जीवन पाने के लिए उसे कोई शरीर ही नहीं मिलेगा.’
उस बच्चे की बातों को सुन कर यही लगता है कि उसके मां-बाप ने भी उसे यह बात घुट्टी में पिला दी है कि लोग उसे खाना खिला कर या दान देकर कोई अहसान नहीं करते हैं. यह सब काम लोग अपना मतलब साधने के लिए ही करते हैं. हमारे समाज में अंधविश्वास की जडे़ किस कदर अपनी जड़ें जमायी हुई है कि बाबाओं और पंडों की बातें अमीरों से लेकर गरीबों दिमाग में कितनी आसानी से पैठ बना लेती हैं.
कंगला घाट में रहने वाले ज्यादातर भिखारी हट्टे-कट्टे हैं. वे किसी भी सूरत से अपंग और लाचार नहीं है. इसके बाद भी वह कोई काम नहीं करना चाहते हैं. मेहनत-मजदूरी का पैसा कमाने और पेट पालने के बारे में वह लोग सोचते ही नहीं है. अपने 4 बच्चों के साथ रहने वाला डोमन से जब पूछा गया कि वह कोई काम धंधा क्यों नहीं करता है? अपंग नहीं होने के बाद भी भीख और दान के भरोसे क्यों जिंदगी चला रहा है? मजदूरी करके अपनी कमाई को बढ़ाना क्यों नहीं चाहता है? अपने बच्चों को स्कूल क्यों नहीं भेजता है? इन सब सवालों के जबाब में वह उल्टा सवाल करता है-‘ अगर हम लोग दूसरा काम-धंधा करने लगेंगे तो मरने वालों को उद्वार कैसे होगा? लोग मरेंगे तो उनके परिवार वालों को कोई कंगला नहीं मिलेगा. समाज का नियम-कायदा ही गड़बड़ा जाएगा’.
सरकार और प्रशसन की बीसियों गाड़ियां सायरन बजता दनदनाती-हनहनाती कंगला घाट के पास से रोज गुजरती हैं, पर किसी का ध्यान उस ओर नहीं जाता है. बिहार वंचित जन मोर्चा के संयोजक किशरी दास कहते हैं कि हर सरकार और प्रशासन समस्या को मिटाने के बजाए उसे बनाए रखने में दिलचस्पी दिखाते हैं. कंगला घाट के पास बनी झोपड़पट्टी को हटाने के बारे में किसी ने कभी सोचा ही नहीं, क्योंकि यह मामला राजनीति के साथ-साथ पोंगापंथ से भी जुड़ा हुआ है. दूसरों से मिली भीख से मरने वाले का परलोक सुधरने वालों का इहलोक कई पीढी दर पीढी बर्बाद हो रही है, यह किसी को न दिखाई देता है और न ही समझ में आता है.