32 सैकंड और 61 मौतें…दशहरा की शाम को अमृतसर के जोड़ा फाटक पर हुए भयानक रेल हादसे ने सब का दिल दहला दिया. रेलवे लाइन के दोनों तरफ फैला खून और इधरउधर छितरे पड़े कटे इंसानी अंगों को देख कर तो शायद रावण भी दहल उठा होगा, जिस को जलता देखने के उत्साह में जमा उन्मादी भीड़ को इस बात का भी भान नहीं था कि वह किस जगह खड़ी है.

91 किलोमीटर प्रतिघंटे की रफ्तार से आती जालंधरअमृतसर डीएमयू ऐक्सप्रैस के हौर्न की आवाज किसी के कानों में नहीं पड़ी और तेज रफ्तार से आ रही ट्रेन ने पटरी पर जमा भीड़ को गाजरमूली की तरह रौंद दिया.

इस में गलती किस की है? क्या उस ट्रेन ड्राइवर की, जिस का कहना है कि रेलवे फाटक पर 2 पीली लाइटें जलती देख, ट्रेन की रफ्तार धीमी करने के संकेत को समझते हुए उस ने गाड़ी की स्पीड 91 से घटा कर 65 किलोमीटर प्रतिघंटा कर दी थी, मगर ऐसा करने के बाद भी ट्रेन ने लंबी दूरी तय कर ली. तेज रफ्तार ट्रेन को अचानक ब्रैक लगा कर रोका नहीं जा सकता था. अंधेरे के कारण दूर तक दिखाई देना भी संभव नहीं था. बावजूद इस के, ड्राइवर ने जब पटरी पर जमा लोगों को देखा तो काफी देर तक हौर्न बजाया, मगर कोई भी व्यक्ति पटरी से नहीं हटा.

पटाखों के शोर में ट्रेन के हौर्न की आवाज उस खड़ी भीड़ को सुनाई ही नहीं दी. ड्राइवर ने इमरजैंसी ब्रैक भी लगाए, लेकिन ट्रेन की रफ्तार हलकी सी कम हुई मगर तब तक 61 लोग उस की चपेट में आ कर अपनी जान गंवा चुके थे.

हादसा हो चुका था. ड्राइवर ने आगे टे्रन रोकने की कोशिश की, मगर उन्मादी भीड़ ट्रेन की ओर हाथों में पत्थर उठा कर दौड़ पड़ी. ट्रेन में बैठे यात्रियों की जान पर मंडराते खतरे को भांप कर ड्राइवर ट्रेन ले कर आगे बढ़ गया. आखिर रेल की पटरी पर जमा अनुशासनहीन लोगों की वजह से वह हजारों यात्रियों की जान दांव पर नहीं लगा सकता था. क्या गलती की उस ने?

धर्म की अंधभक्ति

19 अक्तूबर को दशहरे का उल्लास अचानक मातम में बदल गया. रातभर लोग रेलपटरी और अस्पतालों में अपनों की लाशों को ढूंढ़ते रहे. किसी को सिर मिला तो किसी को धड़. कितना भयावह दृश्य था यह. इस दर्दनाक घटना के लिए प्रशासन रेल की पटरी के पास दशहरे के कार्यक्रम का आयोजन करने वालों पर आरोप मढ़ता रहा और आयोजक रेलवे विभाग पर उंगली उठाते रहे. ट्रेन के ड्राइवर को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया.

लेकिन गंभीरता से सोचें तो एहसास हो जाएगा कि गलती किसी और की नहीं, सिर्फ हमारी है. हम खुद ही अपनी जान के दुश्मन हैं. धर्म की अंधी आंखों को दिखाई ही नहीं देता कि हम कहां खड़े हैं? कहां चढ़े हैं? हम खुद गलत करते हुए बुराई पर अच्छाई की जीत का तमाशा देख रहे थे, क्या रेल की पटरियां खड़े हो कर तमाशा देखने की जगह हैं? आखिर हम अपनी अनुशासनहीनता और गलतियों का आरोप दूसरे पर कैसे मढ़ सकते हैं?

जब तक हम अनुशासित होना, व्यवस्थित रहना, नियंत्रित होना नहीं सीखेंगे, तब तक ऐसे हादसे हमें रुलाते रहेंगे. हर दुर्घटना सरकार की लापरवाही से नहीं होती. हमारा गैरजिम्मेदार होना दुर्घटनाओं को आमंत्रित करता है.

किसी भी अफवाह पर अनियंत्रित हो जाना, किसी भी आयोजन में अनुशासनहीन हो जाना, किसी के भी उकसाने पर बिना सोचेसमझे भीड़ का हिस्सा बन जाना हमारी आदत है. अमृतसर रेल हादसा इसी का दुष्परिणाम है. तेज गति से आती ट्रेन का न दिखना, उस की तीव्र आवाज का न सुनाई देना, उस की गति से होने वाले कंपन का आभास न होना साबित करता है कि रावण दहन देख रहे लोग किस हद तक लापरवाह और अनुशासनहीन थे. काश, हम सब यहीं से सीखना शुरू कर दें.

हमारे अंदर अनुशासनहीनता की मनोवृत्ति बहुत पुरानी है. व्यवस्थित रहने की शिक्षा हम ने कभी ग्रहण ही नहीं की. न धर्म ने इस की बाध्यता हमारे सामने रखी, न समाज ने, न मांबाप, गुरु या धर्मगुरु ने.

पाश्चात्य देशों में देखिए, लोग गिरिजाघरों में कितने अनुशासित और व्यवस्थित तरीके से जाते हैं, आराम से बैंचों पर बैठते हैं जबकि हमारे यहां मंदिरों में देखिए, कैसे भीड़ एकदूसरे के ऊपर पिली रहती है. कैसे धक्कामुक्की करते लोग भगवान पर प्रसाद चढ़ाने के लिए गिरेपड़े जाते हैं. कैसे मंदिरों के बाहर चप्पलों की चोरियां होती हैं, अंदर पर्स निकल जाते हैं.

किसी धर्मगुरु, किसी उपदेशक ने अपने समाज को यह समझाने की कोशिश नहीं की कि यह गलत है, ऐसा नहीं करना चाहिए. किसी ने भी लोगों के दिल में यह डर बैठाया नहीं कि अगर आप अनुशासित नहीं रहेंगे तो पूजापाठ का कोई अर्थ नहीं है, आप को सिर्फ दंड भोगना होगा.

मुसलमानों को देखिए, जुमे के दिन कैसे मुख्य सड़कों तक बिछे रहते हैं. इस से ट्रैफिक तक रुक जाता है, जिस से लोगों को असुविधा होती है. किसी को औफिस पहुंचने में देर होती है तो किसी को स्कूल पहुंचने में. कहीं ऐंबुलैंस ट्रैफिक में फंसी रह जाती है, क्योंकि सड़क पर नमाज हो रही है. पूरा पुलिस प्रशासन सारे काम छोड़ कर ट्रैफिक को नियंत्रित करने में लग जाता है. क्या फायदा तुम्हारी ऐसी इबादत से जो दूसरों को तकलीफ पहुंचा कर अदा की जा रही हो?

इंसानियत भूल बैठे

आज अपनेअपने धर्म का पालन करने के चक्कर में हम इंसानियत भूल बैठे हैं. हमें अच्छेबुरे की पहचान ही नहीं रह गई है. धर्म ने इंसान को फायदा कम, नुकसान ज्यादा पहुंचाया है. धर्म ने इंसानों के बीच नफरत के बीज बो दिए हैं. उन्हें अपनेअपने दायरे में बंद कर दिया है. दुनियाभर में धर्म के लिए लड़ाइयां होती रही हैं और आज भी हो रही हैं. धर्म के नाम पर इंसान सिर्फ खून बहा रहा है और इंसानियत मर गई है

धर्म ने आज पृथ्वी को रहने के काबिल नहीं छोड़ा है. हवा, पानी, मिट्टी में जहर घोल दिया है. सिर्फ भारत का उदाहरण देखें तो दशहरादीवाली में पटाखों का जहर हवा में ऐसा घुल जाता है कि सांस लेना दूभर हो जाता है. धर्म के नाम पर लाखों रुपए फूंक कर हम नईनई जानलेवा बीमारियां पैदा कर रहे हैं.

दुर्गापूजा, गणेशपूजा और इसी तरह की तमाम पूजाओं के बाद नदियों की क्या हालत होती है, किसी से छिपा नहीं है. यह गंदगी इंसान को कितने रोग दे रही है, किसी को इस की परवा ही नहीं है. हमें तो सिर्फ अपना धर्म देखना है, वही निभाना है. इस के चलते इंसान मरते हैं तो मरें. धर्म के ठेकेदार न तो लोगों को अनुशासन का पाठ पढ़ाते हैं, न इंसानियत या नैतिकता की सीख देते हैं. वे सिर्फ कर्मकांड सिखाते हैं. बेतुके कर्मकांड. अतार्किक कर्मकांड.

जापानियों को देखिए, उन के लिए बचपन से ही अनुशासन बाध्यतामूलक है. घर, विद्यालय, धार्मिकस्थलों हर जगह वहां अनुशासन को प्राथमिकता दी जातीहै. अपने घर को, विद्यालय को, धार्मिकस्थल को साफ रखना उन का पहला कर्तव्य है. इंसान के पूर्ण विकास और चरित्र गठन के लिए बचपन से अनुशासन और नैतिकता की घुट्टी पिलाई जाती है. हर छात्र स्कूल में श्रमदान करता है और स्कूल की सफाई करता है. आप को यह बालश्रम लगेगा, मगर जापानियों के लिए सफाई रखना उन का दायित्व है. उन के मांबाप, गुरु और धर्मगुरु उन्हें यह सिखाते हैं.

इस का उदाहरण हमें 2018 के फुटबौल विश्वकप में देखने को मिला, जहां हारने के बाद भी रोते हुए जापानी खिलाडि़यों ने अपना लौकरूम साफ किया तथा जापान की जनता ने रोते हुए उस स्टेडियम को साफ किया, जहां बैठ कर उन्होंने मैच देखा. अनुशासन मनुष्य में तब आएगा जब उसे इस की शिक्षा बचपन से ही दी जाएगी.

अनुशासन जापानी बच्चों में सुचारु रूप से निवेश किया जाता है, शिक्षा के एक अहम अंग जैसा, जबकि हमारा युवा यह भूल बैठा है कि जिस समाज में वह रहता है उस के प्रति उस की भी कुछ जिम्मेदारियां हैं. जिस सार्वजनिक संपत्ति को वह बिना सोचेसमझे तोड़ता है, गंदा करता है या आग के हवाले कर देता है उस की भरपाई करने कोई बाहर से नहीं आता. उस की भरपाई के लिए सरकार हम पर ही करों का बोझ डालती है और महंगाई के बोझ से झुकी हमारी कमर थोड़ी और झुक जाती है.

हमारे यहां कोई हादसा हो जाए तो लोग पैनिक हो जाते हैं, भगदड़ मच जाती है. जिस तरफ भीड़ दौड़ रही है, उसी तरफ हम दौड़ने लग जाते हैं, क्योंकि हम अनुशासित नहीं हैं. इसीलिए हादसे के वक्त हमारी सोच के दरवाजे बंद हो जाते हैं.

अनुशासित होते तो अमृतसर में रेल की पटरियों पर खड़े न होते. अनुशासन के नाम पर हमें बुखार आ जाता है. हमें हौर्न सुनाई नहीं देता, न रेल की पटरी पर रेल का आना पता चलता है, न सड़कों पर गाडि़यों का. हर प्रकार के वाहन तीव्रगति से दौड़ रहे हैं.

फुटपाथ पर मोटरसाइकिल और स्कूटर वाले चढ़े चले आते हैं. यातायात नियमों की कोई परवा नहीं है. हर आदमी दूसरे से आगे निकलने के लिए भागमभाग कर रहा है. यह नित्यप्रति का घटनाक्रम बन चुका है और इसी के चलते हादसे होते रहते हैं. इसी के चलते मंदिरों में भगदड़ मच जाती है. रेलवे स्टेशनों पर, बाजारों में भगदड़ में सैकड़ों लोग कुचल कर मर जाते हैं.

अनुशासनहीनता की हदें पार

फरवरी 2011 का एक हादसा आज भी याद आता है तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं. भारततिब्बत सुरक्षा बल में भरती के लिए कोई ढाई लाख कैंडिडेट बरेली पहुंचे थे. बरेली में इन कैंडिडेटों ने अनुशासनहीनता की सभी हदें पार कर दी थीं. वे इतना आक्रोशित थे कि लौटते वक्त उन्होंने ट्रेन में बैठे मुसाफिरों के साथ अभद्रता की. वैध टिकट ले कर यात्रा कर रहे यात्रियों को उठा कर खुद बैठ जाना, ट्रेन की छतों पर जा बैठना, स्टेशन में तोड़फोड़ करना सज्जनता की किस श्रेणी में आता है?

उन के आचरण को देख कर तो लगता है कि जैसे वे घर से मूड बना कर चले थे कि उन्हें अपनी युवाशक्ति का प्रदर्शन इसी तरह करना है और इस मूड को उन्होंने आखिर तक बरकरार रखा. यह भीड़ जहांजहां से गुजरी, अपने पीछे बरबादी का आलम छोड़ती चली गई.

आखिर वे चाहते क्या थे? बरेली, बदायूं, फर्रुखाबाद के नागरिकों को वे किस अपराध की सजा दे रहे थे? ट्रेन की छत पर चढ़ने से पहले क्या उन्हें नहीं पता था कि इस तरह की यात्रा में हादसा होना तय है? ट्रेन में आग लगा कर वे क्या सिद्ध करना चाहते थे?

आखिर ऐसी कौन सी आफत आ गई थी कि एक रात वे बरेली शहर में नहीं गुजार सकते थे? अगर वे संयम बरतते तो कोई कारण नहीं था कि सरकार और स्थानीय प्रशासन उन की मदद के लिए आगे नहीं आता. इतना उपद्रव कर के उन्हें आखिरकार हासिल क्या हुआ?

हाईटैंशन तारों से झुलसे 14 साथियों के मृत शरीर और उन के परिवारों को दिया गया ऐसा दर्द जिस की टीस ताउम्र उन्हें सालती रहेगी. क्या वे खुद को माफ कर पाएंगे? और सब से बड़ी बात, वे यह कैसे भूल सकते हैं कि जिस फोर्स में भरती होने के लिए आए थे वह अपने अनुशासन के लिए जानी जाती है, न कि अनुशासनहीनता के लिए. उन्होंने तो अपनी करतूतों से यह सिद्ध कर दिया कि वे उस फोर्स में शामिल होने के योग्य ही नहीं हैं.

अनुशासन की महत्ता

अनुशासन क्या है और उस की अहमियत मुसीबत के वक्त कितनी होती है, इस का पता चलता है उस घटना से जो अमेरिका के न्यूयौर्क में एक प्लेन लैंडिंग के वक्त हुई. 15 जनवरी, 2009 को एक प्लेन न्यूयौर्क के ला गार्डिया एयरपोर्ट से उड़ा. पायलट थे कैप्टन चेस्ली बी सलेनबर्गर और उन के साथी थे फर्स्ट औफिसर जेफ्री बी स्काइल्स. यह प्लेन रास्ते में कुछ चिडि़यों के समूह से टकरा गया, जिस के कारण इस के दोनों इंजन बंद हो गए. पायलट के पास कोई उपाय नहीं था. हवा में 1,500 फुट की ऊंचाई पर प्लेन बंद हो गया. प्लेन में 5 क्रू मैंबर्स और 150 यात्री थे. प्लेन को पास के किसी भी एयरपोर्ट पर उतारने का भी टाइम पायलट के पास नहीं था. ऐसे में पायलट का अनुशासन और उस की वजह से उत्पन्न हुई सूझबूझ ने काम किया और सलेनबर्गर ने अपना जहाज हडसन नदी में उतार दिया.

हालांकि सलेनबर्गर को आपातकालीन लैंडिंग के लिए 2 एयरपोर्ट्स पर उतरने की सलाह दी गई थी, लेकिन उन्होंने जवाब दिया कि ऐसा करना संभव नहीं है. जब सलेनबर्गर ने न्यूयौर्क के ट्रेकौन टर्मिनल राडार अप्रोच कंट्रोल सैंटर वेस्टबरी को जानकारी दी कि उन का विमान डबल बर्ड स्ट्राइक से क्षतिग्रस्त हो गया है तब कंट्रोलर ने उन्हें ला गार्डिया लौटने की सलाह दी और कहा कि रनवे 13 खाली है और वे अपना विमान वहां उतार सकते हैं, लेकिन उन का जवाब था कि वे ऐसा करने में असमर्थ हैं.

इस के बाद सलेनबर्गर को उत्तरी न्यूजर्सी के उपनगर दिखाई दिए और उन्होंने पूछा कि यह क्या है और वे वहां जा सकते हैं? उन्हें जानकारी दी गई कि यह टेटरबरो उपनगर का छोटा हवाई अड्डा है जिस पर यात्री और निजी विमान ही उतरते हैं.

कंट्रोलर ने उन्हें क्लीयरैंस दिया कि वे टेटरबरो के रनवे नंबर 1 पर आपात लैंडिंग कर सकते हैं. इस पर सलेनबर्गर ने फिर से जवाब दिया कि ऐसा करना संभव नहीं है. उन को पता चल गया था कि टेटरबरो के रनवे पर विमान को उतारने के लिए अपने जेट्स को सुरक्षित रूप से रोकने के लिए वे रिवर्स थ्रस्टर्स का इस्तेमाल नहीं कर पाएंगे. इस के बाद पायलट सलेनबर्गर ने कंट्रोलर से कहा कि वे हडसन नदी में ही विमान उतार रहे हैं और यात्रियों को सुरक्षित निकालने के लिए वे तुरंत नौकाओं का इंतजाम करें. इस के बाद ट्रेकौन अधिकारियों ने न्यूयौर्क हार्बर अधिकारियों को इस बात की जानकारी दी कि नदी में एक विमान आपात लैंडिंग कर रहा है, इसलिए उस के यात्रियों के बचाव और सुरक्षा के उपाय किए जाएं.

नदी में विमान उतरते ही नौकाएं यात्रियों को सुरक्षित बाहर लाने के लिए पहुंच गईं. इस दौरान पूरे अनुशासन में रहते हुए क्रू मैंबर्स ने एकएक यात्री को बाहर निकाल कर नौका पर सवार किया. कहीं कोई भगदड़ नहीं, कहीं कोई अराजकता नहीं.

एयरहोस्टैस पूरे वक्त यात्रियों का ध्यान रखती रहीं और उन से कहती रहीं कि घबराने की जरूरत नहीं है, सिर्फ अपने हाथों से अगली सीट को पकड़ कर बैठें और अपना सिर दोनों हाथों के बीच झुका लें. सभी यात्रियों और कू्र मैंबर्स के सहीसलामत नौकाओं पर बाहर निकलने के बाद सलेनबर्गर ने डूबते जहाज पर आखिरी चक्कर लगाया और वे सब से आखिर में नौका पर सवार हुए. उन का प्लेन पानी के ऊपर कोई डेढ़ घंटे तक रहा और फिर धीरेधीरे पानी में डूब गया. यह था उन का अनुशासन.

यही घटना कहीं किसी भारतीय प्लेन में होती तो शायद यात्री चलते प्लेन से छलांग लगाने के लिए तैयार हो जाते. किसी धार्मिक स्थल, बाजार या ट्रेन में कोई हादसा हो जाता है तो जितने लोग हादसे से नहीं मरते, उस से ज्यादा भगदड़ में मारे जाते हैं, क्योंकि हमारे धर्म, हमारे स्कूल, हमारे घर और समाज हमें अनुशासित रहने की शिक्षा नहीं देते, अनुशासन को हमारी बाध्यता नहीं बनाते, बल्कि कर्मकांडों, आडंबरों और दिखावों से हमारा पूरा अस्तित्व रचते हैं.

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