गुड़गांव, दिल्ली, यमुनानगर व लखनऊ के स्कूलों में बच्चों ने ताबड़तोड़ दिल दहला देने वाली वारदातें कर दीं. बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं. वे वही बोलते हैं, वही करते हैं जो वे अपने आसपास बड़ों से सीखते हैं या समाज में होता हुआ देखते हैं.

लगातार बढ़ रहे अपराधों की रफ्तार देख कर सोचने पर मजबूर होना पड़ता है. मोटेतौर पर समाज व नियमों के खिलाफ कोई काम या गलती करना या कराना कानून की नजर में अपराध माना गया है. खराब माहौल व गलत सोहबत से अपराध बढ़ते हैं. हमारे समाज में अपराध की समस्या नई नहीं है. हमेशा से ऐसा होता रहा है.

पहले ऊंची जातियों के लोग नीची जाति वालों के साथ अपराध करते थे. सामूहिक अपराध होते थे, लेकिन उन जुल्मों के खिलाफ कोई चूं तक नहीं कर पाता था. लेकिन अब ऐसा नहीं है. अब खिलाफत व मुकाबला करने का दौर है. सदियों से शोषित रहे पिछड़े व दलित भी उलटा दांव चलने लगे हैं.

अपराध होने की एक वजह सदियों से चल रही जाति व्यवस्था का जहर भी है. वर्ण व्यवस्था के तहत पिछड़ों को शूद्र व दलितों को अछूत कहा जाता था. मनमाने नियम बना कर नीची जाति वालों को इतना सताया जाता था कि उन का रहना, खानापीना व जीना सब मुहाल था. उन की जिंदगी जानवरों से भी बदतर होती थी. दलितों व पिछड़ों के नहाने, साफ रहने, कुएं पर चढ़ने, बरात निकालने, मंदिरों में घुसने व पढ़नेलिखने तक पर कड़ी पाबंदियों की बेडि़यां डाली गई थीं. इस से शोषितों का खुद पर से यकीन चला गया.

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