शनिवार की एक रात. रेलवे प्लेटफार्म पर गहमागहमी का माहौल. सैकड़ों लोग ट्रेनों से उतर रहे थे या फिर ट्रेन पकड़ने का इंतजार कर रहे थे. पर एक जगह नजारा कुछ और ही था. वहां लोग कतार लगाए खड़े थे. यह उन के लिए शनि की साढ़ेसाती का प्रकोप था या और कुछ, पता नहीं.

जिस काम के लिए वे सब कतार में खड़े थे, वह ऐसा कुदरती काम है जिसे नित्यक्रिया कहते हैं. मतलब, वे मुंबई सैंट्रल टर्मिनल पर बने एक शौचालय के बाहर खड़े थे.

वैसे, ‘आप कतार में हैं’ की आवाज तभी अच्छी लगती है जब आप सामान्य हालात में होते हैं या फिर कोई मीठी आवाज की औरत ऐसा बोलती है. शौचालय की कतार में खड़े हो कर किसी को यह सुनना अच्छा नहीं लगेगा.

हुआ यों कि शौचालय के मुलाजिम और ठेकेदार रेलवे की चादरें ‘चादर बिछाओ बलमा…’ गीत गाते हुए रेलवे के कंबल ओढ़ कर निद्रा देवी के आगोश में चले गए. इधर शौच के लिए जाने वाले लोग कतार में लगे अपने आगे के लोगों को गिनते रहे और अंकगणित के सवाल हल करते रहे कि अगर एक आदमी को शौच करने में तकरीबन 5 मिनट लगते हैं तो उन के आगे खड़े 7 लोगों को कितना समय लगेगा और उन के लिए वह सुनहरा वक्त कब आएगा जब वे खुद को एक बहुत बड़े तनाव से मुक्त कर सकेंगे.

वे बारबार अपनी जेब में रखा 2 का सिक्का छू कर तसल्ली कर रहे थे कि ऐन वक्त पर छुट्टे न होने के चलते उन्हें फिर से कतार में न लगना पड़े.

चाहे सदी के महानायक कहते रहें कि ‘अब इंडिया शौच करेगा तो दरवाजा बंद कर के’, पर शौचालय के अंदर जा कर कोई दरवाजा बंद कर के ही सो जाए तो इंडिया शौच कैसे करेगा? हांय? ऐसे में तो शौचालय तो शयनालय यानी सोने की जगह बन जाएगा.

बेचारे शौच के मारे मुसाफिरों का ‘तेरे द्वार खड़ा इक जोगी…’ गातेगाते गला बैठ गया. सिक्के को दबातेदबाते हाथ में छाले पड़ गए, पर दरवाजा अली बाबा के खजाने के दरवाजे की तरह खुलने का नाम ही नहीं ले रहा था.

उस दरवाजे को खोलने का ‘खुल जा सिमसिम’ टाइप कोडवर्ड क्या था, किसी को नहीं पता था.

रेलवे के अफसरों से शिकायत करने पर शौच जाने वालों को कभी इस अफसर के पास तो कभी उस अफसर के पास भेजा जाता रहा.

अब सोचिए कि उन भुक्तभोगियों की क्या हालत हो रही होगी. ऐसे विकट हालात में 2-4 कदम चलना भी मुश्किल होता है और उन बेचारों को दरदर की ठोकरें खानी पड़ रही थीं.

अब भैया, कुछ इमर्जैंसी वाले काम ऐसे होते हैं जिन की जरूरत कभी भी पड़ सकती है और हलका होना भी उन में से एक है.

कहा भी गया है कि ग्राहक, मौत और शौच कभी भी आ सकता है. वैसे कहा सिर्फ ग्राहक और मौत के लिए गया है, पर अभी भी देश में विकास पर बहुत ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है, इसलिए शौच को मौत के साथ जोड़ कर कहावत का विकास किया गया है.

जब गाड़ी 24 घंटे चलाते हो, मुसाफिर 24 घंटे रेलवे स्टेशन पर आजा सकते हैं, तो शौचालय को कैसे बंद कर सकते हो?

यह कहां का नियम है कि रात के 12 बजे से सुबह के 5 बजे तक शौच नहीं कर सकते? अब लगता है कि शौच घोटाला भी कुछ दिनों में सामने आएगा. शौचालय के ठेकेदार लोग, आप अपनी रोजीरोटी पर खुद क्यों रोक लगा रहे हो?

जिस तरह ‘पैसे लो जूते दो’ की रट दुलहन के देवर लगाते हैं, उसी तरह एक शौच जाने वाले की यही गुजारिश है, ‘वाईफाई ले लो, पर शौचालय दे दो…’

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