बिहार के मुख्यमंत्री रह चुके हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा के अध्यक्ष जीतनराम मांझी ने आरक्षण का लाभ नहीं लेने का ऐलान कर इतिहास तो रचा ही है, साथ ही आरक्षण बम में पलीता भी लगा दिया है. समूचे देश में जहां आरक्षण, उसकी समीक्षा और उसे खत्म नही करने के लिए सियासत उबाल पर है, वहीं बिहार के महादलित नेता मांझी अब आरक्षण का लाभ नहीं लेंगे. ऐसा करके वह देश के पहले दलित नेता बना गए हैं, जिन्होंने किसी भी चुनाव में आरक्षित सीट से नहीं लड़ने का दावा कर डाला है. मांझी ने कहा कि वंचितों को आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए, इसलिए उन्होंने आरक्षण का लाभ लेने से मना कर दिया है. मांझी के इस कदम पर हर दल के नेता को जैसे सांप सूंघ गया है. मांझी के सहयोगी भाजपा और जदयू, राजद, कांग्रेस, समेत वामपंथी दल चुप्पी साधे हुए हैं. कोई यह नहीं कह रहा है कि मांझी ने अच्छा काम किया या गलत काम किया.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत भाजपा के तमाम नेता जहां किसी भी हाल में आरक्षण खत्म नहीं करने की रट लगा रहे हैं, वहीं उनके सहयोगी दल के नेता मांझी ने आरक्षण का लाभ न लेने का ऐलान कर भाजपा का सिर चकरा दिया है. पिछले बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान आरएसएस प्रमुख द्वारा आरक्षण की समीक्षा करने की वकालत करने के बाद से लेकर अब तक भाजपा आरक्षण के मकड़जाल में फंसी हुई है. ऐसे में मांझी का आरक्षण का पफायदा नहीं उठाने की बात कह कर भाजपा के जख्मों पर मलहम लगा दिया है. वहीं अब नीतीश, लालू, रामविलास, मायावती, मुलायम, ममता, देवगौड़ा, समेत समूचे देश में दलित-पिछड़ों और आरक्षण के नाम राजनीति करने वालों को मांझी ने जोरदार झटका भी दिया है, या कहिए समाज के सामने अनोखी मिसाल पेश कर काफी हिम्मत का भी काम किया है.
मांझी ने साफ कहा कि अगले लोक सभा, विधान सभा या किसी भी चुनाव में वह और उनके परिवार का कोई सदस्य सामान्य सीट से ही लड़ेंगे. इसके साथ ही अपने नए सियासी सखा भाजपा को राहत देते हुए वह कहते हैं कि आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने ऐसा क्या कह दिया था कि आरक्षण को लेकर हंगामा मचा हुआ है. उन्होंने तो समाज में सभी लोगों को बराबरी का हक देने की बात कही थी. मांझी ने कहा कि किसी खास जाति में जन्म लेने की वजह से किसी व्यक्ति को मौका न मिले, ऐसा नहीं होना चाहिए. बाबा साहेब अंबेडकर ने आर्थिक स्वतंत्राता और सामाजिक भेदभाव से आजादी पर जोर दिया था. उन्होंने स्पष्ट कहा था कि जब तक सामाजिक भेदभाव रहेगा तब तक आरक्षण का मुद्दा बना रहेगा.
मांझी ने बिहार के विरोधी दलों के नेताओं का मजाक उड़ाते हुए कहते हैं कि लोग उन पर आरोप लगा रहे हैं कि वह गोलवरकर की गोद में बैठ कर आरक्षण खत्म कराना चाहता हूं. ऐसे लोगों को पता होना चाहिए कि मांझी महादलित का बेटा है और उसे सबसे ज्यादा आरक्षण की जरूरत है. इसके वाद भी उन्होंने आरक्षण का लाभ लेने से मना कर दिया है ताकि आरक्षण के लाभ से छूटे लोगों को आरक्षण का लाभ मिल सके.
मांझी के आरक्षण का फायदा छोड़ने के ऐलान के बाद राज्य में सियासी बवंडर उठ खड़ा हुआ है लेकिन दलित, पिछड़े, आरक्षण आदि के नाम पर राजनीति करने वाले तमाम नेता पिफलहाल चुप्पी साधे हुए हैं. मांझी ने तो ऐसे नेताओं को पसोपेश में डाल दिया है और वह फिलहाल मांझी के मसले पर चुप्पी साध कर उनके ऐलान को तव्वजो नहीं दे रहे हैं, ताकि उन्हें खास पब्लिसिटी नहीं मिल सके. गौरतलब है कि बिहार उत्तर प्रदेश समेत देश के ज्यादातर राज्यों में दलित-पिछडों के बूते ही राजनीति चल रही है और यह सत्ता तक पहुंचने का आसान जरिया बना हुआ है.
बिहार की कुल आबादी 10 करोड़ 50 लाख है और 6 करोड़ 21 लाख वोटर हैं. इनमें 27 फीसदी अति पिछड़ी जातियां, 22.5 फीसदी पिछड़ी जातियां, 17 फीसदी महादलित, 16.5 फीसदी मुसलमान, 13 फीसदी अगड़ी जातियां और 4 फीसदी अन्य जातियां हैं. साल 2011 की जनगणना के मुताबिक सूबे में एक करोड़ 40 लाख महादलित हैं, जो बिहार की कुल आबादी का 15 फीसदी है. ऐसे में आरक्षण और दलित-पिछड़ी राजनीति से अलग रास्ता चुनना किसी भी राजनीतिक दल के लिए मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है. हर चुनाव के पहले सभी राजनीतिक दल विकास-विकास का रट लगाते हैं और जैसे जैसे चुनाव की तारीख नजदीक आती है, सब के सब दलित-महादलित का राग आलापने लगते हैं. दलित-पिछडे़ और आरक्षण के खिलाफ बात करने का खामियाजा भाजपा पिछले विधान सभा चुनाव में बुरी तरह से भुगत चुकी है, ऐसे में नहीं लगता है कि कोई आरक्षण के छत्ते में कोई हाथ लगाना चाहेगा? मांझी फिलहाल आरक्षण का लाभ छोड़ने वाले इकलौते नेता हैं और दिलचस्प बात यह है कि उनके इस कदम का न तो कोई दलित-पिछड़ा नेता तारीफ कर रहा है और न ही भाजपा ही उनके पक्ष में खुल कर खड़ी नजर आ रही है.
जीतनराम मांझी: एक नजर
जब नीतीश पिछले साल फरवरी में मांझी को जबरन मुख्यमंत्री पद से हटा कर खुद मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे थे. इससे नाराज जीतनराम मांझी ने जदयू से बगावत कर 10 विधायकों के साथ मिल कर नई पार्टी बना ली थी. जिसका नाम ‘हम’ याने हिन्दुस्तान आवाम मोर्चा रखा गया. वह महादलितों के कोई बड़े नेता कभी नहीं रहे, पर मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने खुद को बिहार की सियासत के महादलित चेहरे के तौर पर जमा लिया है.
बिहार के 33वें मुख्यमंत्री रहे जीतनराम मांझी का जन्म 6 अक्टूबर 1944 को गया जिला के महकार गांव में हुआ था. महादलित मुसहर जाति के मांझी ने 80 के दशक में खेतिहर मजदूरों और महादलितों के सवाल पर आंदोलन कर राजनीति की शुरूआत की. 1980 में पहली बार विधायक बने मांझी अब तक 6 दफे विधायक रह चुके हैं. साल 2008 में वह नीतीश सरकार में कैबिनेट मंत्री बनाए गए और साल 2010 के बिहार विधान सभा चुनाव में वह जहानाबाद सीट से जीतकर नीतीश सरकार में अनुसूचित जाति एवं जनजाति कल्याण मंत्री बने थे. पिछले आम चुनाव में उन्होंने गया से संसदीय चुनाव लड़ा था, पर हार गए. 2 बेटों ओैर 3 बेटियों के पिता मांझी ने 1966 में बीए पास करने के बाद क्लर्क की नौकरी की और 1966 में क्लर्की छोड़ कर सियासत के मैदान में कूद पड़े थे.