देशभक्ति और अंधभक्ति में फर्क होता है. हम सुपरपावर के असली माने अपनी छाती फुलाने, दूसरे देशों से लड़ने व अपनी कमजोरियों पर आंख बंद करने को मानेंगे तो कभी भी सुपरपावर नहीं बन सकेंगे. जब तक अपनी कमजोरियों को उजागर करने व उस पर मंथन करने की कोशिश को देशद्रोह, धर्मद्रोह का जामा पहनाया जाता रहेगा तब तक हम कमजोर ही रहेंगे. हम में कूवत है एक विकसित देश बनने की, बशर्ते हम देशभक्ति व अंधभक्ति में फर्क समझें और कट्टरता से नजात पाएं. हमारा देश 1 अरब से भी ज्यादा आबादी और कृषियोग्य उपजाऊ भूमि से संपन्न है जो किसी भी देश की आर्थिक रीढ़ को मजबूत करने के लिए काफी है. हमारे यहां मेहनत, रोजगार, वैचारिक व तकनीकी स्तर पर तेज दिमाग के लोगों व साधनों की कमी नहीं है. ये सब अगर सही दिशा में काम करें तो हमारा देश यकीनन सुपरपावर बन सकता है.

खोखले और जंग लगे हथियारों के बलबूते विश्व विजेता बनने का दावा कर के हम बातबात पर पाकिस्तान पर गुर्राकर खुद को भले ही सुपरपावर मानने की गलतफहमी में खोए रहते हों, जबकि सचाई यह है कि भारत विकासशील देशों की कतार में काफी पीछे है. देश आज भी हथियारों का खुद निर्माण करने की क्षमता विकसित नहीं कर पाया है. विदेशों में काम कर रहे देश के मजदूरों से मिली विदेशी मुद्रा से विदेशी व औसत दरजे के हथियार खरीद कर देश की सैन्य, शस्त्र शक्ति का प्रदर्शन न कर और चीन, पाक, नेपाल व अन्य पड़ोसी देशों पर गुर्राने के बजाय मिल कर चलने की मानसिकता पैदा करनी होगी. सिर्फ धार्मिक कट्टरता और विश्वगुरुपन के वहम के चलते अपने से छोटों पर दावे करना बुद्धिमानी नहीं है. धर्म व पार्टी का झंडा उठाए एक छुटभैया नेता ने हाल ही में अपनी मंडली से पाकिस्तानी कलाकारों के भारत आने से रोकने के लिए अजीबोगरीब व बचकाना तर्क देते हुए कहा था, ‘‘पाकिस्तान से आने वाले अभिनेता व गायक भारत में आ कर काम करते हैं और यहां से कमाई कर उस पैसे से कुछ पैसा बतौर टैक्स पाकिस्तान सरकार को देते हैं. टैक्स के इन्हीं पैसों से वहां हथियार खरीदे जाते हैं और फिर उन्हीं हथियारों से हमारे देश में आतंकवादी घटनाओं को अंजाम दिया जाता है.’’ उस ने आगे कहा, ‘‘भारत जब चाहे पाकिस्तान को एक मिसाइल के जरिए दुनिया के नक्शे से हटा सकता है.’’

सूडो पैट्रियाटिज्म यानी छद्म देशभक्ति से पीडि़त ऐसे ही कई छुटभैए नेता टाइप तत्त्व देशभर में भरे पड़े हैं जिन्हें यह नहीं पता कि भारत व पाकिस्तान का कारोबारी रिश्ता इस तरह का है कि आयातनिर्यात के मसले में भारत ही ज्यादा कमाई करता है पाकिस्तान से. और जो मामूली कमाई पाकिस्तानी कलाकार भारत से ले कर जाते हैं, उस से जिस तरह के मामूली हथियार खरीदे जा सकते हैं, उन से कई गुना बेहतर हथियार पाकिस्तानी आतंकियों के पास हमेशा से ही रहे हैं. यही वजह है कि 26/11 से ले कर पठानकोट की वारदातों समेत सीमा पर मामूली झड़पों में 2-4 आतंकी सैकड़ों सैनिकों को नाकों चने चबवा देते हैं. इसलिए कि उन के पास हम से ज्यादा उन्नत हथियार और जज्बा होता है. हमारे पास घोटालों की स्याही में सने सड़ेगले रूसी हथियार हैं जबकि वहां काले बाजार से खरीदे हाईटैक वैपन हैं. इस पर भी हम खुद को सुपरपावर देश समझने की गलती करते हैं.

सुपरपावर का मुगालता

प्रधानमंत्री मोदी की विदेशी यात्राओं के दौरान जबरन डाली गई गलबहियों के आधार पर सैन्य, शस्त्र व मिलिट्री मोरचे पर भी हम ने खुद को सुपरपावर होने का मुगालता पाल लिया है. वायुसेना के बेड़े में लड़ाकू विमानों-सुखोई, मिराज, मिग-29, मिग-27, मिग-21, जगुआर व सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल मसलन, ब्रह्मोस, अग्नि, पृथ्वी, आकाश और नाग का हवाला दे कर अपने को शक्तिशाली समझने लगे हैं. इन शस्त्रों की सुपरपावर देशों के हथियारों से तुलना करने की भी आवश्यकता है. नेवी के क्षेत्र में भारत आईएनएस विक्रमादित्य को इंडियन नेवी का प्राइड मानता है. 40 हजार टन की क्षमता वाले इस एअरक्राफ्ट कैरियर में 30 एअरक्राफ्ट्स आसानी से आ जाते हैं. पर इसे बहुत उम्दा क्षमता का जलपोत न मानें क्योंकि आप अमेरिका के यूएसएस अब्राहम लिंकन सुपरकैरियर के बारे में कुछ भी नहीं जानते. इस अमेरिकी सुपर कैरियर की क्षमता 1 लाख 10 हजार टन है और इस में आसानी से 100 एअरक्राफ्ट्स समा जाते हैं. हमारा आईएनएस इस से बहुत हलका है. अमेरिका के पास इस तरह के 1-2 नहीं, 11 सुपर कैरियर्स हैं.

हम खरीदे गए मिराज 2000 को बहुत जबरदस्त बमवर्षक मानते हैं तो जरा फिर से सोचिए, क्योंकि अमेरिका के खुद के डिजाइन किए व बनाए गए बी-2 स्पिरिट स्टील्थ बमवर्षक की क्षमता इस से कई गुना ज्यादा है. यह इतना महंगा है कि अमेरिका ने भी 20 यूनिट बनाने के बाद इस का प्र्रोडक्शन बंद कर दिया. रही बात सुखोई की, तो 3 सुखोई मिल कर जो काम करते हैं वही काम अमेरिका का एफ-22 रैप्टर अकेले ही निबटा डालता है. यह तो रडार पर आने से पहले ही किसी लड़ाकू विमान या मिसाइल को मार गिरा सकता है. 3 सुखोई की कीमत के बराबर इस रैप्टर की अमेरिका के पास करीब 200 यूनिट हैं. अमेरिकी शस्त्र क्षमता के मुकाबले भारत तो कहीं है ही नहीं. रूस, चीन, जापान, जरमनी व इंगलैंड भी भारत को पीछे छोड़ देते हैं. हथियारों के मामले में भारत से कई देश तकनीकी तौर पर कहीं आगे हैं. जब विश्व रूस को सुपरपावर नहीं मानता तो भारत, जो रूस के जंग लगे हथियारों को खरीद कर उन पर पैसा बरबाद करने में माहिर है, सुपरपावर होने का क्यों मुगालता पालता है?

तकनीकी तौर पर पिछड़े

देशप्रेम की उन्मादी भावना से इतर सोचें, हम 5वीं जैनरेशन के फाइटर्स प्लेन बनाने की योजना ही बना रहे हैं जबकि अमेरिका छठी जैनरेशन के प्लेन एसैंबल कर रहा है. हम 3 एअरक्राफ्ट कैरियर बना कर खुश हो जाते हैं, अमेरिका में 11 सुपर कैरियर्स के फ्लीट बन चुके हैं. यूएसएफ यानी यूनाइटेड स्टेट्स एअर फोर्स के बाद सब से ताकतवर एअरफोर्स यूएस नेवी ही है. फिर रूस, ब्रिटिश, चीन, जापान, जरमनी आते हैं. यहां भारत का तो नामोनिशान नहीं दिखता. सुपरपावर देश भारत को सैन्य शक्ति की श्रेणी में काफी हलका  मानते हैं. भारत को तो शांति प्रयासों के लिए भी कहीं नहीं बुलाया जाता. हां, अगर कहीं जवानों को मरवाना हो तो भारतीय सैनिकों को बुला लिया जाता है.

उच्चवर्ग और अमीर तबका

टीवी पर देश की सुरक्षा को ले कर विशेषज्ञ बन कर आलोचना करने वाले हों या देश की सुरक्षा पर बड़ीबड़ी बातें करने वाले नेता, उद्योगपति व उच्चवर्ग के नुमाइंदे हों, इन के परिवारों से सेना में सब के कम भागीदारी देखी जाती है. सेना में, फ्रंट पर

लड़ने वाली थलसेना में खासतौर पर ज्यादातर सिपाही व सैनिक भारत के दूरदराज गांव, पिछड़े इलाकों व दबेकुचले गरीब वर्ग से आते हैं. जिन के पास न तो खेती के लिए जमीन है और न ही रोजगार का साधन. सीमा में आतंकी झड़पों में शहीद होने वाले जवानों के परिवार जब सामने आते हैं तो पता चलता है कि वे इटावा के किसी बीहड़ गांव या मध्य प्रदेश, बिहार के सुदूर इलाके का सैनिक था.दिल्ली, मुंबई, बैंगलुरु या चेन्नई जैसे महानगरों से ऊंची जातियों के कितने सैनिक जवानों के रूप में भरती होते हैं, कहना मुश्किल है. सेना की रेजीमैंट्स के नाम (जाट, अहीर, महार, डोगरा, सिख, मराठा, राजपूताना राइफल्स, गढ़वाल, असम, गोरखा औ र कुमायूं) देख कर सहज अंदाजा हो जाता है कि भारतीय सेना के सैनिक किस समाज या जातिधर्म से ज्यादा आते हैं. यहां पर सैनिकों की देशभक्ति से जुड़ी भावना या जज्बे पर सवाल नहीं उठाया जा रहा है बल्कि यह समझाने की कोशिश है कि बिना खेती और रोजगार के मारे लोगों की तरह सेना में उच्च जातियों, देश के कौर्पोरेट, उद्योगपति घरानों व राजनेताओं के घरों से सैनिक भरती में आगे क्यों नहीं आते.

समाज से उपेक्षित तबका जब मुख्यधारा में सम्मान व रोजगार नहीं हासिल कर पाता तब ही शायद वह सेना में आने की सोचता है. क्योंकि वहां वेतन अच्छा है, नौकरी पक्की है. सुपरपावर की बात हम तब करें जब हमारी सेना में भी देश, समाज, जाति, धर्म, वर्ग का हर तबका सेना में अपनी खुशी से शामिल हो. वातानुकूलित कमरों, मंचों, रैलियों व  अदालतों की बैंचों पर बैठ कर देशभक्ति की बात करते सैनिकों की तरह सीमा पर लड़ने में बहुत फर्क है.

पाकिस्तान पर गुर्राना क्यों

अमेरिकी शक्ति से तुलना करने के बजाय हम अपने से एकचौथाई छोटे पाकिस्तान पर 2 युद्ध जीतने के बाद खासा गुर्राते हैं. लेकिन छोटा होते हुए भी पाकिस्तान इतना भी कमजोर नहीं है. 1971 की हार के बाद पाकिस्तान ने भी सैन्य ताकत बढ़ाई है. दोनों मुल्क परमाणु हथियारों से न सिर्फ लैस हैं बल्कि दोनों के सैन्य बल में बहुत ज्यादा फर्क नहीं है. थलसेना की बात करें तो भारत के पास करीब 13 लाख सैनिक हैं तो पाक के पास भी लगभग 10 लाख थल सैनिक हैं. भारत का क्षेत्रफल पाकिस्तान से चारगुना ज्यादा है. भारत के पास 50-90 परमाणु हथियार हैं जबकि पाकिस्तान के पास भी लगभग इतने ही हैं और वह शायद ईरान व उत्तरी कोरिया को परमाणु तकनीक चोरीछिपे बेच भी रहा है.

अमेरिकी संस्थान कौर्नेगी एंडोन्मैंट फौर इंटरनैशनल पीस और स्टिम्सन सैंटर की हालिया रिपोर्ट के अनुसार, अगले 10 वर्षों में पाकिस्तान के पास करीब 350 परमाणु हथियार होंगे. रिपोर्ट कहती है कि भारत की तुलना में पाकिस्तान इस क्षेत्र में तेजी दिखा रहा है. फिलहाल, अमेरिका व रूस ऐसे देश हैं जो सब से ज्यादा परमाणु हथियार रखते हैं. ऐसे में पाकिस्तान पर गुर्राना निरर्थक ही लगता है. आंकड़े बताते हैं कि पनडुब्बियों (16-10), युद्धपोत, मिसाइल, लड़ाकू विमान के मामले में दोनों देशों के बीच ज्यादा फर्क नहीं है. पाकिस्तान के पास गौरी, शाहीन, गजनवी, हत्फ व बाबर जैसी मिसाइलें भी हैं.

देशभक्ति बनाम अंधभक्ति

खुद को सुपरपावर बताने की धुन सिर्फ चुनावी सभाओं, संसद में भाषणबाजी और अदालती आदेशों तक सीमित नहीं है बल्कि सोशल मीडिया, वाट्सऐप, फेसबुक में भी आम लोग बिना तथ्य जाने तरहतरह के संदेशों के जरिए भारत की ताकत का दिखावा करते हैं. वाट्सऐप पर कहीं यह संदेश आता है कि अगर भारत जोर से चीख भी दे तो पाकिस्तान बहरा हो जाएगा. कोई कहता है कि अगर भारत ने कुछ लोटा पानी पाकिस्तान की तरफ बहाया तो वह बह जाएगा. ऐसे कोरी लफ्फाजी से भरे संदेश इस तरह प्रचारित किए जाते हैं मानो हम ने पाकिस्तान से 2 युद्ध जीत कर बहुत बड़ी उपलब्धि हासिल कर ली है. सच तो यह है कि पाकिस्तान से हुए हमारे सभी युद्ध हम पर ही भारी पड़े हैं. न सिर्फ हम ने बड़ी संख्या में सैनिक खोए, बल्कि आर्थिक क्षति भी झेली. ऐसे में इस जीत के क्या माने रह जाते हैं? आखिर, हम पाकिस्तान से जीत कर हासिल और साबित क्या करना चाहते हैं? गौर करने वाली बात है कि भारत की ओर से नफरतभरे भावों में ज्यादातर हिंदू बनाम मुसलिम वैमनस्य ही है. सच तो यह है कि हम मुसलमानों से नाहक ही बैर पालते हैं. सिर्फ पाकिस्तान को हरा या दबा देने से तो दुनिया से मुसलमान खत्म हो नहीं जाएंगे. वे तो पूरी दुनिया में फैले हैं. आजादी से पहले भारत में करीब 40 करोड़ मुसलिम हमारे साथ इस देश का निर्माण करते आए हैं और साथ रहने में ही देश का बल मजबूत होता है. वरना न तो हिटलर यहूदियों को खत्म कर सका और न ही दुनिया में कोई किसी धर्म या जाति को खत्म कर सकता है. हम तय करें, आखिर हमारी प्राथमिकता पाकिस्तान से लड़ना है या देश का अंदरूनी विकास करना.

चुनौती चीन की

पड़ोसी मुल्क चीन से न सिर्फ हम युद्ध हार चुके हैं बल्कि विकास, सेना, शस्त्र, तकनीकी मोरचे पर भी उस से कहीं पीछे हैं. सुपरपावर बनने की राह पर चीन है, हम नहीं. अगर सैन्य शक्ति का तुलनात्मक विवेचन करें तो आंकड़े बताते हैं, चीन के पास 22 लाख 85 हजार की सक्रिय सेना है जबकि 23 लाख सैनिक रिजर्व में हैं. जबकि हमारे पास 13 लाख 25 हजार के करीब हैं. चीन के पास 9,218 युद्धक विमान व 500 एअरबेस हैं जबकि भारतीय सेना में 3,382 युद्धक विमान व 334 एअरबेस हैं. परमाणु शक्ति में तो भारत चीन के सामने बेहद कमजोर है. एक रिपोर्ट के अनुसार, चीन के पास करीब 500 परमाणु हथियार हैं. चौंकाने वाली बात तो यह है कि भारतीय परमाणु शस्त्रों की सर्वाधिक क्षमता व ताकत (0.5 मेगाटन) चीन से कई गुना कमतर है. भारत परमाणु हथियारों को बमवर्षक विमानों, बैलिस्टिक मिसाइलों या अग्नि-2, जिस की सर्वाधिक क्षमता 2500 किलोमीटर है, तक पहुंचा सकता है जबकि चीन के पास 12 हजार किलोमीटर तक मार करने वाली आईसीबीएम मिसाइलें हैं. कोई आश्चर्य नहीं कि अमेरिका, चीन से कई मोरचों पर घबराता होगा.

इतना ही नहीं, चीन ने मिसाइल प्रतिरोधक क्षमता व उपग्रहरोधी हथियारों का परीक्षण कर लिया है. जब पड़ोसी से सुरक्षा की बात आती है तो चीन के मुकाबले हम काफी पीछे हैं. चीन ने अपनी सैन्यशक्ति को मजबूती के साथ आधुनिक व तकनीकी पुट भी दिया है. जबकि भारतीय सेना के हथियार कई मौकों पर धोखा दे जाते हैं. बोफोर्स तोप, मिग विमान व बीएसएफ की इटली बंदूक निर्माता कंपनी बरेटा प्रकरण इस बात की तसदीक करते हैं. भारत व चीन की 3,488 किलोमीटर लंबी सीमा जुड़ी है. चीन आधुनिक युद्ध प्रणाली साइबर युद्ध में भी हम से आगे है. सीमा पर चीन द्वारा राजमार्गों, बुनियादी जरूरतों व रेलमार्गों का तेजी से निर्माण किया जा रहा है. जबकि भारत की कई प्रस्तावित योजनाएं अधर में लटकी हैं. यही वजह है कि सीमा पर तनाव बढ़ते ही चीन अपनी मजबूती दर्ज करा देता है और भारत को बयानबाजी से आगे कोई ठोस हल निकालने का मौका नहीं मिलता.

ऐसा सिर्फ इसलिए क्योंकि टैंक, पनडुब्बी, मिसाइल, परमाणु हथियार, आर्थिक ताकत और उन्नत हथियारों के मामले में चीन हम से कहीं आगे है. चीन की एक घुड़क का नमूना तब देखने को मिला था जब मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में देश की पहली इंटरकौंटिनैंटल बैलिस्टिक मिसाइल अग्नि-5 का ओडिशा के बालासोर के पास व्हीलर द्वीप में सफल परीक्षण हुआ. तब चीन के अखबार ‘ग्लोबल टाइम्स’ के हवाले से खबर आई कि अग्नि-5 के प्रक्षेपण से भारत को हथियारों की होड़ के तूल देने के सिवा कुछ नहीं मिलेगा. अखबार की मानें, तो कहा गया कि भारत 5 हजार किलोमीटर तक की मार वाली मिसाइल के बलबूते आईसीबीएम क्लब में शामिल होने की नाकाम कोशिश कर रहा है जबकि आईसीबीएम की सामान्य रेंज 8 हजार किलोमीटर से अधिक होती है.

सैन्य प्रशिक्षण

देश में जब कहीं आंतरिक कलह, हिंसा या झड़प होती है तो आम आदमी इतना निरीह हो जाता है कि उस की सारी निर्भरता पुलिस या सेना पर रहती है. आत्मरक्षा की ट्रेनिंग किसी के पास नहीं है, लिहाजा दंगों में सैकड़ों हत्याएं होती हैं. अगर आम नागरिकों को कमजोर अपराधियों तक से आत्मरक्षा की ट्रेनिंग मिले तो वे भी हिंसक व कट्टर तत्त्वों का सामना कर सकते हैं. जब हम अपने देश में ही कमजोर अपराधियों तक से आत्मरक्षा नहीं कर सकते तो किसी दूसरे देश से युद्ध के समय क्या मुकाबला करेंगे. जब भी पुलिस अपराधियों के फोटो जारी करती है तो क्या आप ने गौर किया है कि उन के चेहरे किस तरह पिचके होते हैं. अमेरिका समेत कई यूरोपीय देशों में लगभग हर नागरिक के लिए सैन्य प्रशिक्षण, मिलिट्री सेवा अनिवार्य मानी जाती रही है. इसराईल में जहां 18 साल या 12वीं ग्रेड के बाद सब को सैन्य प्रशिक्षण दिया जाना जरूरी है वहीं दक्षिण कोरिया में 24-27 महीने की मिलिट्री ट्रेनिंग अनिवार्य है. इसी तरह चिली में 18-45 साल के पुरुषों की 12 महीने की सेना व 24 महीने की नौसेना तथा वायुसेना में सेवा जरूरी है. चीन, डेनमार्क, ईरान, पोलैंड, जरमनी, ब्राजील, आस्ट्रिया, नार्वे, स्वीडन, स्विट्जरलैंड, रूस, मैक्सिको और सिंगापुर जैसे देश अपने नागरिकों को मजबूत बनाने के लिए अनिवार्य सैन्य सेवा देते हैं.

इतना ही नहीं, ब्रिटेन के प्रिंस समेत शाही परिवार के तमाम अहम सदस्य आर्मी कैंप में रह कर न सिर्फ सामान्य सैनिकों की तरह सैन्य सेवा करते हैं बल्कि प्लेन उड़ानें आदि की ट्रेनिंग भी लेते हैं. 1962 में हुए भारत-चीन युद्ध के बाद भारत में सैन्य शिक्षा अनिवार्य करने की मांग उठी थी लेकिन कुछ नहीं हुआ. अगर सभी सैन्य शिक्षा ले लें तो न सिर्फ हमारी सेना पर निर्भरता कम होगी बल्कि हम आत्मनिर्भर भी बन सकेंगे. क्योंकि कई बार तो हालात देश के अंदर ही युद्ध जैसे भीषण हो जाते हैं. हाल में जाट आरक्षण हिंसा हो या 26/11 जैसे मुंबई में हुए आतंकी हमले, इस बात के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं. जम्मूकश्मीर के पैंपोर में गिनती के 3-4 नौसिखिए आतंकी सीमित मात्रा में हथियार ले कर सेना के कैप्टन, सैनिकों को शहीद कर देते हैं जबकि हमारे पास सारे आधुनिक हथियारों की आपूर्ति है. बावजूद इस के, 2-3 आतंकियों से निबटने में कई दिन लग जाते हैं. जबकि फ्रांस व अमेरिका में 24 घंटे के अंदर बिना जानमाल के नुकसान के वहां की पुलिस व सेना आतंकियों का सफाया कर देती है.

सेना नहीं, पुलिस हो मजबूत

देश के आंतरिक हालात ठीक नहीं हैं. दंगे, धार्मिक उन्माद, विरोध प्रदर्शन, बिगड़ती कानून व्यवस्था, भ्रष्टाचार से लड़ाई आम हैं. इन से निबटने के लिए सेना की नहीं, बल्कि मजबूत व भ्रष्टाचाररहित पुलिस की दरकार है. सीमा से ज्यादा सुरक्षा देश को अंदरूनी तौर पर है जहां बिगड़े सामाजिक ढांचे को दुरुस्त करने का काम मजबूत व ईमानदार पुलिस कर सकती है. जाट आरक्षण हिंसा में जो काम पुलिस को करना चाहिए था वह सेना को बुला कर करवाना पड़ा.

बढ़ता सैन्य बजट

हम विश्वगुरु व सुपरपावर होने की हांकते रहते हैं लेकिन आजादी के इतने सालों बाद अंतर्राष्ट्रीय स्तर के शस्त्र निर्माण की क्षमता वाले कारखाने स्थापित नहीं कर पाए. चुनाव जीतने से पहले नरेंद्र मोदी भारतीय सेना के आधुनिकीकरण की बात कह चुके हैं और सरकार बनते ही रक्षा बजट 12 फीसदी बढ़ाने का फैसला कर लिया. पर, विश्लेषकों के मुताबिक, दुनिया में हथियारों का सब से बड़ा आयातक बनने के लिए भारत शस्त्र निर्माण उद्योग में अगले दशक तक 250 अरब डौलर का निवेश करने वाला है जबकि चीन हर वर्ष 120 अरब डौलर खर्च करता है. आयात कोई विकल्प या समाधान नहीं है. अंधाधुंध हथियार, वे भी औसत दरजे के खरीदना समझदारी नहीं है. स्टौकहोम इंटरनैशनल पीस रिसर्च इंस्टिट्यूट के मुताबिक, भारत भले ही दुनिया का सब से बड़ा आयातक (भारत ने 2011-15 के बीच विश्व के कुल आयात का 14 प्रतिशत हथियार अकेले आयात किया है, जो दूसरे नंबर के बड़े आयातक सऊदी अरब से भी दोगुना है) मुल्क बन चुका हो लेकिन इस कारण भारत का छोटामोटा घरेलू रक्षा उद्योग कम उत्पादन के संकट से गुजर रहा है. 2009-13 के बीच भारत ने रूस से 75 फीसदी हथियार लिए जबकि आईएचएच के आंकड़े बताते हैं कि भारत ने अमेरिकी हथियारों की खरीद में 1.9 अरब डौलर खर्च किए.

देश के मजदूरों की गाढ़ी कमाई से जमा अरबों रुपयों को हथियारों की खरीद में बहाने के बावजूद हमारी सैन्य व शस्त्र शक्ति कमजोर है तो यह सारी पूंजी बरबाद ही मानी जाएगी. अगर यही पैसा देश के सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक व बुनियादी आवश्यकताओं पर लगाया गया होता तो हम न सिर्फ तरक्की वाले मुल्क की श्रेणी में होते बल्कि हजारोंलाखों टनों के बेकार हथियारों के कबाड़ से भी बच जाते. इतना ही नहीं हम ऐसे कई देशों से हथियार खरीद रहे हैं जो हम से कई गुना छोटे देश हैं. इस सचाई को स्वीकारना होगा कि हम अंदरूनी तौर पर इतने कमजोर देश में रहते हैं कि सुपरपावर बन ही नहीं सकते. हमारे पास ज्यादातर हथियार ऐसे हैं जिन के स्पेयर पार्ट्स विदेशों में ही मिलते हैं. विदित हो कि युद्ध 2-3 सप्ताह नहीं, कई बार महीनों या सालों तक चलता है. और युद्ध के बीच में बाहर से हथियारों की आपूर्ति भी नहीं होती. ऐसे में इन हथियारों के दम पर हम कितने दिनों तक टिक पाएंगे? करीब 40 दिनों तक लड़ने के हथियार और 25 दिनों के करीब चलने वाले सैन्य शस्त्र भंडार के दम पर अगर हम सुपरपावर बनने का सपना देखते हैं तो इसे बुद्धिमानी कतई नहीं कहा जा सकता. अगर सुपरपावर बनना है तो पहले देश में अंदरूनी कलह, सांस्कृतिक आतंकवाद, जातिधर्म के खिलाफ मजबूत बनें. बाद में सीमा व युद्ध की मजबूती पर काम करें. सिर्फ अमेरिका व रूस से खरीदे हथियारों पर निर्भर भारत जैसे किसी भी देश में सुपरपावर बनने की क्षमता न तो पैदा हुई है और न ही होगी.

सुपरपावर के असल माने

1 अरब से भी ज्यादा आबादी वाले देश की औसत प्रतिव्यक्ति घरेलू आय कई अफ्रीकी देशों से कम है. देश के आंतरिक हिस्से नक्सली व धार्मिक झड़पों में जल रहे हैं. धर्म को ले कर कट्टरता में इजाफा हो रहा है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छिन रही है, घोटालों व भ्रष्टाचार का रिकौर्ड रखना मुश्किल है. सामाजिक वर्गभेद इतना बढ़ गया है कि अमीर व गरीब का छोर नहीं मिलता. तकनीकी मोरचे पर हम आयात पर निर्भर हैं. कृषि योग्य जमीन का दुरुपयोग हो रहा है. जलसंकट की तरफ बढ़ते भारत की हवा सांस लेने लायक नहीं रह गई है. जीवनस्तर खराब है, आविष्कार न के बराबर हैं. शिक्षा में गड़बडि़यां हैं. आधुनिक चिकित्सा व दवाओं में हम पिछड़े हैं. वैकल्पिक ऊर्जा, रोबोटिक्स, बायोटैक्नोलौजी, नैटवर्क कम्युनिकेशन आदि आयातित हैं. इन सब के बावजूद हम हवनकुंड में घी की आहुति दे कर, गायों की सुरक्षा व वर्षा के लिए महायज्ञों का आयोजन कर सुपरपावर होने का मुगालता पाल रहे हैं. धर्म व जाति आधारित चुनावों के टीले पर खड़े हो कर लोतांत्रिक देश होने का दावा करने से कोई सुपरपावर नहीं बनता. देश का आम आदमी लापरवाह व आलसी है.  संयोग देखिए कि महायज्ञों का पंडाल और मेक इन इंडिया का फुजूलखर्ची भरा तमाशा दोनों ही भीषण आग में स्वाहा हो गए. हम आग पर भी नियंत्रण नहीं कर पाए.

सरकारें उदासीन हो कर आरोपप्रत्यारोप में सारे संसद सत्र गंवा देती हैं. स्वच्छता अभियान जैसी योजनाओं पर कमेटी बना कर खुश होने वाला देश अपने पड़ोसी देशों का न तो विश्वास जीत पाया है और न ही उन से मधुर संबंध कायम कर पाया है. छोटीमोटी आतंकी घुसपैठों में सारा तंत्र हिल जाता है. पाकिस्तान से हुई दुश्मनी पर आग में घी डालने से अगर सुपरपावर बनना होता तो कब के बन गए होते. अपनी ही चुनौतियों से जूझता भारत महज जनसंख्या की बढ़त से सुपरपावर नहीं बन सकता. जब तक हम सैन्य, शस्त्र, साइबर युद्ध शिक्षा में पश्चिमी देशों के बराबर आने की कोशिश नहीं करेंगे, हथियार प्रणाली, गुप्तचरी, निगरानी, सीमा नियंत्रण, सर्वेक्षण तंत्र, आधुनिक हथियारों का खुद निर्माण नहीं करेंगे, सुपरपावर तो दूर, घरेलू हिंसाओं से निबटने में भी लाचार दिखते रहेंगे. और इन सब से जरूरी देश में उत्कृष्ट शिक्षा, तकनीकी गुणवत्ता, मेहनतकश पीढ़ी व सामाजिक खाई को पाट कर धार्मिक संकीर्णता व जातिगत भेदभाव से ऊपर उठना ही सुपरपावर के असल माने में देश विकास की नई इबारत लिख सकेगा.  

खराब हथियार खस्ता हालत

भारतीय सेना के ज्यादातर हथियार या तो इस्तेमाल नहीं होते या फिर डिफैक्टिव हैं. एक रिपोर्ट की मानें तो 6.97 प्रतिशत हथियार ऐसे हैं जो डिफैक्टिव हैं. उन की कीमत 3,578 करोड़ रुपए है. वहीं 7.48 प्रतिशत हथियारों को मरम्मत की जरूरत है. कैग की रिपोर्ट में खुलासा हुआ था कि भारत शस्त्र के मामले में भारी कमी का सामना कर रहा है. रिपोर्ट कहती है कि भारतीय सेना के पास रिजर्व में 40 दिन तक लड़ने के काबिल हथियार हैं जबकि 20 दिन में 74 प्रतिशत भंडार खत्म हो जाएगा. अगर रिपोर्ट को आधार मानें तो ये निराशाजनक आंकड़े भारत के सुपरपावर बनने के सपने की राह में बड़ा रोड़ा हैं.

हथियार के सब से बड़े सौदागर

हथियार निर्यातक देशों की लिस्ट में अमेरिका अव्वल नंबर पर है. यह दुनिया के29 प्रतिशत हथियार अपने देश से बेचता है जबकि रूस 27 प्रतिशत, जरमनी 7 प्रतिशत, चीन 6 प्रतिशत और फ्रांस 5 प्रतिशत हथियार निर्यात करते हैं. ये 5 देश मिल कर दुनिया के 74 फीसदी हथियारों का निर्यात करते हैं.  उधर, हथियारों के सब से बड़े खरीदारों की फेहरिस्त में भारत अव्वल नंबर पर है. भारत के बाद चीन, पाकिस्तान, संयुक्त अरब अमीरात व सऊदी अरब सब से ज्यादा हथियार खरीदते हैं.

टौप 3 सुपरपावर्स

अमेरिका : अपनी सेनाओं पर 612 बिलियन डौलर खर्चने वाले अमेरिका के पास 19 से ज्यादा एअरक्राफ्ट कैरियर हैं जो पूरी दुनिया के मुकाबले (12 से) डेढ़ गुना अधिक हैं. दुनिया की सब से ज्यादा प्रशिक्षित फौज, तकनीकी हथियार व आर्थिक ढांचे की बदौलत अमेरिका दुनिया का सब से बड़ा सुपरपावर देश है.

रूस : सोवियत संघ के बिखराव के बावजूद रूस के पास 7 लाख 66 हजार सक्रिय सैनिक व 24 लाख 85 हजार रिजर्व सैनिक हैं. करीब 15,500 से ज्यादा टैंकों की दुनिया में सब से बड़ी टैंक सेना के साथ रूस दूसरा सुपरपावर देश है.

चीन : 126 हजार अरब सैन्य बजट के साथ चीन में 22 लाख 85 हजार प्रशिक्षित सैनिक व 23 लाख रिजर्व सैनिक हैं. हाल में सेना में एफ-35 जैसे फाइटर प्लेन में शामिल कर चीन आधुनिक आईबीएम व एअरक्राफ्ट के बलबूते तीसरे नंबर का सुपरपावर देश है. चीन सुरंग व सड़कों के जरिए मजबूत देशों से आगे रहने की जुगत में रहता है.

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