रोमांटिक, पोलीटिकल व रोमांचक फिल्म ‘‘दास देव’’ लंबे इंतजार के बाद सिनेमाघरों तक पहुंच पाई है. पृष्ठभूमि बदली है, मगर कहानी के केंद्र में राजनीति और प्यार ही है. चाहत,पावर और लत की कहानी के साथ ही हमारे देश की राजनीति का स्तर किस हद तक गिरा हुआ है, इसका नमूना है फिल्म ‘‘दासदेव’’. क्योंकि फिल्म ‘‘दास देव’’ में प्रेम कहानी या हारे हुए प्रेमी की मासूमियत नहीं, बल्कि यह फिल्म गंदी राजनीति के साथ अपनी राजनीतिक विरासत को बढ़ाते रहने की महत्वाकांक्षा की काली दलदल मात्र है.

शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की देवदास फिल्मकारों के लिए एक पसंदीदा विषय रहाहै. इस पर 1928 में बनी मूक फिल्म ‘देवदास’ से लेकर अब तक कई फिल्में बनचुकी हैं. इसका आधुनिक वर्जन अनुराग कश्यप की फिल्म ‘देवडी’ थी. और अब तक कहा जा रहा था कि सुधीर मिश्रा की फिल्म ‘‘दास देव’’ भी शरतचंद्र के उपन्यास ‘देवदास’ का आधुनीकरण है. मगर फिल्म की शुरूआत में ही फिल्मकार सुधीर मिश्रा ने स्वीकार किया है कि यह फिल्म शरतचंद्र के उपन्यास ‘देवदास’ के साथ साथ शेक्सपियर के हेलमेट और उनके नाना द्वारिका प्रसाद मिश्रा, जो कभी राजनीति में थे, द्वारा सुनाई गई कहानियों से प्रेरित है. ज्ञातब्य है कि मशहूर लेखक, पत्रकार, कवि द्वारिका प्रसाद मिश्रा 30 सिंतबर 1963 से 29 जुलाई 1967 तक मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे. पं. जवाहर लाल नेहरू से मतभेद के चलते द्वारिका प्रसाद मिश्रा को 13 वर्ष का राजनीतिक वनवास झेलना पड़ा था.

फिल्म की कहानी 1997 में उत्तरप्रदेश के जहानाबाद से शुरू होतीहै, जब राजनेता विश्वंभर चैहाण(अनुराग कश्यप) एक राजनीतिक सभा को संबोधित करते हुए ऐलान करते हैं कि वह किसानों को उनकी जमीन का सही मुआवजा दिलवाकर रहेंगे और अपने छोटे भाई अवधेश(सौरभ शुक्ला) को अगला मुख्यमंत्री बनाने की बात करते हैं. उस वक्त उनका छह सात वर्ष का बेटा देव उनके साथ चलने की जिद करता है, पर वह कहते हैं कि वह अपने चाचा अवधेश व पारो के पिता के साथ रहे. वह जल्द वापस आ जांएगे. भाषण खत्मकर जैसे ही हेलीकोप्टर में बैठकर विश्वंभर चैहाण उड़ते हैं, वैसे ही आसमान में उनका हेलीकोप्टर जलकर स्वाहा हो जाता है. उसके बाद कहानी पूरे 21 वर्ष बाद दिल्ली से शुरू होती है, जहां एक पब में देव(राहुल भट्ट) व पारो(रिचा चड्ढा) दोनों हैं. दोनों एक दूसरे के बचपन के साथी होने के साथ ही एक दूसरे से प्यार करते हैं. देव को ड्रग्स की लत लग चुकी है. ड्रग्स व शराब के नशे में देव कुछ लोगों से मारामारी कर लेता है, तो गुस्से में पारो पब से बाहर आ जाती है, फिर गाड़ी में एक साथ जाते हुए रास्ते में देव, पारो को मनाने की कोशिश करता है. पर कुछ दूर आगे चलने पर सूनी सड़क पर चड्ढा की कार देव की कार को रोकती है.

चड्ढा ने देव को करोड़ो रूपए कर्ज दे रखा है, जो कि उन्हें वापस चाहिए. इसलिए चड्ढा अपने साथ देव को लेकर जाती हैं. उधर उसी वक्त अवधेश को हृदयाघात होता है और वह अस्पताल पहुंच जाते हैं. इधर पारो, सहाय(दिलीप ताहिल) को फोन करके सारी बात बताती है, उस वक्त सहाय के सामने चांदनी (अदिति राव हैदरी) बैठी होती है. सहाय किसी तरह देव को छुड़ा लेते हैं. अवधेश, सहाय से कहते हैं कि वह देव को संभाले. देव की मां सुशीला को यकीन है कि अवधेश, देव के साथ गलत नही होने देंगे. धीरे धीरे पता चलता है कि चांदनी भी देव से प्यार करती है. पर वह सहाय की गुलाम सी बनी हुई है, क्यांकि सहाय बार बार उसे याद दिलाते रहते हैं कि सहाय की मौत के बाद सारी संपत्ति की मालकिन चांदनी होंगी. चांदनी बहुत ताकतवर है. देश के हर राजनेता से उसके अच्छे संबंध है.

सहाय के कहने पर चांदनी, देव को संभालती है और देव के साथ हम बिस्तर भी होती है. पारो के साथ साथ अवधेश भी चाहते हैं कि देव ड्रग्स व शराब से तौबा कर ले. अवधेश चाहते हैं कि देव उनकी राजनीतिक विरासत को संभाले. मगर यह बात उभरकर आती है कि विश्वंभर को पारो के पिता (अनिल जौर्ज) पर यकीन था और उन्होंने ही पारों के परिवार को रहने के अपनी कोठी के अंदर ही कमरे दिए थे. पर अवधेश पारो के पिता व पारो को पसंद नहीं करते. उन्हें देव व पारो का साथ भी पसंद नहीं है. पर फिलहाल वह अपनी राजनीतिक चालें चलने में मस्त है.

एकदिन गुस्से में पारो, देव से कह देती है कि वह दिल्ली छोड़कर जलाना जा रही है. पारो गांव पहुंचकर अपने पिता के साथ मिलकर किसानों के लिए काम करना शुरू करती है. उधर अपने चाचा अवधेश, सहाय, चांदनी व मां सुशीला के रचे चक्रव्यूह में फंसकर देव भी परिवार की राजनीतिक विरासत को संभालने व राज्य का अगला मुख्यमंत्री बनने के मकसद से जलाना पहुंचकर किसानों के बीच काम करना शुरू करते हैं. बहुत जल्द वह अति लोकप्रिय हो जाते है. मुख्यमंत्री भी देव की सराहना करते हैं.

फिर देव को चमकाने के लिए और पारो के परिवार को फंसाने के मकसद से चांदनी, सहाय व अवधेश मिलकर एक खेल रचते हैं, जिसमें अब तक किसानों के हिमायती माने जाने वाले पारो के पिता पर ही किसानों की जमीन हथियाने से लेकर किसानों की हत्या करने तक का आरोप लग जाता है. और खुद को बीमार बताकर अवधेश अस्पताल में भर्ती होकर वहीं से अपनी गंदी राजनीतिक चाले चलता है.

देव, पारो के पिता को छुडाने में असमथर्ता व्यक्त करते हुए कह देता है कि देव के पिता ने उसके पिता की तरह ऐसा काम कभी न करते. इससे पारो नाराज होकर देव से रिश्ता खत्म कर अपनी उम्र से काफी बड़ी उम्र व विपक्ष के नेता रामाश्रय शुक्ला (विपिन शर्मा) के साथ शादी कर चुनाव लड़ने की तैयारी शुरूकर देती है.

अब शुरू होता है राजनीति का अति गंदा खेल और धीरे धीरे अतीत के काले अध्याय खुलते हैं. पता चलता है कि देव की मां सुशीला व अवधेश के बीच अवैध रिश्ते हैं. अवधेश व रामाश्रय शुक्ला ने मिलकर ही देव के पिता विश्वंभर की हत्या की योजना बनाई थी, जिसमें उद्योगपति सहाय ने मदद की थी. पारो के पिता को जेल व जेल में उनकी हत्या के पीछे भी अवधेश ही है. अवधेश के ही इशारे पर पारो की हत्या की कोशिश की गई.

यह सारा सच पारो के साथ साथ देव को पता चलता है. तब देव अपने चाचा अवधेश के साथ ही रामाश्रय शुक्ला व अन्य दोषियों की हत्या कर देता है. पूरे एक वर्ष बाद देव व पारो नदी किनारे मिलते हैं.

विचारोत्तेजक फिल्म ‘‘हजारों ख्वाहिषें ऐसी’’ के अलावा जुनूनी रोमांचक प्रेम कहानी प्रधान फिल्म ‘ये साली जिंदगी’ के निर्देशक सुधीर मिश्रा इस कदर अपनी नई फिल्म ‘‘दास देव’’ में निराश करेंगे, यह उम्मीद तो किसी को नहीं थी.

फिल्म की कहानी चांदनी के नजरिए से कही जाना शुरू होती है. चांदनी कहानी की सूत्रधार के रूप में भी नजर आती है, मगर क्लायमैक्स पर पहुंचते पहुंचते निर्देशक सुधीर मिश्रा खुद इस बात को भूल गए. फिल्म में आगजनी व हिंसा अपनी चरम सीमा पर है. फिल्मकार राजनीति व प्रेम के बीच सामंजस्य बैठाने में बुरी तरह से विफल रहे हैं. फिल्म में रोमांस तो कहीं है ही नहीं, सिर्फ गंदी राजनीति हावी है. राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए हर रिश्ते का खून किया गया है.

फिल्म इंटरवल से पहले रोचक है, मगर तब उसकी गति धीमी है. इंटरवल के बाद कहानी गति पकड़ती है, पर जिस तरह से पूरा कथानक गड़बड़ होता है, उससे दर्शक कन्फ्यूज हो जाता है. उसकी समझ में ही नहीं आता कि आखिर किस किरदार का किसके साथ क्या रिश्ता है, कौन सा किरदार किसके साथ है और क्यों? वास्तव में ‘देवदास’ और शेक्सपियर के हेमलेट के ग्रे विश्वासघाती रंग का मिश्रण करते हुए फिल्मकार कहानी को फैलाते चले गए, पर वह भूल गए कि किसे प्रमुखता देनी है, कथा किसके नजरिए से शुरू हुई और फिर वह कहानी को समेट नही पाए. फिल्म की सबसे बड़ी कमजोर कड़ी इसकी पटकथा है. यानी कि फिल्मकार फिल्म के कथानक के साथ न्याय करने में पूर्णरूपेण विफल रहे हैं.

फिल्म के कैमरामैन सचिन के कृष्ण बधाई के पात्र है. निर्देशक ने फिल्म की लोकेशन बहुत सही चुनी है. जहां तक अभिनय का सवाल है तो देव के किरदार में राहुल भट्ट फिट ही नहीं बैठते हैं, वह अपने अभिनय से भी निराश करते हैं. भावों की अभिव्यक्ति करने में असमर्थ रहते हैं. पारो के किरदार में रिचा चड्ढा ने जानदार अभिनय किया है. चांदनी के किरदार में अदिति राव हैदरी अपनी प्रतिभा का जलवा ठीक से नहीं दिखा पाईं, शायद फिल्म की पटकथा ने उन्हें ऐसा अवसर नहीं दिया. यूं तो वह कहानी की नायिका है, मगर जैसे ही कई उपकहानियां आती हैं, कई किरदार आते हैं, तो उनका किरदार हाशिए पर पहुंच जाता है.

यह लेखक व निर्देशक की कमजोरी का नतीजा है. भ्रष्ट व अति महत्वाकांक्षी राजनेता अवधेश के किरदार में सौरभ शुक्ला से बेहतर कोई हो ही नहीं सकता था. उन्होंने जबरदस्त परफार्मेंस दी है. उन्होंने एक बार फिर साबित कर दिखाया कि वह अति बेहतरीन अभिनेता हैं. पारो के पिता के किरदार में अनिल जौर्ज जमे हैं. दिलीप ताहिल, विपिन शर्मा, विनीत कुमार सिंह, अनिल जौर्ज भी अपने अभिनय से प्रभावित करते हैं.

दो घंटे बीस मिनट की अवधि वाली फिल्म ‘‘दास देव’’ का निर्माण संजीव कुमार, गौरव शर्मा व मनोहर पी कानुनगो ने किया है. फिल्म के निर्देशक सुधीर मिश्रा, पटकथा लेखक सुधीर मिश्रा व जयदीप सरकार, संगीतकार संदेश शांडिल्य, विपिन पटवा, शमीर टंडन, अनुपम राग, सत्य माणिक अफसर, कैमरामैन सचिन के कृष्ण व कलाकार हैं- राहुल भट्ट, रिचा चड्ढा,अदिति राव हैदरी, सौरभ शुक्ला, विनीत कुमार सिंह, दिलीप ताहिल, विपिन शर्मा, दीपराज राणा,  अनिल जौर्ज, सोहेला कपूर, जयशंकर पांडे, योगेश मिश्रा, श्रुति शर्मा व अनुराग कश्यप.

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