अफसरशाही को साधना हर नेता के बस का नहीं है. अरविंद केजरीवाल तो इस मामले में एकदम निखट्टू साबित हो रहे हैं. दिल्ली में बहुत भारी बहुमत से विधानसभा चुनाव जीतने के बाद भी उन का ज्यादा समय अफसरों और उन के सरगना उपराज्यपाल से जूझने में बीतता है. हद तो हाल में हो गई जब रात को एक मीटिंग में आम आदमी पार्टी के विधायकों की मुख्य सचिव से हाथापाई तक हो गई.

ऐसे मामलों में दूसरे राज्यों में मुख्यमंत्री बीचबचाव कर के मामला ठंडा कर देते हैं. पर अरविंद केजरीवाल ठहरे अक्खड़ नेता और उन्होंने पूरी अफसरशाही से बिगड़ना शुरू कर दिया है.

हमारे देश में अफसरशाही का ढांचा बहुत मजबूत है. यह हमारे शास्त्रों के ब्राह्मणों के रुतबे और हकों की तरह का बना हुआ है जो सत्ता में सीधे न होते हुए भी हर काम में अपनी टांग अड़ाए ही नहीं रखते, हर काम अपनी मरजी से ही कराते हैं. पुराने राजाओं को जैसे राजपुरोहित अपनी उंगलियों पर नचाते थे वैसे ही ये अफसर नेताओं को नचाते हैं.

अरविंद केजरीवाल समझ रहे हैं कि ये अफसर राजपुरोहित नहीं हैं और यह उन की भूल है. राजपुरोहित अपने अपमान का बदला लेने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं और यही वे अब केजरीवाल के साथ कर रहे हैं. केजरीवाल अपनी राजनीतिक सफलता के बल पर अपने को जनता का हितैषी मान रहे हैं जबकि सच यह है कि बिना अफसरशाही की रजामंदी के वे एक पत्ता भी बदल नहीं सकते.

मुख्य सचिव का उदाहरण तो एक सबक है जो सरकार के लिए जानलेवा भी हो सकता है. अगर ‘पद्मावत’ फिल्म देखी है तो उस में राजपुरोहित को पद्मावती व रावल रतन सिंह से नाराज हो कर अलाउद्दीन खिलजी को भड़काने और चित्तौड़ पर विधर्मी के हमले व कब्जे का पूरा किस्सा दर्शाया गया है. यह बारबार हुआ है. 1947 के बाद भी हुआ?है. आज भी हो रहा है.

अरविंद केजरीवाल को समझना चाहिए था कि वे अपनी ताकत जनता के हितों में लगाएं, अफसरशाही को साध कर, नाराज कर के नहीं. अफसरशाही से उलझना इस देश में तो नामुमकिन है.

अफसरशाही अपनेआप को देश का स्टील फ्रेम कहती है और मानती है कि उसी की बदौलत देश एक है. यह चाहे सच न भी हो तो भी उस से उलझना गलत है.

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