पर्यावरण के नियमों की धज्जियां, सरकारी मशीनरी का बेजा इस्तेमाल व कोर्ट के आदेशों को ठेंगा दिखते हुए आर्ट औफ लिविंग संस्था का धार्मिक आयोजन विवादों के साथ खत्म हुआ.

श्री श्री रविशंकर की संस्था द्वारा आयोजित दिल्ली के यमुना खादर क्षेत्र में इस तथाकथित भगवा धार्मिक आयोजन में 1200 फुट लंबे व 400 फुट चौङा मंच बनाया गया था. धर्म और संस्कृति के नाम पर इस आयोजन में करोड़ों रूपए फूंके गए और जम कर यमुना नदी के किनारे गंद फैलाया गया.

वैसे धर्म ने न सिर्फ इनसानों को बांटा, पेड़ पौधे और यहां तक कि नदियों की सूरत तक बिगाड़ दी. रही सही कसर शहरी जिंदगी से निकली गंद नालों ने पूरी कर दी. दिल्ली में कालिंदी बैरेज के ऊपर से यमुना देखिए. नजारा देख कर दंग रह जाएंगे. यहां यमुना नाले जैसी दिखती है. आर्ट औफ लिविंग का कार्यक्रम इस के नजदीक ही हुआ.

यह जमीन डीडीए की है जो अभी केन्द्र सरकार यानी भाजपा के हाथों की कठपुतली है.भजभज मंडली के सिफारिश पर यह जमीन केंद्र सरकार ने बिना किसी कड़ी शर्तों पर आर्ट औफ लिविंग संस्था को दे दी, जिस के संस्थापक श्री श्री रविशंकर हैं और जो भाजपा सरकार के करीबी हैं. जो निर्माण कार्य यहां कराया गया उस के लिए केन्द्रीय पब्लिक वर्क डिपार्टमैंट से स्टेबिलिटी सर्टिफिकेट भी तुरंत जारी कर दिया गया, जो कई मामलों में आसान नहीं होता. इतना ही नहीं, देश की सरहदों पर हमारी रक्षा करने वाली सेना के जवानों तक को नहीं बख्शा गया और उन से यमुना पर पुल तक बनवा लिए गए.

अतिक्रमण की शिकार दिल्ली की यमुना आज इतनी बेहाल है कि इस की मिट्टी जहरीली हो चुकी है. नदी के बगल में उग रही सब्जियों में खतरनाक कैमिकल तक पाए गए हैं, जो कैंसर जैसी बीमारी दे सकते हैं. अब कार्यक्रम के बाद लाखों लोगों द्वारा फैलाए हजारों टन गंद व कचरा यमुना के किनारे दबा दिए जाएंगे या यों ही पङे रहेंगे या फिर बारिश की पानी के साथ नदी के पानी में मिल कर उसे और जहरीला बनाएंगे.

सवाल वही है और जवाब कोरा आश्वासन ही कि यमुना साफ कम गंदी ज्यादा ही रहेगी. क्या महज धार्मिक आयोजन व नदी किनारे संध्या आरती से इस की सूरतेहाल बदल जाएगी? जिस देश की राजनीति ही जाति व धर्म पर टिकी हो, वहां कैसी उम्मीद? राजनीतिक पार्टियों को वोट चाहिए पर जो यमुना पर्यावरण को मजबूती दे, कृषि में सुधार लाए उस की कोई सुनेगा, इस में संदेह ही है. रविशंकर की संस्था ने इस आयोजन भगवा संस्कृति को कितनी मजबूती दी यह तो पता नहीं, पर इस कार्यक्रम से यह जरूर साफ हो गया कि 'जब सैंया भए कोतवाल तो अब डर काहे का'.

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