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हार्वर्ड शोधकर्ताओं का अनुमान है कि भारत आने वाले दशक के लिए सब से तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था होगी. विश्व बैंक और आईएमएफ द्वारा एकत्र आंकड़ों के आधार पर अमेरिका के कृषि आर्थिक अनुसंधान सेवा विभाग ने अनुमान लगाया है कि भारत 2030 तक तीसरी सब से बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के लिए तैयार है, जो 4 विकसित देशों, जापान, ब्रिटेन और फ्रांस को पार कर जाएगी.

32 देशों के लिए प्राइस वाटरहाउस कूपर ने दीर्घकालिक वृद्धि की भविष्यवाणी की है कि 2050 तक भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया की सब से मजबूत अर्थव्यवस्था होगी.

सरकारें अर्थव्यवस्था के भ्रमित करते आंकड़ों से अपनी पीठ थपथपाने के बजाय देश की बड़ी आबादी की तंगहाल जीवनदशा को सुधारने के क्रम में कुछ कदम उठाए तो ही देश में गरीबी दूर हो सकती है. कृषि क्षेत्र की दयनीय स्थिति भी भारत में गरीबी का अहम कारण है.

उपरोक्त सुर्खियां भारत की अर्थव्यवस्था के बहुत अधिक सुदृढ़ होने व तेजी से आगे बढ़ने का भ्रम पैदा करती हैं, जबकि अनेक अर्थशास्त्री भारतीय अर्थव्यवस्था के तेजी से नीचे जाने व विकास की गति मंद होने की आलोचना कर रहे हैं. नोटबंदी व जीएसटी उस की बड़ी वजह मानी जा रही हैं.

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अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, भारतीय अर्थव्यवस्था अपने सकल घरेलू उत्पाद 2.44 ट्रिलियन डौलर के साथ विश्व में 7वें नंबर पर थी जोकि विश्व की सकल घरेलू उत्पाद में 3.08 फीसदी का अंशदान कर रही है. विश्व की 10 सब से बड़ी अर्थव्यवस्थाएं, उन की जनसंख्या, वहां की प्रतिव्यक्ति आय व उन के क्षेत्रफल तालिका-1 में दर्ज हैं :

तालिका से स्पष्ट है कि यद्यपि भारत अर्थव्यवस्था के आकार में विश्व में 7वें स्थान पर है किंतु यह कोई गर्व करने वाली स्थिति नहीं है. अर्थव्यवस्था का यह स्थान मुख्यरूप से भारत की विशाल जनसंख्या के कारण है. भारत का कुल क्षेत्रफल यूएसए का लगभग 1/3 है जबकि उस की जनसंख्या वहां से 3 गुना अधिक है. भारत 144वें स्थान पर है.

बाकी ढोल पीटना है

वास्तविक प्रतिव्यक्ति आय के मामले में भारत का विश्व में 144वां स्थान है जबकि क्रय शक्ति समता के आधार पर भारत का विश्व में 126वां स्थान है. एक अमेरिकी के मुकाबले एक भारतीय की प्रतिव्यक्ति आय मात्र 3.11 फीसदी है. यहां तक कि चीन के मुकाबले भी यह मात्र 21.58 फीसदी है. यह फर्क स्पष्ट रूप से दिखाता है कि भारत की वास्तविक स्थिति क्या है. बहुत से पिछड़े कहे जाने वाले देश हम से बेहतर स्थिति में हैं.

अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुसार, प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन 1.90 डौलर से कम आय के व्यक्ति अत्यधिक गरीब माने जाते हैं. वर्ष 2011 में भारत में 21.2 फीसदी व्यक्ति इस श्रेणी में आते थे. भारतीय रिजर्व बैंक के डाटा के अनुसार भी वर्ष 2011-12 में भारत की कुल जनसंख्या का 21.92 फीसदी भाग, लगभग 26.98 करोड़ व्यक्ति गरीबीरेखा के नीचे थे.

उक्त विवेचना से स्पष्ट है कि हालांकि भारत की अर्थव्यवस्था विश्व में 9वें स्थान पर है किंतु वह अभी भी विश्व के गरीबतम देशों में से एक है.

क्या हैं कारण

यदि हम भारत की गरीबी के कारणों की विवेचना करें तो ये कारण स्पष्ट रूप से सामने आते हैं :

वर्ष 2013 के आंकड़ों के अनुसार, भारत में सैक्टरवार रोजगार की स्थिति थी: कृषि : 49.7 फीसदी, उद्दोग : 21.5 फीसदी और सेवा क्षेत्र : 28.7 फीसदी.

इन आंकड़ों की तुलना यूएसए और चीन से करें तो स्थिति भयावह व शर्मनाक नजर आती है. यूएसए में वर्ष 2014 में कुल कार्यरत जनसंख्या का मात्र 1.4 फीसदी सीधे कृषि क्षेत्र से जुड़ा था जबकि 12.7 फीसदी रोजगार उद्योग क्षेत्र में. 80.1 फीसदी रोजगार सेवा क्षेत्र में व 5.7 फीसदी स्वरोजगार क्षेत्र में था. यहां पर एक उल्लेखनीय बात है कि यूएसए में वर्ष 1870 में कम से कम 50 फीसदी जनसंख्या कृषि से रोजगार पा रही थी.

चीन में भी वर्ष 2016 में कुल कार्यरत जनसंख्या का 27.7 फीसदी सीधे कृषि क्षेत्र से जुड़ा था जबकि 28.8 फीसदी उद्योग क्षेत्र से तथा 43.5 फीसदी सेवा क्षेत्र में कार्यरत था. सो, यह स्पष्ट है कि जिस अर्थव्यवस्था में रोजगार के लिए कृषि पर निर्भरता जितनी अधिक है, उस की प्रतिव्यक्ति आय उतनी ही कम है.

कृषि की दयनीय स्थिति

भारत में गरीबी का एक बहुत बड़ा कारण उस के कृषि क्षेत्र की दयनीय स्थिति है. जहां एक ओर भारत की कुल कार्यरत जनसंख्या का 49.7 फीसदी भाग कृषि क्षेत्र से जुड़ा है वहीं कृषि क्षेत्र का कुल आय में योगदान मात्र 17.4 फीसदी है. भारतीय कृषकों का 62.8 फीसदी भाग सीमांत कृषकों का है जिन का औसत कृषि भूमि स्वामित्व मात्र 0.24 हैक्टेअर का है. इस का भी मात्र 51 फीसदी भाग ही सिंचित है. लघु कृषकों का भाग 17.8 फीसदी है जिन का औसत कृषि भूमि स्वामित्व 1.42 हैक्टेअर है और इस का मात्र 39 फीसदी भाग ही सिंचित है.

भारतीय कृषक परिवारों के प्रतिमाह आय व व्यय के आंकड़े क्या हैं, इस को तालिका-2 में दर्ज किया जा रहा है.

तालिका-2 से स्पष्ट है कि कुल कृषक परिवारों का 80 फीसदी से अधिक भाग अपने प्रतिमाह व्यय से बहुत कम कमा पाता है. परिणामस्वरूप उसे इस कमी को पूरा करने के लिए ऋण लेना पड़ता है. आय की कमी के कारण कृषक एक ऐसे कुचक्र में फंस जाता है जिस से बाहर आना उस के लिए तब तक संभव नहीं है जब तक कि उस को किसी अन्य माध्यम से नियमितरूप से अतिरिक्त आय प्राप्त नहीं हो जाती है.

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संपत्ति का असमान वितरण

समग्र प्रतिव्यक्ति आय कम होने के साथसाथ भारत में आर्थिक विषमता बहुत अधिक है. आर्थिक विषमता के मामले में भारत विश्व में रूस के बाद दूसरे स्थान पर है. भारत के 1 प्रतिशत सर्वाधिक धनी व्यक्ति कुल संपत्ति का 58.4 फीसदी भाग रखते हैं. सरकारें हमेशा इन्हीं 58.4 फीसदी धनवानों की सुनती हैं.

देश की कुल संपत्ति में निम्नतम

30 फीसदी लोगों के पास कुल संपत्ति का मात्र 1.4 फीसदी भाग ही है. देश के निम्नतम 70 फीसदी लोगों के पास कुल संपत्ति का मात्र 10.9 फीसदी भाग ही है. यह अंतर लगातार बढ़ता ही जा रहा है. परिणामस्वरूप, देश की आर्थिक प्रगति का लाभ नीचे के लोगों तक नहीं पहुंच पा रहा है.

निर्यात में कम हिस्सेदारी

विश्व की सब से बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की तुलना करें तो हम पाते हैं कि यहां भी भारत की स्थिति संतोषजनक नहीं है. द वर्ड फैक्टबुक के अनुसार, वर्ष 2016 के अनुमानित आयात व निर्यात की स्थिति क्या थी, यह तालिका-3 में दर्ज है :

उक्त तालिका से स्पष्ट है कि खुद को विश्व की 7वीं सब से बड़ी अर्थव्यवस्था बता कर अपनी पीठ थपथपाने से भारत की स्थिति नहीं बदलेगी. यदि भारत को अपनी स्थिति बेहतर करनी है तो उसे अपनी मूलभूत कमजोरियों को दूर करने के लिए गंभीर प्रयास करने होंगे.

कृषि पर निर्भर जनसंख्या को रोजगार के दूसरे स्रोत उपलब्ध कराने होंगे, उन की कृषि पर से निर्भरता कम करनी होगी, विश्व के निर्यात में अपनी हिस्सेदारी बढ़ानी होगी और सब से महत्त्वपूर्ण संपत्ति के वितरण की असमानता को कम करना होगा. तभी हम अपनी अर्थव्यवस्था को हकीकत में गर्व करने लायक बना सकेंगे.

इस सब के लिए देश की सामाजिक स्थिति जिम्मेदार है जिस में धर्म का सब से ज्यादा रोल है जिस ने देश की जनता को अकर्मण्य बना रखा है.

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