इस फिल्म का शतरंज के खेल से सीधेसीधे तो कुछ लेनादेना नहीं है परंतु फिल्म में जो चालें दिखाई गई हैं वे शतरंजी चालों जैसी हैं. फिल्म में शतरंज की चालों और रंगबिरंगे बोर्ड दिखाए गए हैं, जिन्हें शतरंज के खेल की जानकारी नहीं है उन्हें बताया गया है कि इस खेल में घोड़ा ढाई चाल चलता है, ऊंट टेढ़ी चाल चलता है, हाथी के सामने वाला प्यादा जब मरता है तो वह पागल हो जाता है. सब से बड़ी बात प्यादा जब सही चाल चलेगा तो वह वजीर बन जाएगा. फिल्म में अमिताभ बच्चन को छोटा सा प्यादा बताया गया है जो अपनी चालें चल कर वजीर बन जाता है. ‘वजीर’ उन लोगों को समझ अच्छी तरह आएगी जो शतरंज के खेल से वाकिफ हैं. वैसे यह रोचक थ्रिलर मर्डर मिस्ट्री है, जिस की परतें परत दर परत खुलती जाती हैं और अंत में ही पता चलता है कि कौन क्या है.

फिल्म की शुरुआत काफी अच्छी है, मगर मध्यांतर के बाद यह आम मुंबइया फिल्म बन कर रह जाती है. कहानी का क्लाइमैक्स पहले ही पता चल जाता है, यह फिल्म की कमजोरी है. फिल्म सीरियस है, हंसने का मौका नहीं देती, हीरोइन सुंदर है परंतु फिल्म में रोमांस नदारद है. इमोशन दिल पर कोई असर नहीं छोड़ पाते. फिर भी फिल्म अगर बांधे रखती है तो अमिताभ बच्चन और फरहान की दमदार अदायगी के कारण.

फिल्म की कहानी दिल्ली पुलिस ऐंटी टैररिस्ट स्क्वायड के अफसर दानिश (फरहान अख्तर) से शुरू होती है. रूहाना (अदिति राव हैदरी) उस की पत्नी है और 6 साल की नूरी उस की बेटी है. एक आतंकवादी मुठभेड़ के दौरान दानिश की बेटी की मौत हो जाती है. वह बेटी के गम को भुला नहीं पाता और आत्महत्या की असफल कोशिश करता है. तभी उसे वहां पड़ा एक पर्स मिलता है. वह पर्स लौटाने जिस घर में जाता है वहां उस की मुलाकात पंडित ओंकारनाथ (अमिताभ बच्चन) से होती है, जो बच्चों को शतरंज का खेल सिखाते हैं. पंडितजी दानिश को बताते हैं कि उस की बेटी की हत्या एक मंत्री यजाद कुरैशी (मानव कौल) ने की थी.

पंडितजी और दानिश में दोस्ती हो जाती है. एक दिन पंडितजी को पता चलता है कि उस की बेटी की हत्या की फाइल बंद कर दी गई है तो वह मंत्रीजी की कार पर जूता फेंकता है. तभी यजाद कुरैशी का वजीर (नील नितिन मुकेश) पंडितजी पर हमला कर देता है. वजीर दानिश को भी धमकी देता है कि वह पंडितजी को कश्मीर जाने से रोके. दानिश के रोकने से पहले ही वजीर पंडितजी की कार को बम से उड़ा देता है.

कश्मीर में चुनाव होने वाले हैं. यजाद कुरैशी के पीछेपीछे दानिश भी वहां पहुंच जाता है. यजाद कुरैशी दरअसल एक आतंकवादी था. उस ने पूरे गांव को ही खत्म कर दिया था. उसी ने पंडितजी की बेटी को मार डाला था. उस के बारे में सचाई जान कर दानिश उसे खत्म कर देता है. अंत में पता चलता है कि दानिश खुद एक मोहरा बन रहा था जब उसे एक पेनड्राइव मिलती है जिस में उसे बताया जाता है कि किस तरह पहली चाल जो दानिश को पंडितजी के घर तक ले आई थी और आखिरी चाल यजाद कुरैशी तक ले गई. इस तरह शतरंज के खेल में वजीर कौन बना यह आखिरी लमहों में पता चलता है. फिल्म की यह कहानी रोमांचक है. भले ही कहानी हवाहवाई हो परंतु कहानी को हकीकत पर खड़ा करने की कोशिश की गई है. व्हीलचेयर पर बैठे अमिताभ बच्चन ने अपने किरदार में जान डाल दी है. निर्देशन में भी झोल है. एक अपाहिज इंसान को एक तेजतर्रार अफसर को अपने मकसद के लिए है. प्यादा बनाने के लिए इतनी जानकारी कहां से मिलती है. नील नितिन मुकेश का होना न होना बराबर है. अदिति राव हैदरी की भूमिका छोटी सी है और बेअसर है. मानव कौल की भूमिका और ज्यादा होती तो अच्छा होता. फिल्म का गीतसंगीत सामान्य है. संवाद अच्छे हैं. अधिकांश फिल्म दिल्ली में शूट की गई है. छायांकन अच्छा है.

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