आज भला साधारण भूगोल की पढ़ाई क्यों की जाए जब कामकाज की जरूरतें भूगोल के नएनए क्षेत्र निर्धारित कर रहे हैं और उन्हें समझ कर कुछ विश्वविद्यालय ज्योग्राफिक टूरिज्म या ज्योग्राफिक एनवायरमैंट की डिग्री औफर कर रहे हों? लेकिन यह सिर्फ भूगोल का ही किस्सा नहीं है, यही हाल लगभग हर विषय का है. दरअसल, आज जितने भी विषय विश्वविद्यालयों में पढ़ाए जा रहे हैं, उन सब की परंपरा कम से कम 100 साल पुरानी है, सिवा एक प्रबंधन कोर्स को छोड़ कर. हम जानते हैं कि जिंदगी लगातार बदलती रहती है और उस की जरूरतें भी बदलती रहती हैं. यही कारण है कि आज से 50 साल पहले रसायन विज्ञान पढ़ने के जो उद्देश्य हुआ करते थे आज वे बदले भी हैं और कई मानों में बहुत व्यापक भी हो गए हैं.

स्नातक स्तर के बाद की पढ़ाई का मतलब जीवन को समृद्ध और परिपूर्ण बनाना है. इसलिए हर अध्ययन के पीछे संबंधित क्षेत्र के कामकाज को बेहतर बनाना प्रमुख उद्देश्य होता है. यों तो बिना चर्चा किए ही कई बार विभिन्न विषयों में परिवर्तन होता रहता है. लगातार नए विकास के साथ उन में अपडेट होता रहता है. बदलते मानकों, नियमों का उन में समावेश भी होता रहता है, लेकिन कई बार ये सब बड़े पैमाने पर और एकसाथ ही करना पड़ता है तब ये सब नए विषय के रूप में नजर आता है.

इसलिए इन दिनों अगर तमाम पारंपरिक पाठ्यक्रमों में विभिन्न नए समायोजनों के साथ विकसित किए गए नए पाठ्यक्रमों का बोलबाला चारों तरफ दिख रहा है तो इस का मतलब है कि अचानक कामकाजी जीवन और जीवन जीने के रंगढंग में बदलाव या नएनए विकास हुए हैं, इसलिए तमाम पुराने पारंपरिक पाठ्यक्रमों में भी नए कौंबिनेशन जरूरी हो गए हैं.

यह अकारण नहीं है कि देश की अग्रणी यूनिवर्सिटी मानी जा रही दिल्ली यूनिवर्सिटी ने पिछले 2 साल में 8 नए डिग्री पाठ्यक्रम पेश किए हैं. ये सभी पाठ्यक्रम सहयोगी विषयों के मिश्रण से विकसित हुए हैं, जो बाजार, रोजगार और उद्योग क्षेत्रों के लिए काफी उपयोगी हैं.

डीयू ने पिछले साल बीटैक लैवल पर जो कंप्यूटर साइंस, फूड टैक्नोलौजी, इंस्ट्रूमेंटेशन, इलैक्ट्रौनिक्स, पौलिमर साइंस, साइकोलौजिकल साइंस और फोरेंसिक साइंस जैसे पाठ्यक्रम पेश किए हैं, वे नए उपयोगी विषयों के मिश्रण से बने पाठ्यक्रम हैं. इसी क्रम में दिल्ली यूनिवर्सिटी ने एमएससी फोरेंसिक साइंस कोर्स शुरू किया है, जिसे कैमिस्ट्री, फिजिक्स, बौटनी, जूलौजी, एंथ्रोपौलिजी, बायोकैमिस्ट्री, बायोफिजिक्स, बायोटैक जेनेटिक, माइक्रोबायोलौजी, बीफार्मा, बीटैक, एमबीबीएस, बीडीएस और लाइफसाइंसेज के बीएससी कोर्सेस करने वाले छात्र कर सकते हैं.

मतलब यह नया एमएससी फोरेंसिक साइंस पाठ्यक्रम इतने किस्म के विषय वाले छात्रों से खुद को जोड़ेगा. भले ही यह व्यापक होने की वजह से बहुत सटीक न दिखे, लेकिन फोरेंसिक क्षेत्र में जिस तरह की जरूरतें और बहुआयामी जटिलताएं पैदा हुई हैं, उन सब को देखते हुए यह पाठ्यक्रम बाजार, रोजगार और आधुनिक कानून व्यवस्था जैसे क्षेत्रों के लिए काफी लाभदायक साबित होगा.

हाल के वर्षों में जिस तेजी से बाजार, रोजगार और बदलती लाइफस्टाइल के चलते विभिन्न पाठ्यक्रमों में बदलाव किया गया है वे तमाम पाठ्यक्रम, नएनए विषय क्षेत्र के रूप में सामने आए हैं. ऐसे विषय क्षेत्र काफी व्यापक और बहुपयोगी हैं. हम यहां इन्हीं पुराने पाठ्यक्रमों की चर्चा कर रहे हैं जो अपने नए रूप में विभिन्न समायोजनों के साथ बिलकुल नए और बहुपयोगी पाठ्यक्रम बन कर उभरे हैं.

इन्हीं नए पाठ्यक्रमों में से एक पाठ्यक्रम है, टूरिज्म ईकोफ्रैंडली इनिशिएटिव, जो कुछ वर्ष पहले आस्ट्रेलिया की चार्ल्स स्टुअर्ट यूनिवर्सिटी में शुरू हुआ था, लेकिन इस साल बेंगलुरु और मुंबई के कुछ कालेजों ने भी इस पाठ्यक्रम को शुरू किया है. हालांकि सच है कि नए पाठ्यक्रमों को व्यवस्थित ढंग से बाजार और विकास के साथ जोड़ना अभी हमारे यहां उतना संभव नहीं हो पा रहा है, जितना कि विदेशी विश्वविद्यालयों में. फिर भी देश के कुछ विश्वविद्यालय मसलन, दिल्ली यूनिवर्सिटी, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, बंगलौर विश्वविद्यालय, मद्रास यूनिवर्सिटी, जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी, दिल्ली, जाधवपुर यूनिवर्सिटी, पश्चिम बंगाल, काकतिया विश्वविद्यालय, हैदराबाद जैसे शीर्ष विश्वविद्यालय इस क्षेत्र में पहल कर रहे हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय इन में सब से आगे है.

आमतौर पर पाठ्यक्रमों में अपडेट की परंपरा विज्ञान वर्ग के पाठ्यक्रमों में कहीं ज्यादा सहज है. इसलिए बिना किसी बदलाव के दावे के भी आमतौर पर विज्ञान क्षेत्र के पाठ्यक्रम डेढ़ से 2 दशक के भीतर अपनी आंतरिक बनावट में काफी कुछ बदल जाते हैं, लेकिन एक अच्छी और कदाचित हैरान करने वाली बात यह भी है कि हाल के सालों में विज्ञान वर्ग से अगर ज्यादा नहीं तो लगभग कदम से कदम मिलाते हुए कला, कानून और समाज विज्ञान के पाठ्यक्रमों में भी बदलाव बड़े पैमाने पर देखा गया है.

मसलन, कानून के क्षेत्र को ही लें. दिल्ली विश्वविद्यालय ने इसी साल से एक साल का एलएलएम पाठ्यक्रम शुरू किया है, जिस की अवधि पहले 2 और 3 साल हुआ करती थी. यह पाठ्यक्रम विश्वविद्यालय के दावे के मुताबिक ज्यादा सटीक और आज की जरूरतों के हिसाब से कहीं ज्यादा उपयोगी साबित होगा.

गौरतलब है कि दिल्ली विश्वविद्यालय की ला फैकल्टी में अभी मास्टर लैवल पर जो एलएलएम कोर्स पढ़ाया जाता है वह 2 साल का है, लेकिन इसे ही जब ईवनिंग शिफ्ट के छात्र पढ़ते हैं तो यह 3 साल का हो जाता है. ला फैकल्टी ने अब एक साल का नया कोर्स तैयार किया है, जिस के बारे में दिल्ली यूनिवर्सिटी को यूजीसी ने भी लिखा था. इस नए पाठ्यक्रम के प्रपोजल और कोर्स स्ट्रक्चर को मंजूरी मिल चुकी है.

मगर कानून में डिग्री हासिल करने वालों के लिए देश में नए और बेहतर उपयोगी स्पैशलाइज्ड डिग्री कोर्सेज की कमी नहीं है. देश के तमाम विश्वविद्यालयों और ला स्कूलों ने कानून की मौजूदा जरूरतों के हिसाब से अपने पाठ्यक्रमों में बदलाव किया है. इन्होंने अब पहले से कहीं ज्यादा सटीक एकेडमिक डिग्रियां तैयार की हैं. यह जरूरी भी है, क्योंकि आज अदालतें महज सिनेमाई परदे पर दिखने वाली जैसी नहीं रह गई हैं.

आज के तेज रफ्तार समाज में न सिर्फ अपराधों में बढ़ोतरी हुई है बल्कि वे बहुत जटिल भी हुए हैं. अपराधों में विविधता भी खूब आई है. अब पुराने कानून और उन की पारंपरिक व्याख्याएं कमजोर पड़ गई हैं. यही कारण है कि देशविदेश के तमाम विश्वविद्यालयों और ला इंस्टिट्यूट ने समय के हिसाब से पाठ्यक्रमों को बदला है.

हाल के वर्षों में पूरी दुनिया में राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएं जबरदस्त ढंग से बढ़ी हैं. इंटरनैट ने पूरी दुनिया को एकदूसरे से जोड़ दिया है. यह जुड़ाव महज तकनीकी संवाद तक ही सीमित नहीं है बल्कि साझे लक्ष्यों, उद्देश्यों, साधनों और योजनाओं तक बढ़ा है. अगर स्पष्ट शब्दों में कहें तो पूरी दुनिया में आम लोगों के भीतर लोकतंत्र की चाह बढ़ी है और इस के लिए संघर्ष करने की भावना भी मजबूत हुई है.

जाहिर है कि लोकतंत्र की इस चाहत और उस के लिए बढ़े आंदोलनों के चलते सरकारों द्वारा दमन भी बढ़ा है. इन सब के चलते कानून के सिपाहियों की मांग न सिर्फ अब पहले से ज्यादा बढ़ गई है बल्कि इस मांग ने कानून के जानकारों को जन महत्त्वाकांक्षाओं को समझने और सत्ता के दमन से उन के लिए सुरक्षित कानूनी रास्ता विकसित करने का दबाव भी डाला है.

इस के चलते कानून के नए पाठ्यक्रमों की जबरदस्त जरूरत पैदा हो गई है. यह अकारण नहीं है कि पुणे के सिंबायोसिस ला कालेज ने 2 साल पहले साइबर ला पर डिग्री देनी शुरू की और आज इसे चाहने वालों की लंबी कतार लगी है. इसी तरह खड़गपुर आईआईटी ने इंटैलैक्चुअल प्रौपर्टी राइट पर डिग्री देना शुरू किया है तो उस के यहां भी सीटों से तकरीबन दसगुना ज्यादा डिग्री की चाह रखने वाले आवेदन कर रहे हैं.

वक्त के हिसाब से नई जरूरतों को समझने में हैदराबाद का एनएएलएसएआर ला स्कूल भी पीछे नहीं रहा, उस ने मीडिया ला पर डिग्री देनी शुरू की है. बिहार की तिलकामाझी भागलपुर यूनिवर्सिटी ने इसी क्रम में टौर्ट्स एंड कौंट्रैक्ट्स जैसे विषय पर डिग्री की शुरुआत की है. इन सभी संस्थानों का अनुभव है कि छात्र इन नए कानून पाठ्यक्रमों का हाथोंहाथ स्वागत कर रहे हैं.

अखबार के फीचर पेज हों, टैलीविजन चैनलों में दिखाई जाने वाली डौक्यूमैंट्री फिल्में या रोजमर्रा के डिस्कशंस, हर जगह राजनीति के बाद अगर किसी दूसरे विषय की सर्वाधिक धूम रहती है तो वह पर्यावरण ही है. दुनिया का बिगड़ता पर्यावरण अगर आज वैश्विक चिंता का विषय है तो जाहिर है इस चिंता पर पठनपाठन के तमाम पाठ्यक्रम भी विकसित होने ही थे. चूंकि रोजगार और बाजार की विभिन्न गतिविधियों में अब पर्यावरण की चिंता एक जरूरी हिस्सा बन गई है, इसलिए आने वाले समय में इस क्षेत्र से ज्यादा से ज्यादा रोजगार या फिर विभिन्न रोजगार इस क्षेत्र के साथ जुड़ने तय हैं. अमेरिका, इंगलैंड, आस्ट्रेलिया और यूरोप के विभिन्न क्षेत्रों में पर्यावरण पिछले एक दशक से हौट डिग्री कोर्स बना हुआ है पर अब हिंदुस्तान में भी यह अपनी पूरी रूपरेखा के साथ मौजूद है.

छात्र समाज का हिस्सा पहले हैं, अध्ययनअध्यापन का बाद में. इसलिए वे समझते हैं कि पर्यावरण में हासिल की गई डिग्री उन्हें रोजगार दिलाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएगी. मगर आज के छात्र पर्यावरण पाठ्यक्रम के घिसेपिटे तौरतरीकों व उपदेशात्मक विषय क्षेत्र में रुचि नहीं रखते. इसलिए पर्यावरण संबंधी पाठ्यक्रमों को ज्यादा व्यावहारिक और रचनात्मक बनाने की कोशिशें हो रही हैं.

पर्यावरण पाठ्यक्रम में डिग्री हासिल करने वाले एक छात्र के मुताबिक यह लगातार महत्त्वपूर्ण हो रहा है कि पर्यावरण क्षेत्र के विभिन्न जिम्मेदार हिस्सों को विशेषज्ञ नजदीक से पहचानें और उस के साथ इंटेरैक्ट करें, तभी कोई बदलाव हो सकता है. यही कारण है कि अब पर्यावरण को सैद्धांतिक से ज्यादा व्यावहारिक और फील्ड में जा कर काम करने वाले पाठ्यक्रम में बदला जा रहा है.

इस क्षेत्र में अलगअलग महत्त्वपूर्ण डिग्रियां विकसित की गई हैं, जैसे पुणे का आईएनओआरए संस्थान और्गेनिक फार्मिंग पर डिग्री दे रहा है तो इंस्टिट्यूट औफ जैनेटिक इंजीनियरिंग कोलकाता जैनेटिक्स पर डिग्री पाठ्यक्रम दे रहा है. तमिलनाडु के फिशरीज कालेज ने फिशरीज साइंस पर महत्त्वपूर्ण डिग्री देनी शुरू की है जबकि अगर इसी क्रम में हम इंगलैंड और अमेरिका को भी रखें तो लंदन स्कूल औफ इकोनौमिक्स एनवायरमैंट पौलिसी पर अमेरिका का नौर्थलैंड कालेज, एनवायरमैंट कैमिस्ट्री पर और अमेरिका की ही कौर्नेल यूनिवर्सिटी लैंडस्केप मैनेजमैंट पर डिग्री दे रही है.

कुल मिला कर आज पढ़ना सिर्फ पारंपरिक ढंग से डिग्री हासिल करना भर नहीं है बल्कि रोजगार और ज्ञान के मामले में ज्यादा सामयिक, ज्यादा उपयोगी और ज्यादा रुचिकर होना है. इसलिए पुराने घिसेपिटे डिग्री पाठ्यक्रमों की जगह आज पूरी दुनिया में विभिन्न सहयोगी विषयों में समायोजित कर के नएनए पाठ्यक्रम विकसित हो रहे हैं. यह न सिर्फ व्यावहारिक है बल्कि ये बुद्धिमत्ता भी दर्शाते हैं.   

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