शिक्षा व्यक्ति के विकास का मार्ग प्रशस्त करती है लेकिन जब एक गै्रजुएट युवक को चपरासी की नौकरी के लिए संघर्ष करना पड़े तो इसे आप क्या कहेंगे? बेरोजगारी का दानव दिनप्रतिदिन हताश हो रहे शिक्षित युवावर्ग को लील रहा है. डिग्री प्राप्त बेरोजगार युवकों की जो तसवीर आज हमारे सामने है वह निसंदेह रोंगटे खड़े करने वाली है.

आज समस्त शिक्षा प्रणाली सवालों के कटघरे में खड़ी है. सुरक्षित कैरियर के लिए संघर्षरत युवक की मानसिक स्थिति का अंदाजा लगा कर देखिए, जब स्नातक या उस से आगे की डिग्री लेने के बाद उसे चपरासी की नौकरी पाने के लिए भी दरदर भटकना पड़ रहा हो. बेरोजगारों की दिनोदिन लंबी होती कतार कहीं न कहीं संदेह पैदा करती है कि आखिर पढ़लिख कर क्या मिला?

भारत को विश्व के समक्ष आर्थिक महाशक्ति के रूप में अघाने वाले नेताओं की तंद्रा भंग होनी चाहिए और उन्हें सचाई का पता चलना चाहिए. 21वीं शताब्दी को युवाओं की शताब्दी का खोखला नारा कब तक लुभा पाएगा, इस में संदेह है. यदि हम सरकारी आंकड़ों को सच मानें और वस्तुस्थिति की गंभीरता का वास्तविकता के परिप्रेक्ष्य में आकलन करें तो सचाई सामने आ जाएगी. ज्ञातव्य है कि उत्तर प्रदेश विधानसभा सचिवालय में 368  चपरासी के रिक्त पदों को भरने के लिए प्राप्त आवेदनों की संख्या देख कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं. इन पदों को भरने के लिए 23 लाख अर्जियां आईं, यानी एक पद के लिए 6 हजार आवेदन, यह आंकड़ा भविष्य के खतरे की ओर इशारा कर रहा है. किसी विकासशील देश के लिए इस से अधिक शर्म की बात और क्या हो सकती है कि उच्च शिक्षा प्राप्त उस का युवावर्ग नौकरी के लिए दरदर भटके.

गौरतलब है कि वैश्विक आर्थिक मंदी के चलते इंजीनियर और एमबीए डिग्रीधारकों को भी रोजगार नहीं मिल रहा. भारत के औद्योगिक क्षेत्रों में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है. 21-22 करोड़ की आबादी वाले देश के सब से बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में मात्र चपरासी के पदों को भरने के लिए 23 लाख आवेदनपत्र प्राप्त हुए. गौरतलब है कि चपरासी पद के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता 5वीं पास मांगी गई थी. इस के लिए आवेदनपत्र आए 53,226 लेकिन छठी पास आवेदकों की संख्या थी 20 लाख से अधिक. इतना ही नहीं साढ़े 7 लाख आवेदक इंटरमीडिएट पास थे और 1 लाख 52 हजार आवेदक उच्चशिक्षा प्राप्त थे. हद तो तब हो गई, जब चपरासी के पद को भरने के लिए प्राप्त आवेदनपत्रों में 255 आवेदक पीएचडी डिग्रीधारक निकले.

देखसुन कर यह हैरानी होती है कि शिक्षा के स्तर का इस कदर हृस हुआ है? बेरोजगारी का यह सच एक बड़े खतरे की ओर इशारा कर रहा है. आंकड़े बताते हैं कि केंद्र सरकार की नौकरियों में स्थिति बद से बदतर हुई है. कर्मचारी चयन आयोग की 2013-14 की परीक्षाओं में आवेदन करने वालों की संख्या 1 करोड़ से अधिक दर्ज की गई थी. इन आवेदकों ने मात्र 6 परीक्षाओं में हिस्सा लेना था. निजी कंपनियों में मिलने वाले कम पैकेज और नौकरियों की अनिश्चितता के चलते हर कोई सरकारी नौकरी की तरफ भाग रहा है. लाखों पढ़ेलिखे युवक बेरोजगारी का दंश झेल रहे हैं.

यदि शिक्षा वास्तव में ही गुणवत्तापूर्ण और रोजगारमूलक होती है तो उच्चशिक्षा प्राप्त अभ्यर्थी चौथी श्रेणी की छोटी नौकरी के लिए आवेदन नहीं करते. सो ऐसी स्थिति से सामना करने के लिए आवश्यक है कि शिक्षाप्रणाली में ही आमूलचूल परिवर्तन किया जाए. इसे रोजगारमूलक बनाने की आवश्यकता है. छठा वेतनमान लागू होने के बाद से सरकारी नौकरियों के प्रति आकर्षण कई गुना बढ़ गया है. इसी के चलते एक साधारण शिक्षक 30-40 हजार और महाविद्यालयों के प्राध्यापक एक सवा लाख वेतन पा रहे हैं. सेवानिवृत्त प्राध्यापक को घर बैठे 60-70 हजार रुपए तक पैंशन मिल जाती है जो केवल सरकारी नौकरी में ही संभव है.

भारत की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और भौगोलिक परिस्थितियों और विशाल जनसमुदाय की मानसिकता को ध्यान में रख कर यदि सार्थक शिक्षा के बारे में किसी ने सोचा था तो वे थे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, जिन का कहना था, ‘बुद्धि की सच्ची शिक्षा हाथ, पैर, कान, नाक जैसे शरीर के अंगों के उचित अभ्यास और शिक्षण से ही हो सकती है.’ आज हम बुद्धि के एकांगी विकास की गिरफ्त में आ गए हैं. इस शिक्षा व्यवस्था की अपेक्षा रहती है कि वह ऐसे सरकारी संस्थागत ढांचे खड़े करती चली जाए, जिस के राष्ट्र और समाज के लिए हित क्या हैं, यह तो स्पष्ट न हो, लेकिन नौकरी और ऊंचे वेतनमान की गारंटी हो.

बहरहाल, हमारे नीतिनिर्धारकों को उस कड़वे सच को स्वीकारना चाहिए, जो उत्तर प्रदेश में शिक्षित बेरोजगारों को ले कर उजागर हुआ, जिस ने समूची शिक्षा प्रणाली को संदेह के घेरे में ला खड़ा किया है. यक्ष प्रश्न बस यही है कि क्या हमारी शिक्षा हमें रोजीरोटी दे सकती है? इस प्रश्न का उत्तर हमें अपने अंदर ही ढूंढ़ना होगा.                              

 

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