मोदी सरकार को लगभग 20 महीने हो गए. आखिरकार अच्छे दिन नहीं आए. आगे भी आने की उम्मीद अब लगभग नहीं के बराबर है. उल्टे देश की आर्थिक स्थिति जरूर डावांडोल हो रही है. वैश्विक मंदी से बचना अब संभव नहीं लगता है. देश की अर्थव्यवस्था अब मनमोहन सिंह के दौर पर पहुंच गयी है. हाल में महंगाई का ग्राफ, शेयर बाजार का सूचकांक और रूपए के अवमूल्यन को देखते हुए साफ नजर आ रहा है कि जो दिखाने की कोशिश की जा रही थी, स्थिति ठीक वैसी है नहीं. लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा की जुमलेबाजी के झांसे में न सिर्फ मतदाता आ गए थे, बल्कि दुनिया के बड़े-बड़े नेताओं पर इसका प्रभाव पड़ा था. और विश्व स्तर पर हमारे देश की अर्थव्यवस्था को लेकर एक बड़ी-बड़ी उम्मीद बनने लगी थी. पर अब हर स्तर पर भ्रम टूटने लगा है. अब तो सरकार ने एकाध अगर-मगर के साथ अंतर्राष्ट्रीय मंच पर मान लिया है कि वैश्विक मंदी का असर हमारे देश पर भी पड़ रहा है.

अब जब 2016 के शुरूआत में ही वैश्विक अर्थव्यवस्था की की 2016 के गौरतलब है कि अरुण जेटली ने दावोस में कहा कि वैश्विक मंदी से भारत भी अछूता नहीं है. जबकि इससे पहले मोदी सरकार मंदी के किसी भी तरह से भारतीय अर्थव्यवस्था पर असर से इंकार करती रही है. अक्टूबर 2015 में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कोलंबिया विश्वविद्यालय में भी यही कहा था कि भारत पर मंदी का कोई असर नहीं पड़ा है. इसी साल नवंबर में  लेकिन रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन पहले ही कह चुके थे कि चीन की आर्थिक सुस्ती का भारत पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है. मोदी सरकार के दावे से उल्ट रधुराम राजन के बयान पर काफी होहल्ला मचा था.

हमारे वित्तमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री वैश्विक अर्थव्यवस्था में देश का स्थान आकर्षक व ऊंचा होने का दावा करते रहे. लेकिन 2015 के अंत तक लगाए गए अनुमान के अनुरूप जब इस साल के शुरूआती चरण से ही विश्व अर्थव्यवस्था बड़े ही खराब दौर से गुजर रही है, अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमत अपने सबसे निचले स्तर (28 डौलर प्रति बैरल) पर है, चीनी मुद्रा व अर्थव्यवस्था भी लगातार मार खा रही है – इन सब लुथल-पुथल के बीच हमारे वित्त और प्रधान- मंत्रियों के दावे भला कब तक और कहां तक टिकते! भारतीय अर्थव्यवस्था का हाल अब सामने आने लगा है.

पिछले साल यानि 2015 मार्च महीने में सेंसेक्स में रिकॉर्ड उछाल देखा गया था. तब अच्छे दिन के सब्जबाग सच होते दिखने लगे थे. लेकिन इसके बाद लगातार ‘अच्छे दिन’ का सपना फीका पड़ता नजर आने लगा. तबसे लेकर अब तक शेयर सूचकांक लुढ़कता चला है. हां, 5 मार्च 2015 को सेंसेक्स ने 30,024.74 प्वाइंट का रिकौर्ड उछाल दर्ज किया था, इसके बाद भारतीय अर्थव्यवस्था में 7.5 प्रतिशत वृद्धि को छू लेने का दावा किया जा रहा था. लेकिन तबसे लेकर अब तक सेंसेक्स लगभग छह हजार प्वाइंट गिर चुका है. कुल मिला कर 52 महीने में अपने सबसे निचले स्तर 23,834.76 प्वाइंट पर भी पहुंच चुका है.

2014 में लोकसभा चुनाव से पहले अप्रैल में सेंसेक्स 22,194.51 से लेकर 22,939.31 के बीच घूता रहा. मई में 22,493.59 से लेकर अपने उच्चतम सूचकांक 25,375.63 के बीच आ गया. यह स्थिति मोदी के चुनाव जीतने के बाद रही. इससे साफ है कि बाजार को मोदी से काफी उम्मीद थी. लेकिन अब वह एक बार फिर से जनवरी के तीसरे सप्ताह में अपने सबसे निचले स्तर 23,834.76 पहुंच गया. कहते हैं तीसरे त्रिमाही में रिलायंस इंडस्ट्री के खराब प्रदर्शन का बड़ा प्रभाव शेयर बाजार पर पड़ा. इसके अलावा विदेशी निवेशकों द्वारा बाजार में की गयी बिकवाली जैसे और भी बहुत सारे कारण कारण गिनाए गए. ध्‍यान रहे बाजार ऐसी स्थिति मनमोहन सिंह के समय में भी आती रही है.

बहरहाल, जहां तक तेल की कीमत का सवाल है तो स्थिति मनमोहन सिंह के समय से अलग है. तेल के अंतर्राष्ट्रीय बाजार में ब्रेंट क्रूड सूचकांक में इस हफ्ते लगभग 2 प्रतिशत की गिरावट दर्ज हुई है और एक बैरेल तेल की कीमत 28.21 डौलर तक जा पहुंची है. सात साल पहले जो 133 डौलर प्रति बैरल हुआ करती थी. तेल की कम कीमत का लाभ केवल 10-12 प्रतिशत जनता तक पहुंच रहा है. रुपए के अवमूल्यन के बावजूद इसका ज्यादा फायदा तेल कंपिनयों को मिल रहा है. जाहिर है ये तेल कंपनियां अच्छे-खासे मुनाफे में खेल रही है.

वहीं रूपए का अवमूल्यन थम नहीं रहा है. लोकसभा चुनाव के दौरान मोदी की जीत की संभावना को देखते हुए भारतीय बौन्ड और शेयर बाजार में डौलर की बाढ़ आ गयी थी. जनवरी 2015 में देश में आए 8 अरब डौलर में से कम से कम 6 अरब डौलर सरकारी बौन्ड से आया था. पहले तो यह स्थिति रुपए की मजबूती का सबब बना. यहां यह ध्यान देदा जरूरी है कि भारतीय ब्याज दर बाकी दुनिया की तलना में काफी अच्छा है. कम अवधि वाले बौन्ड पर 8.5 प्रतिशत तक का रिटर्न दिया जाता है. लेकिन रुपए के अवमूल्यन के साथ बौन्ड से भारी लाभ की उम्मीद को झटका लगा. वहीं विदेशी निवेशकों को अच्छे ब्याज के साथ रुपए के अवमूल्यन से कम से कम 10 प्रतिशत का फायदा मिल रहा है. बताया जाता है कि विदेशी निवेशकों ने भारतीय बाजार से लगभग 70 करोड़ डौलर निकाल लिया है. अकेले जनवरी महीने में विदेशी निवेशकों ने साढ़े तीन हजार का शेयर बेचा.

वैसे फिलहाल विश्व अर्थव्यवस्था में आ रही गिरावट के लिए अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमत में गिरावट और सीरिया, इराक में चला रहे घमासान के मध्य-पूर्व देशों की अर्थव्यवस्था के साथ राजनीतिक अस्थिरता, चीनी सरकार द्वारा वहां की मुद्रा युआन का अवमूल्यन करने से विकवाली के दौर से वहां की अर्थव्यवस्था और मुद्रा बाजार में आयी अस्थिरता, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोश की ओर से वैश्विक अर्थव्यवस्था को कम करके आंकाना और विदेशी निवेशकों द्वारा अपने शेयर की बिक्री जैसे कारणों को इसके लिए जिम्मेवार बताया जा रहा है.

इसके अलावा दिसंबर 2015 में अमेरिका के फेडरल रिजर्व ने ब्याज दर 0.25 प्रतिशत जब बढ़ाया, तब बड़े पैमाने पर विदेशी निवेशकों में अपने शेयर को बेचना शुरू कर दिया. लगभग नौ सालों के बाद फेडरल रिजर्व ने ब्याज दर को बढ़ाया है. हालांकि कहते हैं कि अमेरिका ने यह बढ़ोत्तरी यह संकेत देने के लिए की है कि अमेरिका मंदी के दौर से उबर चुका है.  

मध्यपूर्व देशों की अर्थव्यवस्था और राजनीतिक अस्थिरता का जितना असर वैश्विक अर्थव्यवस्था पर जितना असर पड़ा रहा है, चीनी अर्थव्यवस्था में अस्थिरता का भी उतना ही असर देखा जा रहा है. गौरतलब है कि आईएमएफ ने चीन में 2016 में 6.3 प्रतिशत और 2017 में महज 6 प्रतिशत विकास दर में वृद्धि का अनुमान लगाया है. वहीं आईएमएफ ने वैश्विक अर्थव्यवस्था की मौजूदा में विकास दर में 0.2 प्रतिशत की गिरावट के बाद 3.4 प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया है. बताया जा रहा है कि आईएमएफ की अओर से की गयी इस घोषणा का भी एक हद तक बड़ा प्रभाव शेयर बाजार पर पड़ा है.

मनमोहन सिंह के समय में एक डौलर के मुकाबले रुपए का विनिमय दर 60-64 रू. के बीच उतर-चढ़ रहा था. इसके बाद मोदी सरकार जब सत्ता पर आयी तब एक डौलर की कीमत 58 रु. था और नरेंद्र मोदी ने कहा था कि भारतीय मुद्रा वेंटीलेशन पर चला गया है. आज डौलर के मुकाबले रुपया भी 28 महीने के सबसे निचले स्तर 68.07 रु. प्रति डौलर पर पहुंच गया. जाहिर है अब कांग्रेस के निशाने पर आ गयी है मोदी सरकार. आर्थिक विशेषज्ञों का भी यहीं मानना है कि मोदी जितना अधिक विदेश यात्रा कर रहे, भारतय बाजार से  विदेशी निवेश उतना ही बाहर निकल कर चला जा रहा है. वहीं महंगाई कम होने का नाम ही नहीं ले रही है. दाल से लेकर तेल क कीमत में उछाल की मार जनता को झेलनी पड़ रही है. कुल मिला कर लगने लगा है कि भाजपा का तमाम नारा वाकई जुमलों में तब्दील हो गया है. और भारतीय अर्थव्यवस्था मनमोहन सिंह के दौर पर एक बार फिर लौट रही है. भारतीय अर्थव्यवस्था मौजूदा दशा-दिशा एक हद तक – पुन: मूसिक: भवंति जैसी है. 

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...