गुलाबी सपनों का शहर, फैशन की राजधानी, साहित्य और कलाओं का महातीर्थ, उदार यूरोप का सब से उदार शहर, जहां जिंदगी जैसे नई हिलोरें भरती है. लेकिन कुछ दिन पहले उस शहर यानी पेरिस पर हुए आईएस के आतंकी हमले ने स्वप्न को दुस्वप्न में बदल दिया. 120 लोगों की मौत से फ्रांस की राजधानी पेरिस सन्न रह गई. वहां जब एक के बाद एक 7 धमाके हुए जिस से पूरा शहर ही नहीं, पूरा देश और पूरी दुनिया दहल गई.

पेरिस अभी शार्ली एब्दो पर हुए हमले की पीड़ा से उबरा भी नहीं था कि उस पर कुछ ही महीने बाद एक और बड़ा हमला हुआ. पहली प्रतिक्रिया में ही लोग दांत पीसते हुए इसलामी आतंक को जिम्मेदार ठहराने लगे थे जिस की तस्दीक थोड़ी देर में ही आईएसआईएस की मुनादी ने कर दी कि हां, हम ने किए हमले.

कट्टरवाद व पिछड़ेपन का दुश्चक्र

मजहब के नाम पर लोगों का सरेआम कत्ल करना और निर्दोषों की मौत का जश्न मनाना आतंकवाद का धर्म बना हुआ है.हमले के बाद से यूरोप में मुसलमान शरणार्थियों को पनाह देने के फैसले का विरोध शुरू हो गया. दरअसल, 2001 के बाद से दुनियाभर में मुसलमानों के प्रति नफरत की भावना बलवती होती जा रही है. यूरोप तो इसलामीफोबिया से ग्रस्त है. लोग कुछ सिरफिरे लोगों द्वारा किए गए नरसंहार और हिंसा के लिए आम मुसलमान को दोषी मानते हैं.

उन के बारे में यह आम है कि वे बहुत हिंसक और कट्टरवादी हैं जिस से आतंकवाद को बढ़ावा मिलता है. अपनी 1400 साल पुरानी धार्मिक पोथियों से चिपके हुए, उस जमाने के कानून को आज के जमाने में ज्यों का त्यों लागू करने की हिमायत करने वाले, आज भी 1400 साल पुरानी जिंदगी जीने की तमन्ना रखने वाले, उस के लिए गाहेबगाहे हिंसा का सहारा लेने वाले घोर कट्टरपंथी हैं.

तेज रफ्तार से बदलती जिंदगी जीने वाले पश्चिम को कट्टरवादियों से नफरत होने लगे तो अचरज कैसा. कट्टरवादियों की सब से बड़ी कमजोरी यह होती है कि वे किसी भी तरह के बदलाव को बरदाश्त नहीं कर सकते. किसी नए के लिए उन का मन तैयार ही नहीं होता. लेकिन जिंदगी तो निरंतर परिवर्तन का नाम है. जो रुक जाता है उस की प्रगति भी रुक जाती है. जिंदगी की दौड़ में वह पिछड़ जाता है. उन की कट्टरता उन्हें प्रगति की दौड़ में पीछे धकेल देती है. यही हो रहा है मुसलमानों के साथ.

कट्टरता ने मुसलिमों को दुनियाभर में पिछड़ा बना दिया है. इस का उलटा भी हो रहा है, चूंकि वे दुनिया में सब से ज्यादा पिछड़े हैं इसलिए वे कट्टर बनते जा रहे हैं. उन्हें नए से डर लगता है, इसलिए पुराने से चिपके रहते हैं. उन में यह भावना पनपती है कि वे पिछड़े इसलिए हैं क्योंकि वे अपने धर्म का ठीक से पालन नहीं कर रहे हैं और इसलिए वे धर्म के मामले में कट्टर होते जा रहे हैं. उन में तालिबान, आईएस, बोको हराम और अलकायदा जैसे धार्मिक कट्टरवादी संगठन उभर रहे हैं. इस तरह कट्टरवाद और पिछड़ेपन के दुश्चक्र में फंस गए हैं मुसलमान.

भारतीय मुसलमान इस के अपवाद नहीं हैं. सदियों तक इस देश में शासक रहने के बावजूद मुसलिम समुदाय देश के सब से पिछड़े समुदायों में से एक है. देश के मुसलिमों की दशा पर विचार करने के लिए बनी सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया था कि वे दलितों से भी ज्यादा पिछड़े हैं. इस के साथ ही, कमेटी ने उन की स्थिति को सुधारने के लिए कई सिफारिशें भी की थीं. तब मुसलमानों को लगा था कि सच्चर कमेटी किसी देवदूत की तरह है जो पिछड़ेपन के अंधेरे में विकास की रोशनी ले कर आई है. उस के बाद यह माहौल बना कि इस पिछड़ेपन के लिए भारत सरकार और भारतीय समाज का मुसलमानों के प्रति भेदभावपूर्ण नजरिया ही जिम्मेदार है. इस बात में थोड़ीबहुत सचाई है भी.

इस विषमता को मिटाने के लिए तब की मनमोहन सिंह सरकार ने अपना सारा खजाना खोल दिया था. तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि देश के संसाधनों पर पहला अधिकार मुसलमानों का है.

मुसलमानों के लिए विशेष उपाय योजना

बैंक कर्जों में 15 प्रतिशत कर्ज मुसलमानों को देने का प्रावधान, मुसलिम छात्रों को स्कौलरशिप आदि न जाने कितने विशेष उपाय किए गए थे लेकिन ये उपाय बेकार साबित हुए थे. मुसलमानों की स्थिति पर तब से लगातार बहस होती रही है. तब केंद्र में मुसलिमों की हमदर्द होने का दावा करने वाली कांगे्रस की सरकार थी लेकिन मुसलमानों की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ.

कुछ साफसाफ बात करने वाले लोगों का कहना है कि मुसलमान हैं ही पिछड़ी मानसिकता के. दुनियाभर के मुसलमान पिछड़े हैं. यही मानसिकता भारत के मुसलमानों को भी प्रभावित किए हुए है. मध्यपूर्व के देशों में मुसलिम ब्रदरहुड नामक इसलामी संस्था यह नारा लगाती है–इसलाम इज सोल्यूशन. लेकिन पश्चिमी देशों में बैठे इसलामी देशों के विशेषज्ञों को लगता है कि मामला उलटा है यानी इसलाम इज प्रौब्लम. मौलाना वहीदुद्दीन खान कहते हैं, ‘‘मुसलमान सारी दुनिया में पिछड़े हैं, केवल भारत में नहीं, अमेरिका, यूरोप और अन्य जगहों पर भी. ऐसा उन की अलगाववादी सोच के कारण है. उन पर अलगाववादी सोच सवार है. उन का विश्वास है कि उन्हें लगातार अपनी अलग सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखना है.’’

कई मुसलिम नेता कहते हैं कि इसलाम के संस्थापक पैगंबर मोहम्मद ज्ञानविज्ञान के पक्ष में बहुत थे. उन्होंने कहा था कि ज्ञान पाने के लिए चीन जाना पड़े तो जाओ. पता नहीं, मुसलमान कभी ज्ञान प्राप्त करने के लिए चीन गए या नहीं, लेकिन लड़ने के लिए भारत जरूर पहुंच गए क्योंकि इसलाम के मानने वालों का भरोसा कलम पर कम, तलवार पर कुछ ज्यादा ही रहा है. लेकिन आज का युग ज्ञानविज्ञान का युग है. सूचना का युग है, इसलिए आज सिकंदर वही है जो ज्ञानविज्ञान में अव्वल है. जो उस में पिछड़ गया वह पिछड़ ही जाता है.

मुसलमानों के पिछड़ेपन और कट्टरतावाद में एक पेंच है कि वे पुराने मूल्य, कानून और सोच से तो चिपके रहना चाहते हैं मगर लड़ने की नई तकनीक व हथियारों से उन्हें कोई परहेज नहीं है. यह तो वैसा ही है कि गुड़ खाए और गुलगुले से परहेज करे. सारी दुनिया में 57 मुसलिम देश हैं. इन में से कुछ देशों (सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, कुवैत, ईरान, तुर्की, इंडोनेशिया) की स्थिति काफी अच्छी मानी जाती है. कुछ देश तो अमीर माने जा सकते हैं पर उत्पादन के कारण नहीं, जमीन में दबे तेल के कारण. लेकिन बाकी मुसलिम देश गरीब और पिछड़े हैं. इस कारण पिछड़ापन उन की पहचान बन गया है. कुछ वर्ष पहले पाकिस्तान के स्वतंत्र पत्रकार डा. फारुक सलीम के एक लेख ने मुसलिम जगत को चौंका दिया. लेख के आंकड़े कुछ साल पुराने हैं लेकिन आज भी प्रासंगिक हैं. वे कहते हैं, ‘‘हालांकि दुनिया में कई मुसलिम देश काफी अमीर हैं लेकिन मुसलमान दुनिया के गरीबों में भी सब से गरीब हैं.’’

कई देश हैं जो अकेले इतना उत्पादन करते हैं जितना 57 मुसलिम देश मिल कर नहीं कर पाते. तेल के बूते अमीर बनने वाले देशों (सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, कतर) का मिला कर सकल घरेलू उत्पाद 430 बिलियन डौलर्स ही है. नीदरलैंड जैसे छोटे देश और बौद्ध धर्मावलंबी थाईलैंड का सकल घरेलू उत्पाद इस से कहीं ज्यादा है. दुनिया की 22 प्रतिशत आबादी मुसलिम है लेकिन सकल घरेलू उत्पाद में उन का योगदान 5 प्रतिशत का है. चिंता की बात यह है कि यह प्रतिशत भी लगातार गिरता जा रहा है. दुनिया के जो 9 सब से ज्यादा गरीब देश हैं उन में से 6 मुसलिम देश हैं.

साक्षरता का अभाव

फारुक सलीम ने संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्था यूएनडीपी द्वारा जुटाए गए आंकड़ों के आधार पर ईसाई और मुसलिम देशों की शिक्षा की स्थिति की तुलना की. 15 ईसाई बहुल देश ऐसे हैं जहां साक्षरता 100 प्रतिशत है. मगर एक भी मुसलिम देश ऐसा नहीं है जहां साक्षरता 100 प्रतिशत हो. मुसलिम बहुल देशों में औसत साक्षरता 40 प्रतिशत के नजदीक है. ईसाई देशों में 40 प्रतिशत ने कालेज शिक्षा भी ली है जबकि मुसलिम देशों में यह आंकड़ा केवल 2 प्रतिशत का है. फारुक सलीम इस के आधार पर निष्कर्ष निकालते हैं कि मुसलिम देशों में ज्ञान पैदा करने की क्षमता का ही अभाव है. ऐसे में वे ज्ञानविज्ञान की प्रगति में कहीं शामिल हैं ही नहीं.

मुसलिम देशों की जनता साक्षरता में बहुत पीछे है, इसलिए ज्ञान और सूचनाओं का प्रचार करने वाले अखबारों व किताबों के मामले में भी वे बहुत पीछे हैं. पाकिस्तान के कायदेआजम विश्वविद्यालय में 3 मसजिदें हैं, चौथी बनने वाली है लेकिन वहां किताबों की कोई दुकान नहीं है. यह इस बात का प्रतीक है कि शिक्षा का उद्देश्य केवल कोर्स की किताबों को रटना भर है न कि आलोचनात्मक दृष्टि पैदा करना. सऊदी अरब की सरकार के स्कूलों में जो कुछ किताबें पढ़ाई जाती हैं उन से यही पता नहीं चलता कि धर्म की किताबें हैं या विज्ञान की, जैसे एक किताब का नाम है–‘अन चैलेंजिएबल मिरेकल औफ द कुरान’ या ‘द फैक्ट्स दैट कैन नौट बी डिनाइड बाय साइंस’.

किसी देश द्वारा किए गए निर्यात में उच्च तकनीक उत्पादों का कितना हिस्सा है, यह पैमाना होता है कि कोई देश ज्ञानविज्ञान का कितना इस्तेमाल कर पा रहा है. पाकिस्तान के निर्यात में उच्च तकनीक उत्पादों का हिस्सा एक प्रतिशत है तो कुवैत, मोरक्को, अल्जीरिया और सऊदी अरब आदि मुसलिम देशों में यह आंकड़ा 0.3 प्रतिशत है. दूसरी तरफ सिंगापुर में यह आंकड़ा 57 प्रतिशत का है. इस से स्पष्ट है कि मुसलिम देश विज्ञान के व्यावहारिक प्रयोग या तकनीकी क्षेत्र में प्रयोग में कहीं है ही नहीं. नोबेल पुरस्कार भी किसी देश या समाज की वैज्ञानिक प्रगति को नापने का पैमाना होता है. अब तक केवल 2 मुसलिम वैज्ञानिकों को नोबेल पुरस्कार मिले हैं मगर दोनों ही ने अपनी उच्चशिक्षा पश्चिमी देशों में पाई है. दूसरी तरफ यहूदी, जिन की आबादी दुनिया में मात्र 1 करोड़ 40 लाख है, अब तक 15 दर्जन नोबेल पुरस्कार जीत चुके हैं.

मुसलिम देशों के पिछड़ेपन के बारे में ये चौंकाने वाले आंकड़े देख कर डा. फारुक सलीम सवाल उठाते हैं कि मुसलिम गरीब, निरक्षर और कमजोर हैं. आखिर क्या गलत हो गया? फिर वे खुद ही जवाब देते हैं कि हम पिछड़े इसलिए हैं क्योंकि हम ज्ञान का निर्माण नहीं कर रहे. हम ज्ञानविज्ञान को अमल में लाने में भी नाकाम रहे हैं. जबकि आज का युग सूचना और ज्ञान का युग है.

इन सारे कारणों से मुसलिम देशों में ज्ञान पर आधारित समाज बनने की संभावना दूरदूर तक नजर नहीं आती. इस की पहली शर्त है शिक्षा व ज्ञान के प्रति जिज्ञासा जिस का मुसलिम समाज में घोर अभाव है. ये तथ्य बात की ओर इंगित करते हैं कि मुसलिम केवल भारत में ही नहीं, दुनियाभर में सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक तौर पर पिछड़े हैं. भारत पर दोष मढ़ा जाता है कि यहां की सरकार मुसलमानों से भेदभाव करती है लेकिन उन 57 मुसलिम देशों का क्या? यहां तो मुसलिम सरकारें हैं, फिर मुसलिम शिक्षा में पिछड़े क्यों हैं. इसलिए भारतीय मुसलमानों के पिछड़ेपन के लिए केवल भारतीय समाज और भारत सरकार को दोषी ठहराना बेकार है.

दरअसल, सच्चर कमेटी को भारतीय मुसलमानों के पिछड़ेपन के कारणों का भी पता लगाना चाहिए था, साथ ही साथ, इस बात पर भी गौर करना चाहिए था कि क्यों मुसलमान दुनियाभर में पिछड़े हैं. कहीं

उन की विशिष्ठ धार्मिक सोच, धर्मांधता, रीतिरिवाजों का कट्टरपन, मुल्लामौलवियों का शिकंजा इस पिछड़ेपन की वजह तो नहीं?

इसलाम के कुछ जानकारों का कहना है कि मुसलमानों में अपने हर सवाल के जवाब अपने धर्मग्रंथों में खोजने की आदत पड़ी हुई है जो उन की जिज्ञासा को कुंठित कर देती है. उन्हें यह गलतफहमी है कि उन की हर जिज्ञासा का जवाब कुरान व हदीस में मौजूद है. फिर पढ़नेलिखने की जरूरत क्या है.

ज्ञानार्जन की घटती प्रवृत्ति

इसलामी धर्मशास्त्र के मुताबिक, इसलाम के पूर्व का युग अज्ञान और अंधकार का युग रहा है, इसलिए उस से कुछ लेने का सवाल ही नहीं उठता. इसलाम खुद कोई ज्ञानविज्ञान कभी पैदा नहीं कर सका. दूसरे धर्मों द्वारा पैदा किए गए ज्ञानविज्ञान को वह कभी बरदाश्त नहीं कर पाया. यही वजह है कि मुसलिम आक्रांताओं ने कई विश्वविद्यालयों को नेस्तनाबूद कर दिया. उन के ग्रंथालयों को जला डाला. मुसलमान तो इस देश में 7 सदियों तक शासक रहे और काफी लूटखसोट की मगर उस से महल बनवाए, मकबरे बनवाए लेकिन उच्चशिक्षा का कोई संस्थान नहीं बनवाया. अगर उन के नाम पर दर्ज हैं तो कुछ इसलामी शिक्षा देने वाले संस्थान.

मुसलमान आज बाकी समुदायों की तुलना में पिछड़े हैं तो इसलिए कि वे शिक्षा में पिछड़े हैं. वे अपने शैक्षणिक पिछड़ेपन की कीमत चुका रहे हैं और इस के लिए पूरी तरह से मुसलमान ही दोषी हैं. मुसलिम उलेमाओं ने कई फतवे जारी कर दावा किया है आधुनिक शिक्षा गैर इसलामी है. यह मुसलिमों के पिछड़ेपन का कारण है. उलेमाओं के प्रभाव में मुसलिम मानते हैं कि असली शिक्षा धार्मिक शिक्षा ही है. इसलिए सब से पहले मुसलमानों को इस बात के प्रति जागरूक बनाना होगा कि आधुनिक शिक्षा महत्त्वपूर्ण है.

कई विद्वान मानते हैं कि मुसलमानों में ज्ञानार्जन की घटती प्रवृत्ति ही उन के आर्थिक और राजनीतिक पतन का मुख्य कारण है. मलयेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद ने विश्व मुसलिम संगठन की बैठक में मुसलिमों को बहुत सही सलाह दी थी कि मुसलमानों को अपनी रूढि़वादिता छोड़ कर नए समय में नई पहचान बनानी चाहिए क्योंकि सामाजिक परिस्थितियां अब बदल चुकी हैं. मुसलमानों को यह याद रखने की जरूरत है कि आज के वैज्ञानिक विकास से परिभाषित विश्व में किसी भी देश की इज्जत और शक्ति उस की जनसंख्या पर आधारित नहीं है. आज के विश्व में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विकास ही शक्ति, इज्जत और संसाधनों की गारंटी है.

ऐसे कई उदाहरण हैं जहां अधिक जनसंख्या के साथ आर्थिक पिछड़ापन और कम सामरिक सामर्थ्य है. यहूदी देश इसराईल को देखिए, छोटा सा देश पूरे अरब पर हावी रहता है. ऐसा इसलिए है क्योंकि यह एक आर्थिक, सामरिक और वैज्ञानिक रूप से समृद्ध देश है, जिस के सामने पिछड़ेपन के शिकार अरब देशों को झुकना पड़ता है, हार मान लेनी पड़ती है. एक तरफ वे मुसलमान हैं जो आज पश्चिमी देशों में रहते हैं और अपनी समृद्धि से खुश हैं. जबकि वहीं वे मुसलमान भी हैं जो मुसलिम बाहुल्य देशों के बाशिंदे हैं और आर्थिक रूप से पिछड़ेपन में डूबे हुए हैं. यूरोप में रहने वाले 2 करोड़ मुसलमानों की आय पूरे भारतीय महाद्वीप के 50 करोड़ मुसलमानों से अधिक है.

कर्मकांडों में समय की बरबादी

पिछले दिनों अभिनेता नसीरुद्दीन शाह के भाई और अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय के उपकुलपति जमीरुद्दीन शाह ने बहुत पते की बात कही कि मुसलमान अपनी सामाजिक हालत के लिए खुद ही दोषी हैं. वे नमाज और रमजान महीने के कर्मकांडों पर बहुत समय बरबाद करते हैं. इस के अलावा वे अपनी आधी आबादी यानी औरतों का उत्पादन में कोई इस्तेमाल नहीं करते, जिन को उन्होंने घरों में गुलाम बना कर रखा है. अपना सऊदी अरब का अनुभव बताते हुए उन्होंने कहा कि वहां भी यही हालात हैं. औरतों को घरों में कैद कर के रखा जाता है. ये हालात सारी मुसलिम दुनिया के हैं. इस कारण मुसलिम देश पिछड़े हुए हैं. रमजान के दिनों में वे काम नहीं करते. सामान्य दिनों में वे ढाई घंटा काम नहीं करते. शुक्रवार के दिन तो बहुत सारा समय नमाज पर खर्च कर देते हैं. इस के बाद बाकी विश्व का वीकेंड आ जाता है. शिक्षा को तो उन्होंने छोड़ दिया है. किसी गैर इस्लामी देश में कोई धार्मिक भेदभाव नहीं है लेकिन इस के बावजूद मुसलमान अवसर न मिलने का रोना रोते रहते हैं. मुसलिम समुदाय उस भेदभाव का रोना रोता है जो असल में है ही नहीं.

वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक जफर आगा कहते हैं, ‘‘मुसलमान उस दकियानूसी सोच के भी शिकार हुए जिसे उन के उन्हीं उलेमाओं ने पोषित किया और आगे बढ़ाया जो आधुनिकता को गैर इसलामी मानते हैं. यह वह खौफ था जो 19वीं सदी में ब्रिटिश औपनिवेशिक हुकूमत से मुसलमानों की पराजय के बाद सामने आया.’’

1857 के बाद मुसलिम नेतृत्व ने उभरती हुई पश्चिमी सभ्यता और नई तकनीक को अपनी तहजीब पर हुए हमले के तौर पर लिया. उन्हें इस से इसलाम और मुसलमानों के अस्तित्व पर खतरा मंडराता दिखाई दिया. यह वह सोच थी जो मदरसों से उभरी. इस सोच ने पश्चिमी ईसाई और पूरब के इसलाम के बीच जारी तहजीबों में मानसिक टकराव का रूप ले लिया. मुसलिम धार्मिक नेतृत्व पश्चिमी सभ्यता से बहुत ज्यादा नफरत करने लगा.

19वीं व 20वीं सदी के आरंभ में उन्होंने मुसलमानों को यह नसीहत देनी शुरू कर दी कि वे आधुनिक शिक्षा, विज्ञान, आधुनिक उद्योग, राजनीति और आधुनिक औद्योगिक अर्थव्यवस्था से दूरी बना लें. मुसलिम नेतृत्व ने फतवों के जरिए मुसलमानों से अपील की कि वे पश्चिमी सभ्यता पर आधारित आधुनिकता को सिरे से नकार दें. इस दौरान सर सैय्यद अहमद खां एकमात्र समाजसुधारक थे जिन्होंने आधुनिक शिक्षा, विज्ञान और वैज्ञानिक सोच की आवश्यकता पर बल दिया.

संकीर्ण सोच के शिकार

दुख की बात यह है कि नेताओं को मुसलमानों के नेतृत्व और भद्रलोक को इस दारुण त्रासदी का कोई एहसास ही नहीं है. वे मुसलमानों में आधुनिक शिक्षा के प्रसार के बजाय उन की धार्मिक अस्मिता से संबंधित सवालों, मदरसे के परंपरागत चरित्र को बनाए रखना, अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय के मुसलिम चरित्र की रक्षा और बाबरी मसजिद जैसे सवालों में ही उलझे रहे और शिक्षा का मसला हाशिये पर चला गया. अगर पश्चिमी एशिया में तेल के कुएं न हों तो इन देशों की हालत अफ्रीका के गरीब देशों जैसी होती.

यही बात भारतीय संदर्भ में बहुत बेबाकी के साथ मौलाना वहीदुद्दीन खान कहते हैं, ‘‘मेरा मुसलमानों के लिए 2 सूत्री कार्यक्रम है. एक, वे बड़े पैमाने पर शिक्षा को अपनाएं. शिक्षा से मेरा मतलब है सैकुलर शिक्षा. यह बेहद महत्त्वपूर्ण है. दूसरा, समुदाय पर आधारित सोच को छोड़ वे देश के बारे में सोचें, अपने और अपने संकीर्ण स्वार्थों के बजाय सारे देश के बारे में सोचें.’’ दरअसल, मौलाना की बातों में काफी दम है. आधुनिक शिक्षा और उस से निकली आधुनिक सोच ही ऐसे जहाज हैं जो मुसलिमों का बेड़ा पार लगा सकते हैं.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...