स्वच्छ भारत अभियान के तहत शौचालय को ले कर देशभर में खूब चर्चा है. एक पक्ष इस को ले कर वाहवाही लूट रहा है, नित नए दावे और आंकड़े पेश कर रहा है तो दूसरा पक्ष इन दावों की कलई खोलने में जीजान से लगा हुआ है. साथ ही, वह इस अभियान के बहाने लगाए गए टैक्स की आलोचना कर रहा है. इन सब के बीच, मानवता को शर्मसार करने वाली सिर पर मैला ढोने की प्रथा का कहीं कोई जिक्र तक नहीं हो रहा है. जबकि इस प्रथा को खत्म करने का कागजी अभियान काफी पुराना है. आजादी के बाद 1948 में इसे खत्म करने की मांग पहली बार हरिजन सेवक संघ की ओर से उठाई गई थी. तब से ले कर अब तक, इस प्रथा को खत्म करने की जबानी कोशिश बहुत हुई है. कानून बने, लेकिन सब धरे के धरे रह गए हैं. यह प्रथा खत्म होने का नाम नहीं ले रही है.

दुनिया के सब से बडे़ लोकतंत्र में यह प्रथा एक कलंक है. बड़े शर्म की बात है कि एक तरफ जब दुनिया की सब से बड़ी अर्थव्यवस्था इस समय मंदी की मार झेल रही है और दूसरी तरफ सरकारी दस्तावेजों में ही सही, भारत ने एक सम्मानित विकास दर को प्राप्त कर लिया है और विदेशी निवेशकों के लिए हमारा देश लाभकारी बन गया है, तब भी इस देश में यह देखना कि एक विशेष समुदाय के लोग मैला अपने सिर पर ढोने के लिए अभिशप्त हैं, बेहद दुखद है.

2 अक्तूबर, 2014 को स्वच्छ भारत अभियान की घोषणा के साथ झाड़ू को तो इतना अधिक प्रचार मिला कि दिल्ली की सत्ता अरविंद केजरीवाल के हाथ लग गई. यह और बात है कि स्वच्छ भारत अभियान शुरू होने और केजरीवाल के सत्ता पर काबिज होने के बाद देश की राजधानी दिल्ली में कुछ ज्यादा ही कचरा फैला. अभियान शुरू होने के साथ समयसमय पर सूखे पत्ते बटोर कर स्वच्छ अभियान में शामिल होते प्रधानमंत्री समेत छुटभइए नेता तसवीरों में खूब कैद हुए लेकिन किसी का भी ध्यान इस ओर नहीं गया कि हजारोंहजार सालों से हमारे ही देश में कुछ लोग पीढ़ी दर पीढ़ी सिर पर मैला ढो रहे हैं, पाखाने को हाथों से उठा रहे हैं, सैप्टिक टैंक में कमर तक डूब कर सफाई कर रहे हैं. यह राष्ट्रीय शर्म नहीं है? स्वच्छ भारत अभियान के बावजूद अछूता रहा यह मुद्दा अभियान के मुंह पर क्या झन्नाटेदार तमाचा नहीं है?

वर्णव्यवस्था के साथ सदियों से यह परंपरा चली आ रही है. नारद संहिता और वाजसनेयी संहिता के अनुसार, दलितों के जिम्मे यह काम सौंपा गया है. इस के बाद बौद्ध व मौर्यकाल में भी यह परंपरा रही है. 1556 ईसवी में मुगलकाल में जहांगीर ने दिल्ली से लगभग 120 किलोमीटर दूर अलवर में 100 परिवारों के लिए एक सार्वजनिक शौचालय बनवाया था. लेकिन वहां मानव मैला का निबटारा कैसे किया जाता था, इस का विस्तृत ब्यौरा नहीं मिला है. कुछ इतिहासकारों का मानना है कि वहां भंगी मैला ढोते थे. ब्रिटिश भारत के म्यूनिसिपल रिकौर्ड के अनुसार भी मल का निबटारा भंगी या मेहतर द्वारा होता था.

मैला ढोने का चलन

दुख की बात है कि आज भी यह परंपरा बदस्तूर जारी है. विभिन्न राज्यों में आज भी शुष्क शौचालय उपयोग में होता है. इन शौचालयों में पाखाना उठाने का काम इंसान करते हैं, वह भी हाथों से झाड़ू के जरिए. झाड़ू, बाल्टी और पैन के अलावा कोई विशेष उपकरण उन के पास नहीं होता है. उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पंजाब के गांवदेहात में आज भी पाखाना सिर पर ढो कर ले जाने का चलन है.

हालांकि आजादी के बाद 1948 में महाराष्ट्र हरिजन सेवक संघ ने मैला ढोने की प्रथा का पहली बार विरोध करते हुए इसे खत्म करने की मांग की थी.

1949 में बर्वे समिति ने सफाईकर्मियों के लिए काम के माहौल में सुधार की सिफारिश की थी. अगर राज्यों की बात की जाए तो पहली बार 1950 में तमिलनाडु के गोबिचेट्टीपलयाम म्युनिसिपल्टी के चेयरमैन व स्वतंत्रता सेनानी जी एस लक्ष्मण अय्यर ने इस पर प्रतिबंध लगाया था. इस के बाद 1957 में एक अन्य समिति ने भी सिर पर मैला ढोने की प्रथा को खत्म करने की सिफारिश की. 1968 में राष्ट्रीय श्रम आयोग ने एक समिति का गठन किया, जिस के जिम्मे झाड़ूदार और मैला ढोने वाले के कामकाज के माहौल की जांच का काम था. इन तमाम संगठन और समितियों ने सिर पर मैला ढोने की प्रथा को खत्म करने की मांग व सिफारिश की थी.

बहरहाल, 2001 के सरकारी आंकड़ों के अनुसार, इन शुष्क शौचालयों की सफाई के काम में तब लगभग 7 लाख लोग लगे हुए थे, जबकि गैर सरकारी आंकड़ा 12 लाख बताता है. लेकिन 2011 की जनगणना के आंकड़े की मानें तो 10 सालों के बाद हमारे देश के 13 लाख लोग सिर पर मैला ढोने और अस्थायी शौचालयों की सफाई के काम में लगे हुए हैं.

उन से इस तरह का काम कराया जाना अनुसूचित जाति व जनजाति (अत्याचार प्रतिरोध) कानून के तहत भी अपराध करार दिया गया है. 1993 में नरसिम्हा राव सरकार में शहरी विकास मंत्रालय ने सिर पर मैला ढोने के रोजगार और शुष्क शौचालय निर्माण (निवारण) कानून को पारित किया. इस का उल्लंघन किए जाने पर 1 साल के लिए जेल या 2 हजार रुपए का जुर्माना या दोनों का प्रावधान किया गया था. केंद्र सरकार की ओर से सफाई कर्मचारी राष्ट्रीय आयोग का भी गठन किया गया. उसी साल सफाई कर्मचारियों और उन के परिजनों के लिए पुनर्वास योजना की भी घोषणा की गई. योजना के कार्यान्वयन का दायित्व सामाजिक न्याय व आधिकारिता मंत्रालय पर था.

बहरहाल, 2003 की कैग रिपोर्ट के अनुसार, 16 राज्यों ने उक्त कानून को अपने यहां मान्यता दी. लेकिन किसी ने इसे लागू नहीं किया. महज 6 राज्यों ने अपने यहां हर्जाने का कानून लागू किया. 2002-07 तक की 10वीं पंचवर्षीय योजना में मैला ढोने की प्रथा को खत्म करने का लक्ष्य निर्धारण किया गया था. कैग रिपोर्ट के अनुसार, 600 करोड़ रुपए व्यय किए जाने के बाद भी परियोजना अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाई. इस की वजह सामाजिक जटिलता को बताया गया.

17 जून, 2011 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इस पेशे को भारत की विकास की प्रक्रिया में एक धब्बा बताते हुए अगले 6 महीनों में इस प्रथा को खत्म करने का वादा किया था, जो पूरा नहीं हुआ. 10 सितंबर, 2011 को तमिलनाडु विधानसभा में सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव आया, जिस में कहा गया कि पुराना कानून कमजोर ही नहीं, उस में बहुत तरह की खामियां हैं. इसीलिए केंद्र को एक नया और पुख्ता कानून बनाना चाहिए, जो देश के सभी राज्यों को मान्य हो.

इस के बाद 12 मार्च, 2012 को तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने संसद में कहा कि सरकार मैला ढोने और मैला की सफाई को ले कर 2 नए कानून ले कर आएगी, जिन में समाज के इन लोगों के लिए पुनर्वास और वैकल्पिक सम्मानित रोजगार का प्रावधान होगा. गौरतलब है कि 1993 में पारित हुए कानून में केवल मैला ढोने वालों को ही शामिल किया गया था. लेकिन 2012 के नए कानून में शुष्क शौचालय, खुली नालियों, रेललाइन से मैला उठाने वालों, सैप्टिक टैंक की सफाई करने वालों को शामिल कर इस कानून को विस्तृत और व्यापक बनाने की कोशिश की गई.

मनमोहन सिंह की यूपीए-2 सरकार ने मैला ढोने का रोजगार निवारण और पुनर्वास अधिनियम 2013 पारित किया. चूंकि यह मामला केंद्र व राज्य दोनों का है इसीलिए इस से संबंधित अधिसूचना तमाम राज्यों को भी भेज दी गई.

इस कानून के तहत ऐसे शौचालय के निर्माण करने पर या किसी से इस तरह के काम ले कर पहली बार कानून का उल्लंघन करने पर 2 साल की सजा या 2 लाख रुपए का जुर्माना या दोनों दिए जाने का प्रावधान है. फिर से इस के उल्लंघन पर 5 साल की सजा या 5 लाख रुपए का जुर्माना भरने या जेल व जुर्माना दोनों दिए जाने का प्रावधान है.

यह गैर जमानती कानून है. इस के अलावा, आर्थिक मदद के साथ आवास सुविधा और बच्चों को छात्रवृत्ति, अन्य कोई पेशा अपनाने के लिए कर्ज व प्रशिक्षण दे कर उन के पुनर्वास का भी प्रावधान किया गया. लेकिन विडंबना यह है कि सरकारी महकमे में इतना भ्रष्टाचार है कि सरकारी योजनाओं का लाभ उठाने के लिए लोग आगे आते ही नहीं हैं.

नतीजतन, 1993 में और फिर 2013 में बनाए गए कानून के तहत सिर पर मैला ढोने की प्रथा पर कानूनन प्रतिबंध के बावजूद आज की तारीख में भी यह प्रथा देश के विभिन्न हिस्सों में बदस्तूर जारी है. पिछले 22 सालों में इस कानून के तहत किसी को सजा नहीं हुई है. शायद 13 लाख लोगों का मुद्दा राष्ट्रीय मुद्दा नहीं बन पाया है. यही जमीनी हकीकत है.

दलित समाज की पीड़ा

दलितों की राजनीति कर के अपना राजनीतिक कैरियर संवारने वाले नेता इस बात से बाखबर हैं कि इस काम में दलित समुदाय के लोग ही लगे हुए हैं. इस पर भी, उन में से लगभग 80 प्रतिशत दलित महिलाएं हैं जो यह काम कर रही हैं. वहीं, केंद्र सरकार आंखें मूंदे स्वच्छ भारत अभियान में अपना ध्यान केंद्रित किए हुए है. जाहिर है ईमानदार कोशिश के अभाव में सरकारी अभियान तसवीरों, पोस्टरों और नारों तक सिमट कर रह गया है और इस प्रथा के खिलाफ बना कानून आज केवल कागजों का पुलिंदा बन कर रह गया है.

बहरहाल, इस समस्या के कई पक्ष हैं. एक, देश में इस प्रथा के खिलाफ समयसमय पर कानून बने, सरकारी योजनाओं की घोषणाएं की गईं लेकिन इन का ठीक तरीके से क्रियान्वयन नहीं हो पाया. दो, हमारी जातिपांति और भेदभाव की मानसिकता नहीं बदली है. जब तक समाज की मानसिकता नहीं बदल जाती तब तक न तो इस प्रथा को खत्म किया जा सकता है और न ही कानून और तमाम सरकारी योजनाओं का लाभ उन्हें मिल पाएगा. तीन, जातिपांति की इसी सामाजिक मानसिकता का लाभ राजनीतिक पार्टियां और नेता उठाते हैं. इस मानसिकता के चलते वे अपना वर्तमान व भविष्य चमकाने में लगे हुए हैं. दलित राजनीति के बल पर नेता केवल सत्ता ही नहीं हासिल करते हैं, बल्कि सत्ता पर काबिज होने के बाद अपनी मूर्तियां लगाने में लग जाते हैं. इस से दलितों का भला कहां हो पाता है. जाहिर है मानवता पर लगे इस धब्बे को मिटाने के लिए इस मुद्दे पर जमीनी स्तर पर ईमानदारी के साथ काम करने की जरूरत है.

1917 में महात्मा गांधी के निर्देश पर साबरमती आश्रम के निवासियों ने खुद अपने शौचालयों की सफाई की. इसीलिए मोदी सरकार ने 2 अक्तूबर, 2014 को 5 साल तक के लिए स्वच्छ भारत अभियान शुरू किया और इस में समाज के सभी स्तर के लोगों के सक्रिय सहयोग का प्रयास किया. लेकिन इस अभियान में कहीं भी सिर पर मैला ढोने वालों का कोई जिक्र नहीं है. यह अभियान केवल सफाई, शौचालय निर्माण और निकासी पर केंद्रित हो कर रह गया है. स्वच्छ भारत निर्माण अभियान के तहत इस अमानवीय प्रथा को भी शामिल किया जाना चाहिए. अगर मोदी सरकार की नीयत वाकई साफ है तो 5 साल क्या, अगले 2 साल में इस अमानवीय प्रथा को समूल खत्म किया जाना संभव है. वरना तो आजादी के 6 दशक के बाद भी हजारोंहजार परिवार समाज के निचले स्तर का जीवन जीने को मजबूर हैं. हां, यह प्रथा हमारे देश के लिए राष्ट्रीय लज्जा है. इसे खत्म होना ही चाहिए.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...