आमतौर पर साहित्य अकादमी जैसी सरकारी संस्थाओं से जुड़े साहित्यकारों के प्रति धारणा रहती है कि वे सरकारी नीतियों के समर्थक होते हैं पर जिस तरह एकएक कर के लगभग 50 साहित्यकारों ने साहित्य के नाम पर मिले पुरस्कारों को लौटाया है उस से यह संतोष होता है कि देश में विचारों की स्वतंत्रता की रक्षा करने वाले मौजूद हैं भारतीय जनता पार्टी की चुनावी विजय के साथ यह अंदेशा तो था ही कि धार्मिक प्रचारप्रसार के साथ आलोचना करने वालों का मुंह बंद किया जाएगा क्योंकि यह पार्टी केवल सरकार चलाने के लिए नहीं गठित हुई थी. भारतीय जनता पार्टी शुरू से ही शास्त्रीय हिंदू धर्म की पुनर्स्थापना करने का दावा करती रही है. उस का आदर्श वह रामराज्य है जिस में राजा चुना नहीं जाता था, पैदा होता था व जिस में राजा के तीरों की कम जबकि ब्राह्मणों, ऋषियों, मुनियों की ज्यादा चलती थी. रामायण व महाभारत यज्ञों के बखानों से ज्यादा भरे हैं बजाय सुशासन के, जिस का नारा दे कर 2014 का चुनाव जीता गया था.

स्पष्ट बात है कि 2014 की विजय को भारतीय जनता पार्टी अपनी धार्मिक विजय मानती है. धर्म को थोपने के लिए विधर्मी और अधर्मी दोनों को शत्रु मान सकती है. वह धर्म के खिलाफ ही नहीं बल्कि सामाजिक कुरीतियों, पाखंडों, अंधविश्वासों, चंदा जमा करने वालों के खिलाफ बोलने व मंदिरों के अतिक्रमणों तक की बात करने वालों को धर्मविरोधी मान सकती है. वह सोचती है कि उस के पास पोप के वे सब अधिकार हैं जिन को पोपों ने यूरोप में प्रोटैस्टैंट क्रांति से पहले लागू किया था और जनता को तो छोडि़ए राजाओं तक को अपनी उंगलियों पर नचाया था. यहां पोपशाही नहीं है पर उस जैसा माहौल बनाने की भरसक कोशिश की जा रही है. पाखंड विरोधियों, गोमांस, मंदिर निर्माण को ले कर मुंह बंद करने के जो प्रयास किए जा रहे हैं वे पोपशाही जैसी व्यवस्था की स्थापना के उद्देश्य से हैं.

साहित्यकारों का विरोध स्वाभाविक व आवश्यक है. वे जानते हैं और समझते हैं कि चंद लोगों के चलते आने वाला परिवर्तन देश को तालिबानी बना देगा. गांवगांव में धर्म के नाम पर ही नहीं, जाति के नाम पर भी लाइनें खिंच जाएंगी. इसलामी व ईसाई कट्टरता ने न केवल विधर्मियों के नरसंहार को समर्थन दिया, स्वधर्मियों को भी मारने में हिचकिचाहट नहीं दिखाई. समाज ने बड़ी कठिनाइयों से औरतों के बराबरी के अधिकारों, दलितों से भेदभाव में कमी, गरीबीअमीरी की खाई को कम किए जाने जैसे मुकाम हासिल किए हैं तो इसलिए कि साहित्य ने राजा व धर्म के गुणगान के स्थान पर फैली गंद को समाप्त करना पहला उद्देश्य माना. आज की सरकारें और उन से ज्यादा गलीगली फैले उन के अंधभक्त इस सुधार को समाप्त कर के न केवल विधर्मियों का बल्कि महिलाओं, स्वतंत्र विचारकों और किसी भी तरह की पोल खोलने वालों का भी मुंह तोड़ कर अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहते हैं. साहित्यकार कोई फौज तो तैयार नहीं कर सकते, वे अगर विरोध में पुरस्कार व सम्मान लौटा ही दें तो यह ही बेहद प्रशंसनीय है.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...