अकसर हम असम को केवल बोडो समस्या के लिए याद करते हैं, लेकिन इस के अलावा भी वहां बहुतकुछ है. असम के इन्हीं बोडोलैंड इलाकों की बोडो बुनकरों ने अपने हुनर से नई इबारत लिखनी शुरू कर दी है.

असम की इन आदिवासी बोडो औरतों ने बुनकरी की कला के जरीए अपने हाथों का हुनर दुनिया के सामने पेश किया है. असम के चिरांग जिले के रौमई गांव की इन बुनकरों के बनाए कपड़ों की पहचान सात समंदर पार तक है. बोडो बुनकरों के हाथों से बने ये कपड़े केवल कपड़े ही नहीं हैं, बल्कि उन हजारों बोडो औरतों का जुनून है, जो उन्हें अपने दम पर कुछ करने की ओर आगे बढ़ा रहा है.

लेकिन अफसोस की बात यह है कि दुनियाभर की औरतों के लिए साड़ी बुन रहीं ये असमिया औरतें अपना तन भी पूरी तरह से नहीं ढक पाती हैं.

इन बुनकरों के बनाए कपड़े आज अमेरिका, जरमनी और दुबई में बड़ी तादाद में बिक रहे हैं. इन के द्वारा संचालित सब से बड़ा शोरूम बेंगलुरु में खोला गया है. असम में भी कई छोटेछोटे स्टोर चलाए जा रहे हैं. कच्चा माल बेंगलुरु से असम आता है और रंगाई तमिलनाडु में होती है. हालांकि अब असम में ही रंगाई शुरू करने की कोशिशें की जा रही हैं.

कपड़ों पर गंवई सभ्यता

इन औरतों द्वारा बनाई जा रही साडि़यों के डिजाइनों में गांवदेहात की सभ्यता बेहद खूबसूरती से झांकती है. इन में मोर, पत्तियां, कछुए की आकृति जैसे डिजाइन सब से ज्यादा पसंदीदा माने जाते हैं.

तकरीबन 3 सौ से ज्यादा बुनकरों के कपड़ों का यह कारोबार सालाना एक करोड़ रुपए तक पहुंच गया है. खास बात यह भी है कि तकरीबन 3 मीटर का दुकना यानी साड़ी जैसा कपड़ा पहनने वाली ये बुनकर अपने ठेठ और आदिवासी अंदाज को भूलती नहीं हैं.

एक ही मंत्र ‘सहकारिता’

ये बुनकर औरतें सहकारिता के मूल मंत्र को ले कर काम कर रही हैं. रौमई गांव के पास बड़े कसबे बोंगाईगांव के सुदूर गांवदेहात के इलाकों में भी ये औरतें अपने घरों पर ही कपड़ा बनाती हैं. जिस औरत के यहां काम हो रहा होता है, उस की मदद के लिए दूसरी औरतें भी वहां पहुंच जाती हैं.

देशी तकनीक

देशी तकनीक से बनी मशीनों पर धागा और साड़ी बुनने के काम के लिए ये औरतें 7-8 हजार रुपए महीने तक कमा लेती हैं. अमूमन, एक औरत का टारगेट 30 मीटर साड़ी या दूसरा कपड़ा बुनने का होता है. अगर कोई औरत

30 मीटर की साड़ी तय समय में बना पाने में नाकाम रहती है, तो समूह की दूसरी औरतें उस की मदद करने में जुट जाती हैं.

बनाया ‘साइकिल बैंक’

इन बुनकरों को अपने रोजमर्रा के काम जैसे पानी लाना, सब्जी लाना वगैरह के लिए तकरीबन 2 किलोमीटर पैदल चल कर जाना पड़ता था, जिस में काफी समय बरबाद होता था. इस के लिए संस्था ने औरतों को लोन पर साइकिल मुहैया कराना शुरू किया है. इस के बाद इन औरतों ने आपसी समझ से अक्तूबर, 2013 में खुद का ‘साइकिल बैंक’ बना लिया.

इस बैंक को चलाने वाली रीमा बताती हैं कि 11 ग्रुप बनाए गए हैं. हर ग्रुप में 12 सदस्य शामिल हैं. हर औरत ने 40 से 60 रुपए हर महीना इकट्ठा करना शुरू किया. जिस औरत को बैंक से साइकिल लेनी होती है, उसे अमानत के रूप में 11 सौ रुपए जमा कराने पड़ते हैं. साथ ही, हर महीने किस्त के रूप में सौ रुपए और ब्याज के रूप में 60 रुपए देने पड़ते हैं. अब तक 68 औरतों ने ‘साइकिल बैंक’ से साइकिलें खरीदी हैं.

साइकिल न केवल इन औरतों के लिए जरूरी बन गई है, बल्कि मनोरंजन का साधन भी बन गई है. औरतों के बीच महीने में एक बार धीमी और तेज साइकिल चलाने की रेस भी कराई जाती है.

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