दरअसल, सरकारी नौकरियों और सरकारी नौकरी करने वालों में से ज्यादातर की कमोबेश यही कहानी है. इस का अंदाज इस एक उदाहरण से लगाया जा सकता है कि राजधानी दिल्ली में तकरीबन 3 लाख सरकारी अध्यापक हैं. लेकिन सरकारी स्कूलों का जो रिजल्ट है, रिजल्ट से भी ज्यादा सरकारी स्कूलों के बच्चों की जो बौद्धिक व मानसिक स्थिति है, उसे देख कर तरस आता है. दुख इस बात का है कि सरकार किन अध्यापकों पर इतना पैसा लुटा रही है? इस के उलट निजी और पब्लिक स्कूलों में 10 से 15 हजार रुपए मासिक तनख्वाह पाने वाले अध्यापक वह रिजल्ट दे रहे हैं जो रिजल्ट सरकारी अध्यापक देने के बारे में कभी सोच भी नहीं सकते. दरअसल, सरकारी कर्मचारी इस देश पर और किसी भी सरकार पर एक तरह का बोझ ही हैं. मगर हर सरकार को अपनी मौजूदगी और अपने वजूद के लिए एक तामझाम की जरूरत होती है, इसलिए निठल्ले सरकारी कर्मचारियों की यह फौज बदस्तूर न सिर्फ बनी हुई है, बल्कि बढ़ती जा रही है.
नकारात्मक पहलू
मुंबई स्थित एक निजी बैंक के सेल्स एक्जीक्यूटिव विश्वनाथ आचार्य कहते हैं, ‘‘मैं सुबह 7 बजे घर से निकलता हूं और रात में कब पहुंचूंगा, कुछ पता नहीं क्योंकि प्राइवेट बैंक महज उस के कर्मचारी होने के चलते मुझे तनख्वाह नहीं देता बल्कि मुझे हर समय परफौर्म कर के दिखाना होता है. मुझे वेतन और कमीशन उसी परफौर्मेंस के आधार पर मिलते हैं.’’ दूसरी तरफ मुंबई की ही मीरा रोड स्थित सरकारी बैंक की एक शाखा में आर मेहता क्लर्क हैं. उन के पास अगर आप किसी चैक या पासबुक से संबंधित काम के लिए जाएं तो कहेंगे नाम लिखा जाओ, कल आ कर देख जाना. अगर आप कहो कि आप ने बड़ी मुश्किल से आज का समय निकाला है और कल नहीं आ पाएंगे तो मेहता साहब कहेंगे फिर मत आना. उन्हें कोई फर्क ही नहीं पड़ता कि ग्राहक के मन में, उन के व्यवहार का क्या असर पड़ेगा? चूंकि सरकारी बैंक कर्मचारी की नौकरी और महीने में मिलने वाली उन की तनख्वाह ग्राहक की सुविधा व संतुष्टि से जुड़ी नहीं है. नतीजतन वे एक बार भी नहीं कहते कि ग्राहक आएं और बारबार आएं.
दरअसल, सरकारी कर्मचारी अगर पक्का है तो उसे इस बात का खौफ नहीं रहता कि उस की नौकरी छूट जाएगी. इस वजह से कभी भी नौकरी को ले कर फिक्रमंद नहीं होता. दूसरे शब्दों में, वह नौकरी बचाने के लिए, ग्राहकों को संतोषजनक सेवा देने की गरज नहीं समझता. जबकि दूसरी तरफ प्राइवेट कंपनी में नौकरी करने वाला कोई भी शख्स इस बात को भलीभांति जानता है कि उस की नौकरी तभी तक सुरक्षित है जब तक वह अपनी कंपनी को कमा कर देगा और अपने कामकाज से ग्राहकों को खुश रखेगा. बस, यही एक ऐसी धारणा है जिस से दोनों के स्वभाव में जमीनआसमान का फर्क दिखाई पड़ता है. अगर कोई सरकारी कर्मचारी काम करना भी चाहता है तो उस के सहकर्मी, जो खुद काम नहीं कर रहे होते हैं, उसे भी नहीं करने देते हैं. उन्हें पता है कि अगर एक काम करता रहा तो बाकी सब लोगों की साख खराब होगी. इसलिए अच्छे से अच्छा और कामकाज का संकल्प रखने वाला सरकारी कर्मचारी भी एक बार नौकरी पाने के बाद काम नहीं कर पाता. यह सरकारी संस्थानों में कामकाज की नकारात्मक संस्कृति का नतीजा है.
बेरोजगारों की लंबी फौज
हमारे देश में 99.99 फीसदी आम आदमी सरकारी क्षेत्र में ही नौकरी पाना चाहता है क्योंकि वह शौर्टकट के जरिए रातोंरात अमीर होना चाहता है. सरकारी नौकरी से जुड़ी तमाम सुविधाएं उसे ललचाती हैं और वह इन के लिए घूस देने से ले कर कुछ भी करने को तैयार रहता है. यह एक किस्म का नशा है और हमारी तमाम पीढि़यों की कार्यक्षमता को यह नशा बरबाद कर रहा है. लोग समझते हैं अगर सरकारी नौकरी मिल गई तो कमाने का जरिया भी मिल जाएगा यानी घूस का जुगाड़ हो जाएगा. इसलिए प्राइवेट नौकरी कभी उस की प्राथमिकता में नहीं होती. वह बिना काम किए अच्छी तनख्वाह पाना चाहता है और ऊपर से कमाई का जरिया भी बरकरार रखना चाहता है, इसलिए सरकारी नौकरी चाहता है. यह सरकारी आंकड़ा है जिसे मौजूदा सरकार की कैबिनेट ने जारी किया है. वास्तविक आंकड़ा इस से भी ज्यादा भयावह होने की पूरी आशंका है. श्रम मंत्रालय की इकाई श्रम ब्यूरो द्वारा जारी ताजा सर्वेक्षण के मुताबिक बीते वित्त वर्ष में बेरोजगारी की दर बढ़ कर 4.9 हो गई है जबकि पहले 4.7 प्रतिशत थी. सब से अधिक बेरोजगारी की दर सिक्किम में आंकी गई. महिलाओं में भी बेरोजगारी 7.2 से बढ़ कर 7.7 प्रतिशत हुई है.
औद्योगिक संगठन एसोचैम की 1 साल पहले आई एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में तकरीबन 10 करोड़ लोग बेरोजगार हैं, लेकिन विडंबना यह है कि जितने बेरोजगार हैं, उन से भी 5 फीसदी ज्यादा योग्य कामगारों की भी दरकार है. मतलब यह कि एक तरफ जहां हमारे यहां रोजगार की भारी कमी है उस से भी कहीं ज्यादा कमी योग्य कामगारों की भी है. निसंदेह यह स्थिति पूरी तरह विरोधाभासी है. लेकिन अगर आप इस स्थिति का विश्लेषण करेंगे तो समझ जाएंगे कि यह आंकड़ा विरोधाभासी नहीं है बल्कि हमारी दयनीय आर्थिक, शैक्षिक और सामाजिक स्थिति को दर्शाता है.
वास्तव में हिंदुस्तान में 80 फीसदी से ज्यादा आम लोगों की पहली ख्वाहिश सरकारी नौकरी करने की होती है. इस के बाद ही वे दूसरी नौकरियों के बारे में सोचते हैं. भारत में भ्रष्टाचार पर नजर रखने वाले संगठनों, विशेषकर करप्शन वाच इंटरनैशनल के मुताबिक, सब से ज्यादा रिश्वतें सरकारी नौकरी पाने के लिए, अच्छे स्कूलों में ऐडमिशन हासिल करने के लिए, पुलिस से मामला सुलटाने के लिए और सरकारी अस्पतालों में अच्छी चिकित्सा सुविधा हासिल करने के लिए दी जाती हैं. यह सम्मिलित घूस कोई डेढ़ लाख करोड़ रुपए के आसपास है यानी हमारे कुल बजट का 8 से 9 फीसदी हिस्सा. इस में भी सब से बड़ा हिस्सा सरकारी नौकरी पाने के लिए खर्च होता है. अलगअलग संगठनों के अनुमानों के मुताबिक, भारत में कोई 36 हजार करोड़ रुपए से भी ज्यादा सरकारी नौकरियां पाने में बतौर घूस के रूप में खर्च होते हैं. कहने का मतलब यह कि सरकारी क्षेत्र की नौकरियों का इस कदर आकर्षण है कि लोग उन्हें हासिल करने के लिए कुछ भी करने और किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार रहते हैं.
बावजूद इस आकर्षण और मारामारी के, वास्तविकता यह है कि सभी तरह की सरकारी और अर्धसरकारी नौकरियां बमुश्किल 2 करोड़ के आसपास हैं. उन में भी अब इतने तकनीकी किंतुपरंतु लग गए हैं कि अगर हम विशुद्ध सरकारी नौकरियों की ही बात करें तो ऐसी नौकरियां मुश्किल से 1 करोड़ 80 लाख के आसपास होंगी. जबकि देश में काम करने के लिए तैयार कार्यबल 38 करोड़ से ज्यादा है और कार्य कर सकने की क्षमता रखने वाला कार्यबल (वर्कफोर्स) 59 करोड़ 80 लाख से ज्यादा है. भारत में तकरीबन 60 करोड़ नौकरियों की जरूरत है जबकि सरकारी, अर्धसरकारी और पब्लिक सैक्टर अंडरटेकिंग जैसे क्षेत्रों की कुल मिला कर 2 करोड़ के आसपास ही नौकरियां हैं.
कैसे बनेगा विकसित राष्ट्र
सरकारी नौकरियों के लिए पागलपन या इस के लिए दीवानगी कहां तक जायज है, यह अहं सवाल है. सरकारी नौकरियों के पागलपन के पीछे हमारी अकर्मण्य मनोस्थिति, दिलोदिमाग में सुरक्षित महसूस करने की कमजोरी और भ्रष्टाचार से फायदा उठाने का लालच जिम्मेदार है. जबकि आज की तारीख में 20 करोड़ से ज्यादा नौकरियां हर किस्म के निजी क्षेत्रों से मिला कर आती हैं. क्या सरकारी नौकरियों का लालच और निजी क्षेत्र के प्रति सरकार और प्रशासन का गैर दोस्ताना रवैया भारत को भी विकसित राष्ट्र बना सकता है? कभी नहीं. भारत को अगर 2020 तक विकसित राष्ट्र में तबदील होना है तो हमारी अर्थव्यवस्था के विकास की रफ्तार को सालाना 8 से 12 फीसदी तक पहुंचाना पड़ेगा और बड़े पैमाने पर निजी क्षेत्र में रोजगार विकसित करने पड़ेंगे. क्योंकि 2012 तक अगर हम ने 8 से 12 करोड़ के बीच नए रोजगार सृजित नहीं किए और पुराने रोजगारों को बनाए रखने में कामयाबी नहीं हासिल की तो भारत को विकसित राष्ट्र बनाए जाने का सपना टायंटायं फिस्स हो जाएगा.
यह तभी संभव है जब देश के सामाजिक स्वभाव और उस की मानसिकता में आमूलचूल परिवर्तन हो, सरकारी नौकरी का पागलपन खत्म हो. इस के लिए दी जाने वाली करोड़ों की घूस का खेल खत्म हो और निजी क्षेत्र में रोजगार बढ़ाए जाने व विकसित किए जाने का अनुकूल माहौल बने. निश्चित रूप से ये कई चीजें हैं और सभी चीजें जब एकसाथ काम करेंगी तब कहीं जा कर एक सकारात्मक नतीजा हासिल होगा. मगर इन कई चीजों में सब से बड़ी बात और चीज सरकारी नौकरियों के प्रति अंधआकर्षण ही है. अगर निजी क्षेत्र की नौकरियों के प्रति आम भारतीयों में यही आकर्षण पैदा हो जाए तो वह मन मार कर या यहां होने को अपनी तौहीन समझ कर काम न करें. वे ऐसा करेंगे तो इस से उत्पादन बढ़ेगा, रोजगार का विस्तार होगा और देश का विकास होगा.
भारत के रोजगार परिदृश्य को 8 फीसदी की दर से विकसित होने के लिए हर साल 4 से 6 लाख करोड़ रुपए के निवेश की जरूरत है. जाहिर है यह निवेश सरकारी क्षेत्र में संभव नहीं है. इसलिए सिर्फ सरकारी क्षेत्र में नौकरियों के भरोसे न तो हमारा भला हो सकता है और न ही देश का. ऐसे में जरूरी है कि हम सरकारी क्षेत्र की नौकरियों के अलावा रोजगार के दूसरे विकल्पों को न सिर्फ तलाशें बल्कि उन में भरपूर रुचि लें और उस की संस्कृति विकसित करें तभी देश में मौजूदा कार्यबल को काम मिल सकता है और समृद्धि आ सकती है.