सरिता के जून (प्रथम), 2015 के अंक में प्रकाशित लेख ‘फैसले के पहले सजा भुगतते व्यापमं घोटाले के आरोपी’ में व्यापमं घोटाले में लिप्त आरोपियों की परेशानियों का जिक्र किया गया था जिस में मध्य प्रदेश के राज्यपाल रामनरेश यादव के बेटे शैलेष यादव की कथित आत्महत्या का उल्लेख भी प्रमुखता से था कि उस की मौत संदिग्ध है और अगर आत्महत्या है तो गिरफ्तारी का डर और ग्लानि इस की बड़ी वजहें हैं. लेख के आखिर में यह भी कहा गया था कि परेशान और आत्महत्या कर मर रहे लोगों से आम लोगों को कतई सहानुभूति नहीं क्योंकि लोग सोचते हैं कि घोटाला किया है तो अब भुगतो भी. इस लेख की मंशा पर जब लोगों का ध्यान गया तो व्यापमं घोटाले से किसी भी रूप में जुड़े लोगों की मौत पर शक व सवाल उठ खड़े होने लगे कि वे आत्महत्याएं हैं या हत्याएं? वजह, कुछ मौतों का वाकई संदिग्ध होना था. ऐसी ही एक संदिग्ध मौत की पड़ताल करने के लिए 4 जुलाई को एक प्रमुख न्यूज चैनल (आज तक) के संवाददाता अक्षय सिंह मध्य प्रदेश के आदिवासी बाहुल्य जिले झाबुआ के कसबे मेघनगर आए थे. यह संदिग्ध मौत इंदौर मैडिकल कालेज की एक 19 वर्षीय छात्रा नम्रता डामोर की थी जिस पर अक्षय को उस के परिजनों का इंटरव्यू और पक्ष सुनना था. नम्रता का नाम उन आरोपी छात्रों की फेहरिस्त में शुमार था जिन्होंने गलत तरीके से पीएमटी के जरिए एमबीबीएस में दाखिला ले लिया था और पकड़े गए थे.
नम्रता को एमबीबीएस में दाखिला व्यापमं घोटाले के सरगना डा. जगदीश सागर ने दिलाया था जिस के संपर्क में वह दूसरे आरोपी डा. संजीव शिल्पकार के जरिए आई थी. और संजीव शिल्पकार के संपर्क में वह एक दूसरे छात्र गौरव के जरिए आई थी. नम्रता की लाश 7 जुलाई, 2012 को उज्जैन में रेल की पटरियों पर पड़ी मिली थी. हादसे के दिन वह इंदौर से जबलपुर जाने को निकली थी. इस मौत को पुलिस ने पहले खुदकुशी और फिर हादसा बता कर मामले का खात्मा कर दिया था. बहरहाल, अक्षय सिंह नम्रता की मौत के तार व्यापमं घोटाले से जोड़ने के लिए मेघनगर पहुंचे थे. उन्होंने नम्रता के घर वालों से बातचीत की और जैसे ही उस के घर से बाहर निकले वैसे ही उन की भी मौत हो गई.
फिर मचा बवाल तो…
अपने संवाददाता की संदिग्ध मौत पर न्यूज चैनल ने तो जम कर बवाल मचाया ही, देखते ही देखते पूरा मीडिया भी उस के सुर में सुर मिलाने लगा. मुद्दा था अक्षय की मौत की जांच, जिसे सीएम शिवराज सिंह चौहान ने तुरंत मान लिया. अक्षय को चक्कर आए थे और वे गिर पड़े थे. यह सब अचानक एकाएक ही हुआ था, जिस से उन के साथी हड़बड़ा गए. उन्होंने अक्षय को पानी पिलाने की कोशिश की और तुरंत उन्हें मेघनगर स्थित सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र ले गए जहां मौजूद डाक्टर ने जांच कर अक्षय को मृत घोषित कर दिया. अक्षय के साथियों को स्वाभाविक है यकीन नहीं हो रहा था कि जो शख्स चंद मिनट पहले अच्छाखासा बैठा नम्रता के परिजनों से बात कर रहा था उस की अचानक मौत कैसे हो सकती है. लिहाजा, वे उन्हें गुजरात के दाहोद ले गए, वहां भी डाक्टरों ने अक्षय की मौत की पुष्टि की. न्यूज चैनल्स का कहना यह था कि अक्षय की मौत संदेहास्पद है क्योंकि वे एक संगीन घोटाले की रिपोर्टिंग करने गए थे. अप्रत्यक्ष तौर पर उन की हत्या की आशंका जताई गई. बिलाशक अक्षय एक प्रतिभावान और होनहार पत्रकार थे, उन में अनंत संभावनाएं मौजूद थीं. उन की असामयिक मौत वाकई दुख और खेद की बात है. अगर यह मौत साजिश थी, जैसा कि चैनल्स ने इशारा किया, तो तय है झाबुआ के मेघनगर आने की खबर और वजह साजिशकर्ताओं को मालूम थी. लेकिन मौत जिस तरीके से हुई उसे देख हत्या वाली थ्योरी से इत्तफाक नहीं रखा जा सकता और रखा जाए तो मानना यह पड़ेगा कि वाकई व्यापमं घोटाले के कर्ताधर्ताओं के हाथ बहुत लंबे हैं और वे बेहद खुराफाती दिमाग वाले हैं. अक्षय की पोस्टमार्टम रिपोर्ट में मौत की वजह हार्टअटैक बताई गई थी पर उन का बिसरा परिजनों की मांग पर जांच के लिए दिल्ली के एम्स भेजा गया था जिस की जांच ये पंक्तियां लिखे जाने तक पूरी नहीं हो पाई थी.
अक्षय की मौत पर देशभर के नेताओं ने अफसोस जताया. इन में राज्य के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान सहित कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल प्रमुख थे. पर कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने शोक जताने के साथसाथ यह भी कहा कि अक्षय उन से मिले थे और उन्होंने उन्हें सावधान रहने की सलाह दी थी. इधर, मीडिया का आक्रोश शबाब पर था जिस का फायदा उठाते हुए कांग्रेस ने व्यापमं घोटाले की सीबीआई जांच की अपनी मांग दोहराई तो मीडिया ने उस के सुर में सुर मिला कर आसमान सिर पर उठा लिया. अब निशाने पर शिवराज सिंह चौहान थे जिन्होंने इस मांग को सिरे से खारिज कर दिया. इस पर बात और बिगड़ी और रहीसही कसर उमा भारती ने इंटरव्यू में यह कहते कर दी कि शिवराज सिंह को कोई रास्ता निकालना चाहिए और सक्षम एजेंसी से इस घोटाले की जांच करानी चाहिए. बकौल उमा, खुद वे अपनी प्रतिष्ठा को ले कर भयभीत हैं और पहले भी इस घोटाले में उन का नाम जुड़ने से काफी आहत हुई थीं. उमा भारती के इस बेहद नपेतुले सहीसधे बयान ने हाहाकार सा मचा दिया यानी आग में घी डालने का काम किया. अब तक देशभर में फिर से व्यापमं घोटाले की चर्चा होने लगी थी. इस चर्चा में यह बात भी प्रमुखता से शामिल हो गई थी कि व्यापमं घोटाले में किसी न किसी रूप में जुड़े 45 लोगों की मौतों की जांच होनी चाहिए. हालांकि सरकारी आंकड़े 34 मौत ही बता रहे हैं.
अपने दम पर प्रहार झेल रहे शिवराज सिंह चौहान अपने राजनीतिक कैरियर में पहली दफा लड़खड़ाते नजर आए. 6 जुलाई को न्यूज चैनल को दिए अपने इंटरव्यू में उन को नजदीक से जानने वालों का कहना है कि उन्होंने आपा नहीं खोया, यही काफी है. यह मीडिया की एकजुटता का असर ही था कि आम लोग यह कहने पर मजबूर हो गए कि आखिर क्यों नहीं वे व्यापमं घोटाले की सीबीआई जांच की मांग मान लेते. इधर, भाजपा की अंदरूनी हालत भी गड़बड़ हो चली थी. कहने को पूरी पार्टी शिवराज सिंह के साथ खड़ी थी लेकिन यह सच नहीं था. गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने सीबीआई जांच को ले कर गोलमोल जवाब दे कर बात को टरका दिया. लेकिन दूसरे ही दिन 7 जुलाई को शिवराज सिंह ने भोपाल में पत्रकारवार्त्ता बुलाई और व्यापमं घोटाले की सीबीआई जांच की मांग मान लेने की बात कही. बकौल शिवराज, उन्होंने रातभर जाग कर सोचा और तय किया कि लोकतंत्र लोकलाज से चलता है और जब जनताजनार्दन चाहती है तो वे हाईकोर्ट से सीबीआई जांच की मांग करेंगे. ऐसा उन्होंने किया भी. एक विशेष हवाई जहाज से उन का आग्रहपत्र भोपाल से जबलपुर हाईकोर्ट पहुंचाया गया. शिवराज सिंह चौहान को घुटने टेकते देख कांग्रेसी और भी हमलावर हो उठे और यह मांग करने लगे कि जांच सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में होनी चाहिए. यह वही कांग्रेस है जो व्यापमं घोटाला उजागर होने के बाद 2 साल में शिवराज को नहीं झुका पाई थी. अभी भी उस ने सीएम को नहीं झुकाया है. झुकाने का श्रेय मीडिया को जाता है जिस ने 72 घंटे में जता दिया कि मीडिया को मीडिया क्यों कहा जाता है.
क्या है व्यापमं घोटाला
व्यापमं घोटाले को अब 2 हिस्सों में बांट कर ही समझा जा सकता है. पहला, प्री मैडिकल टैस्ट (पीएमटी) और दूसरा, भरती घोटाला. इस में अभी तक तकरीबन 2,500 आरोपी बनाए गए हैं जिन में से अधिकांश पीएमटी के हैं. 600 फर्जी डाक्टरों की पहचान हुई है यानी ऐसे लोग जिन्हें बोलचाल की भाषा में मुन्नाभाई कहा जाता है. मैडिकल में दाखिले के लिए पैसे देने वालों की उत्तरपुस्तिका में हेरफेर की गई, उम्मीदवारों की जगह दूसरों ने परीक्षा दी जिन्हें स्कोरर या सौल्वर कहा जाता है या फिर ऐसे उम्मीदवार जिन के ऐडमिशन फौर्म और काउंसलिंग फौर्म पर अलगअलग फोटो थे, उन की तादाद भी कम नहीं. दरअसल, फर्जीवाड़ा इस पद्धति से शुरू हुआ था कि परीक्षा में राम की जगह श्याम बैठा जबकि चुना राम गया. इन में से कई तो विधिवत डाक्टर बन चुके हैं. साल 2006 में महज 2 मुन्नाभाई पकड़े गए थे जिन पर कार्यवाही यानी परीक्षा निरस्त साल 2011 में हुई. यह कानूनी खामी कायम है. एसटीएफ ने जांच के नाम पर 2 साल तक लीपापोती की. मकसद, लोगों को यह बताना भर था कि कुछ हो रहा है. अंदाजा है कि फर्जी डाक्टरों की तादाद 2 हजार के लगभग है जिन्होंने अपने दाखिले के लिए औसतन 10 लाख रुपए की घूस और इतने ही पैसे पढ़ाई पर खर्च किए थे. अभिभावकों को यह सौदा घाटे का नहीं लगा तो वजह डाक्टरों की कमी से उपजी अनापशनाप कमाई है. हालत यह है कि सूबे में सरकार एमबीबीएस डाक्टरों को करार पर नौकरी के लिए 75 हजार रुपए महीने देने को तैयार है पर डाक्टर इस पगार पर भी राजी नहीं हो रहे.
व्यापमं घोटाले का दूसरा हिस्सा भरतियों में घूस का है जो साल 2004 से शुरू हुआ था. शुरू के 4 साल तो नाममात्र की भरती परीक्षाएं हुईं लेकिन 2008 से ले कर 2014 तक कुल 58 भरती परीक्षाएं हुईं. ये सभी तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों की थीं. भरतियों में फर्जीवाड़ा, पैसा और सिफारिश तीनों चले. ऐसे लोग कितने होंगे जिन का कोई सटीक आंकड़ा किसी के पास नहीं. लेकिन 15 जनवरी को खुद शिवराज सिंह ने विधानसभा में कहा था कि उन के 7 साल के कार्यकाल में अब तक 1 लाख 27 हजार नियुक्तियां हुई हैं जिन में 1 हजार गलत व फर्जी हैं. वाकई गजब है मध्य प्रदेश, जहां खुलेआम नौकरियां बिकती हैं, मैडिकल की सीटों की बोली लगती है और जब राज खुलने लगते हैं तो कुछ रसूखदार पकड़े जाते हैं और फिर संदिग्ध मौतें होने लगती हैं. रतलाम के पूर्व निर्दलीय विधायक पारस सकलेचा की मानें तो एसटीएफ ने महज 20 फीसदी ही घपला उजागर किया है. अब सीबीआई जांच में असल चेहरे बेनकाब होंगे जो काफी चौंका देने वाले होंगे. व्यापमं घोटाले को ले कर शुरू से ही आक्रामक रहे इस विधायक ने इस घोटाले को ले कर हाईकोर्ट में याचिकाएं भी लगाई थीं.
कठघरे में एसटीएफ
अब व्यापमं घोटाले की जांच सीबीआई करेगी तो कहा जा रहा है कि उस का आधार अभी तक की एसटीएफ यानी स्पैशल टास्क फोर्स की जांच होगी. अगर ऐसा हुआ तो एक संभावना इस बात की भी है कि सीबीआई एसटीएफ को ही कठघरे में खड़ा कर दे. इस की कई वजहें हैं. मसलन, पूर्व मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा को 8 महीने बाद आरोपी बनाया जाना और व्यापमं की पूर्व चेयरपर्सन रंजना चौधरी को बजाय गिरफ्तार करने के, सरकारी गवाह बना देना. रंजना पर 35 लाख रुपए लेने का आरोप है. एसटीएफ पूरी जांच में आईएएस व आईपीएस अधिकारियों का लिहाज करती रही. जिन लगभग 2,500 आरोपियों की चर्चा जोरशोर से हो रही है उन में से 2,480 छात्र, दलाल, स्कोरर या फिर अभिभावक हैं. यानी जांच में चुनचुन कर लोगों को छोड़ा गया है. पंकज त्रिवेदी ने अपने बयान में अहम लोगों के नाम लिए थे पर उन का खुलासा एसटीएफ ने नहीं किया. हैरत की बात है कि अब तक की जांच में उस ने चिकित्सा शिक्षा विभाग को दूर रखा जो व्यापमं से चुन कर आए छात्रों को दाखिला देता है. हालांकि इस विभाग की जिम्मेदारी नहीं है कि वह फर्जियों की पहचान करे लेकिन यह तो उस की जिम्मेदारी बनती है कि अपने स्तर पर मुन्नाभाइयों की जांच करे. वजह, साल 2009 से ही फर्जी परीक्षार्थियों का हल्ला शुरू हो चुका था. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने साल 2009 से 2012 तक यह विभाग अपने पास रखा था.
एसटीएफ के वजूद में आने से आरोपियों को कोई फर्क नहीं पड़ा, इस के वजूद में आने के बाद भी हुआ फर्जीवाड़ा इस की गवाही देता है. एसटीएफ का गठन दरअसल सीबीआई जांच से बचने के लिए किया गया था. शिवराज सिंह की इस मंशा पर पानी फिरा है.
भ्रष्टाचारियों का गठजोड़
1970 तक मध्य प्रदेश के चिकित्सा महाविद्यालयों में दाखिले हायर सैकंडरी बोर्ड परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद, बीएससी (जीव विज्ञान) प्रथम वर्ष उत्तीर्ण करने के बाद मैरिट के आधार पर दिए जाते थे. यानी जिस के बीएससी फर्स्ट ईयर में अच्छे अंक होते थे वह एमबीबीएस में प्रवेश पा जाता था. इसी साल सरकार ने प्री मैडिकल टैस्ट लेने के लिए एक बोर्ड बनाया जिसे बोलचाल की भाषा में प्री मैडिकल टैस्ट (पीएमटी) कहा गया. सूबे में आयोजित होने वाली यह पहली राज्य स्तरीय प्रतियोगी प्रवेश परीक्षा थी. 1981 में इंजीनियरिंग में दाखिले के लिए पीईटी यानी प्री इंजीनियरिंग टैस्ट की परीक्षा भी आयोजित की जाने लगी. इसी साल सरकार ने इन दोनों बोर्ड को मिला कर एक नया नाम दिया जो आज दुनियाभर में चर्चा में है, ‘व्यापमं’ यानी व्यावसायिक परीक्षा मंडल’. धीरेधीरे तमाम व्यावसायिक तकनीकी स्नातक पाठ्यक्रमों में प्रवेश व्यापमं के जरिए होने लगे. तीसरी परीक्षा के रूप में प्री एग्रीकल्चर टैस्ट (पीएटी) भी इसी के जरिए होने लगी. फिर प्री पौलिटैक्निक, प्री फार्मेसी टैस्ट, जनरल नर्सिंग ट्रेनिंग, बीएससी (नर्सिंग), एमसीए और बीएड (बैचलर औफ एजुकेशन) जैसी महत्त्वपूर्ण प्रतियोगी परीक्षाएं भी व्यापमं आयोजित कराने लगा.
अर्जुन सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में गठित व्यापमं का मूल स्वरूप किसी गोरखधंधे से कम नहीं. वजह, इस में तमाम कर्मचारी व अधिकारी दूसरे विभागों खासतौर से उच्च शिक्षा और तकनीकी शिक्षा से प्रतिनियुक्ति पर आते थे. शुरुआत में व्यापमं का काम प्रश्नपत्र तैयार करना, उत्तर पुस्तिकाएं जंचवाना और परिणाम घोषित करना भर था. सरकारी भाषा में यह स्ववित्त पोषित स्वायत्व निर्णायक निकाय है. अपने खर्चे निकालने के लिए व्यापमं ने परीक्षा फौर्म बेचने शुरू किए थे तो तब के छात्रों को हैरत हुई थी क्योंकि इस से पहले तक हायर सैकंडरी या बीएससी फर्स्ट ईयर की मार्कशीट से ही काम चल जाता था और दुनियाभर के सर्टिफिकेट भी नहीं लगाने पड़ते थे. महत्त्वपूर्ण और शिक्षा से जुड़े विभागों के प्रमुख सचिव या सचिव को बोर्ड का पदेन सदस्य माना गया और 9 सदस्य भी विभिन्न सरकारी व गैरसरकारी शिक्षण संस्थानों से नामांकित किए जाने लगे. व्यापमं की घोषित संरचना में संचालक का पद किसी इंजीनियरिंग कालेज के सीनियर प्रिंसिपल को दिया गया. नियंत्रक का पद इंजीनियरिंग कालेज से ही सीनियर प्रोफैसर को दिया गया तो एक फाइनैंस औफिसर, नगर उपनियंत्रक, एक सीनियर सिस्टम एनालिस्ट इतने ही सहायक नियंत्रक और एक सिस्टम एनालिस्ट का पद बनाया गया. इस तरह ‘कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा भानुमती ने कुनबा जोड़ा’ की तर्ज पर व्यापमं चल निकला. शुरुआती दौर में इस में प्रतिनियुक्ति पर जाने से प्राध्यापक वगैरह कतराते थे क्योंकि इस के दफ्तर में बैठना ही बोरियत वाला काम और अपनेआप में सजा थी.
साल 2000 तक व्यापमं में गड़बडि़यों की शिकायत नहीं आई लेकिन इसी साल से शिकायतें आने लगीं तो वजह कंप्यूटर था जिस में इस के जानकार हेरफेर कर सकते थे और पकड़ में नहीं आते थे. 2000 तक कंप्यूटर का चलन आम सा हो गया था, व्यापमं के सारे काम भी कंप्यूटर से होने लगे थे. अब तक परीक्षा प्रणाली भी स्थायी रूप से घोषित हो चुकी थी कि सभी प्रश्नों के उत्तर वैकल्पिक होंगे. 4 में से 1 जवाब सही होगा और जो सब से ज्यादा सही जवाब देगा वह चुन लिया जाएगा. छात्रों को चूंकि खानापूर्ति के अलावा कुछ लिखना नहीं था, इसलिए वे उलटेसीधे निशान भी अंदाजे से लगाने लगे. साथ ही, यह बात भी उन के दिमाग में आने लगी कि कितना अच्छा हो अगर किसी चमत्कार के चलते उन की उत्तर पुस्तिका पर सारे सही निशान लग जाएं ताकि वे चुन लिए जाएं. व्यापमं के घोटालेबाजों ने उन का यह सपना सच कर डाला, लेकिन इस की मुंहमांगी कीमत वसूली.
बहरहाल, छिटपुट मामले 2007 तक सामने आए पर वे तूल नहीं पकड़ पाए. अब तक मैडिकल और इंजीनियरिंग में दाखिला लेने वालों की तादाद बेतहाशा बढ़ गई थी. कोचिंग सैंटर गलीगली खुलने लगे थे और प्राइवेट इंजीनियरिंग कालेज तो कुकुरमुत्तों की तरह उगने लगे थे. अकेले भोपाल में ही 100 से भी ज्यादा इंजीनियरिंग कालेज खुले. साल 2004 में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने नौकरी देने वाली परीक्षाओं की जिम्मेदारी भी व्यापमं को दे दी. असल गड़बड़ यहीं से शुरू हुई. अब तक तृतीय और चतुर्थ श्रेणी की भरतियां जिला स्तर पर अधिकारी कर लिया करते थे. मिसाल पुलिस विभाग की लें तो कौंस्टेबल की भरती जिले का पुलिस अधीक्षक और कुछ दूसरे अधिकारी मिल कर कर लेते थे. नई व्यवस्था में ये भरतियां राज्य स्तरीय होने लगीं तो राज्य की राजधानी भोपाल देखते ही देखते गुलजार हो उठी.
सरकारी नौकरियों के लिए घूस पहले भी चलती थी और सिफारिशें भी खूब होती थीं लेकिन व्यापमं के जरिए यह काम होने लगा तो नेता व अफसर सब की बन आई. हर कोई घूस खा कर व्यापमं पर दबाव बनाने लगा, सिफारिशें होने लगीं और जल्द ही नौकरियां भी बिकने लगीं. यही व्यापमं घोटाले की वजह बनी जिस ने जिलेजिले में दलाल पैदा कर दिए. सरकारी नौकरी पाने या मैडिकल कालेज में दाखिला लेने की एकमात्र योग्यता जेब में पैसे होना रह गई. जिस ने भी भुगतान किया वह पास हो गया. चूंकि लाखों उम्मीदवार और छात्र कतार में थे, इसलिए कोई भी कड़ी प्रतिस्पर्धा के चलते यह नहीं कह पाता था कि उस के साथ ज्यादती हुई. काबिल छात्रों ने यह सोचते खुद को तसल्ली देनी शुरू कर दी कि जरूर कहीं कोई कमी उन की कोशिशों में रह गई होगी. पीएमटी की धांधली ने कितने लाख छात्रों के डाक्टर बनने के सपने पर पानी फेरा, इस का हिसाबकिताब कोई एसटीएफ या सीबीआई नहीं दे सकती. अब व्यापमं की परिभाषा हो गई थी एक घूसपोषित आमदनी निकाय जिस में दलाल, शिक्षा माफिया, नेता और अधिकारी जम कर चांदी काट रहे थे. यह सिलसिला 1 नहीं, 15 साल चला तो दुनियाभर में इस की चर्चा वाकई एक अजूबे के रूप में गलत नहीं हो रही.
अर्जुन सिंह की मंशा या महत्त्वाकांक्षा व्यापमं को ले कर क्या थी, यह तो वही जानें लेकिन शिवराज सिंह के कार्यकाल में जो हुआ वह शुद्ध भ्रष्टाचार था जिस ने दाखिले और नौकरियों को पैसे वालों की बांदी बना कर रख दिया. अब सीबीआई जांच का नतीजा जो भी निकले, प्रदेश की एक पूरी पीढ़ी शायद ही शिवराज सिंह के कार्यकाल को माफ कर पाए.
छवि हुई दागदार
अपने बचाव में हमेशा की तरह शिवराज सिंह चौहान कांग्रेस को कोसते नजर आए कि उस का तो काम ही मुझे बदनाम करना है, व्यापमं घोटाले की जांच की पहल मैं ने की थी. एक सिस्टम बनाया था जो कांग्रेस के जमाने में था ही नहीं. उस वक्त तो सिगरेट के पैकेटों पर कांग्रेसी लिख देते थे और तबादले व नियुक्तियां हो जाती थीं. हकीकत तो यह है कि अक्षय की मौत के बाद के बवाल में उंगलियां शिवराज सिंह पर ही उठने लगी थीं और देशभर में भाजपा की थूथू हो रही थी. ललित मोदी, सुषमा स्वराज, वसुंधरा का मामला अभी पूरी तरह ठंडा भी नहीं हो पाया था कि अब शिवराज सिंह चौहान जैसे निष्पक्ष और बेदाग छवि वाले नेता ने पार्टी को दिक्कत में डाल दिया. सीबीआई जांच की मांग मानना इसी नुकसान की भरपाई की कोशिश थी लेकिन यह भी साफतौर पर महसूस किया गया कि शिवराज सिंह चौहान अपनी जिद के चलते खुद की भी छवि धुंधली करवा बैठे हैं. इस की वजह मीडिया का हल्ला और व्यापमं घोटाले से हुए नुकसान ज्यादा हैं. भाजपा और शिवराज सिंह की बिगड़ी छवि पर पीएम नरेंद्र मोदी ने भी नाखुशी जाहिर की और शिवराज सिंह विरोधी लौबी भी सक्रिय हो उठी पर यह ललित मोदी गेट का ही असर था कि यह ?उन का बिगाड़ कुछ नहीं पाई. ऐसा लग रहा है कि भाजपा के भीतर शिवराज सिंह विरोधियों ने ठान ली है कि अब लड़ाई आरपार की लड़ी जाए.
सियासी तौर पर अहम सवाल अब यह भी उठ खड़ा हुआ है कि क्या अब भी भाजपा शिवराज सिंह के सहारे चलेगी या मध्य प्रदेश में उन का विकल्प तलाशेगी. मध्य प्रदेश के गृहमंत्री बाबूलाल गौर ने दोटूक कहा कि व्यापमं मामले को ले कर उन्हें कोई जानकारी नहीं दी जाती, मामला अदालत में है, कह कर चुप करा दिया जाता है और विधानसभा में जो जवाब देने होते हैं वे लिख कर दे दिए जाते हैं. उमा भारती की तरह गौर भी शिवराज सिंह का लिहाज नहीं करते और कोई उन्हें इस बाबत मजबूर भी नहीं कर सकता. शिवराज रास्ता ढूंढें़, किसी सक्षम एजेंसी से जांच कराएं और व्यापमं घोटाले से हजारों नौजवानों का भविष्य बरबाद हुआ है, जैसे जुमले बोल कर इस बार हाट उमा भारती लूट ले गईं और इस तरह ले गईं कि उन से कोई कुछ कह और पूछ भी नहीं पा रहा. भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की तो समझ में ही नहीं आ रहा कि आखिर यह हो क्या रहा है. दरअसल, हो यह रहा है कि बिहार विधानसभा चुनाव सिर पर हैं, प्रचार शुरू हो चुका है. ऐसे में लालू, नीतीश और कांग्रेस ललित मोदी व व्यापमं जैसे मुद्दों को उठा कर भाजपा को नुकसान पहुंचाएंगे, यह साफ दिख रहा है. विरोधी अभी से व्यापमं पर नरेंद्र मोदी को कठघरे में खड़ा करने लगे हैं. राहुल गांधी ने यह कहते मोदी पर कटाक्ष किया कि ‘न खाएंगे न खाने देंगे’ वाला चुनावी नारा कहां गया तो जाहिर है ऐसे सवालों के जवाब जनता अब सीधे नरेंद्र मोदी से सुनना चाहेगी. जांचों का बहाना अगर वे बनाएंगे तो इसे झुनझुना ही समझा जाएगा. यह वाकई नरेंद्र मोदी के लिए मुश्किल दौर है कि एक साल ही में भाजपा शासित सूबों के बाबत उन्हें गुनाहगार ठहराया जाने लगा है. कांग्रेस को भ्रष्टाचार के मुद्दों पर कोसते रहे मोदी कैसे इस हालत से निबटेंगे, यह देखना दिलचस्प होगा.