दिल्ली में पलेबढ़े अभिनेता दिव्येंदु शर्मा ने फिल्म ‘प्यार का पंचनामा’ में लिक्विड का किरदार निभाते हुए कैरियर की शुरुआत की थी. उस के बाद वे ‘चश्मेबद्दूर’, ‘इक्कीस तोपों की सलामी’ और ‘दिल्ली वाली जालिम गर्लफ्रैंड’ फिल्मों में नजर आए. उन की एक फिल्म ‘द लास्ट रेब’ रिलीज होने वाली है, तो वहीं वे अनिल कपूर प्रोडक्शन की एक फिल्म कर रहे हैं. पेश हैं उन से हुई बातचीत के अंश :

2007 से अब तक के अपने कैरियर को किस तरह से देखते हैं?

सब से पहले तो मेरी चाह हमेशा अलग तरह का काम करने की रही है. मुझे अलग तरह का ही काम करने का मौका भी मिला. लोगों ने मेरे काम को सराहा. मेरी चाह हमेशा यही रही है कि जब मेरी कोई फिल्म रिलीज हो तो लोग कहें कि इस फिल्म में अगर दिव्येंदु है तो उस ने जरूर कुछ नया किया होगा. मुझे जो प्यार व सम्मान मिल रहा है, उस से लगता है कि मैं सही रास्ते पर जा रहा हूं. मेरा कैरियर भी सही रास्ते पर ही है.

पर बौलीवुड में फिल्म का हिट होना जरूरी है?

आप ने बहुत सही बात कही. मेरी पहली फिल्म ‘प्यार का पंचनामा’ और दूसरी फिल्म ‘चश्मेबद्दूर’ हिट थीं पर तीसरी फिल्म ‘इक्कीस तोपों की सलामी’ खास नहीं चली. पर यह फिल्म मेरे लिए बहुत महत्त्वपूर्ण थी. मैं ने कुछ नया करने की कोशिश की थी. एक कलाकार के तौर पर मेरे लिए वह स्वीकार्यता बहुत जरूरी थी. फिल्म आलोचकों ने मेरे काम को सराहा था.

गड़बड़ कहां हुई?

आज की तारीख में मार्केटिंग बहुत महत्त्वपूर्ण हो गई है. शायद वहीं कहीं गड़बड़ी हुई.

हाल ही में आप की फिल्म ‘दिल्ली वाली जालिम गर्लफ्रैंड’ रिलीज हुई है. निजी जिंदगी में जालिम गर्लफ्रैंड से कभी आप का सामना हुआ?

नहीं. निजी जिंदगी में मुझे ऐसी लड़की का सामना नहीं करना पड़ा. मगर मैं ने अपने आसपास ऐसा होता हुआ देखा जरूर है. मेरे दोस्तों के साथ भी ऐसा कुछ हुआ है. पर पौइंट औफ व्यू का भी मसला है. कोई भी लड़की यह नहीं कहती कि पहले मैं इस लड़के को अपने प्यार में फांसती हूं, फिर इसे धोखा दे कर चली जाऊंगी. न ही कोई लड़का इस ढंग की बात कहता है. दोनों जो कुछ करते हैं, अपनी तरफ से सही होते हैं.

ऐसा क्यों हो रहा है?

यह तो मानव स्वभाव है. अब युवा पीढ़ी का एक्सपोजर बदल गया है. समाज में भी बदलाव आ चुका है. इमोशन नहीं बल्कि इंसान और उस के आसपास की परिस्थितियां बदलती हैं. आज की युवा पीढ़ी रिश्तों को ले कर पहले की पीढ़ी के मुकाबले ज्यादा ईमानदार है. आज की पीढ़ी का दिल टूटने पर उन्हें गम होता है. वह रिश्तों को जबरन ढोने में यकीन नहीं करती. पहले लोग रिश्ते से खुश न होते हुए भी बोल नहीं पाते थे. आज की युवा पीढ़ी में हिम्मत है कि वह कहती है कि जिस के साथ रहते हुए उसे दिमागी सुकून नहीं है, वह उस के साथ रिश्ते को साल दर साल नहीं ढोना चाहती. वह कहती है कि हमारे बीच प्यार था, पर अब हमारे बीच प्यार नहीं रहा. रिश्ते में पता चल जाता है कि कब प्यार था और कब प्यार खत्म हो गया. आज की पीढ़ी झूठ नहीं बोलती.

कुछ लोग इसे पलायनवाद मानते हैं. इस पर आप क्या सोचते हैं?

मुझे ऐसा नहीं लगता. मैं खुद एक युवा हूं. मैं ने भी आकांक्षा से प्यार किया है. और जिस से मैं ने प्यार किया, उसी से मैं ने शादी की है. कभी मेरी बेहतरीन दोस्त रही आज मेरी पत्नी है.

किसी रिलेशनशिप को बरकरार रखने के लिए क्या किया जाना चाहिए.

रिश्ते में ईमानदारी बहुत जरूरी है. आप जो कुछ हैं, उस में सामने वाले को भी हिस्सेदार मान कर चलिए. कोई भी समस्या दोनों में से कोई एक अकेले हल नहीं कर सकता. यह बात पति व पत्नी, नारी व पुरुष दोनों पर लागू होती है. पति व पत्नी दोनों को मिल कर काम करना चाहिए, दोस्तों की तरह रहना चाहिए.

मगर 10 साल प्यार, फिर शादी, उस के बाद भी शादी नहीं टिकती?

जिन की शादी चल रही है उन पर गौर करता हूं तो पाता हूं कि हमारे देश में सौ प्रतिशत सुखद वैवाहिक जीवन किसी का नहीं चल रहा. लोग एकदूसरे से बात नहीं करते पर वैवाहिक जीवन में बंधे हुए हैं. मेरी राय में आप किसी इंसान के साथ रह रहे हैं और आप को लगता है कि यह इंसान अब वह नहीं रहा जिस से आप ने प्यार किया था, जो मेरी इज्जत करता था, तो उस रिश्ते में बंधे रहने का कोई औचित्य नहीं रहता. रिश्ते में पहले इज्जत और फिर प्यार खत्म होता है. सामने वाले इंसान को ‘टेकन फौर ग्रांटेड’ नहीं लेना चाहिए. जहां इज्जत खत्म वहां प्यार खत्म. जहां प्यार खत्म हो जाए उस रिश्ते को तोड़ देना चाहिए, फिर वह रिश्ता चाहे जो हो.

आप लिव इन रिलेशनशिप व शादी में से किस के पक्षधर हैं?

मैं तो दोनों के पक्ष में हूं. शादी में हम एक समारोह में लोगों को बताते हैं कि हम अब एकसाथ रहने वाले हैं. ‘लिव इन रिलेशनशिप’ में हम यह बात कोई समारोह कर लोगों को नहीं बताते. जिस को जैसे रहना हो, वह वैसे रह सकता है. यदि हम खुश हैं तो दुनिया खुश है.

आप एक तरफ डेविड धवन जैसे स्थापित निर्देशक के साथ ‘चश्मेबद्दूर’ करते हैं तो दूसरी तरफ जपिंदर जैसी नई निर्देशक के साथ फिल्म ‘दिल्ली वाली जालिम गर्लफ्रैंड’ करते हैं. किस के साथ काम करना ज्यादा सहज होता है?

स्थापित या बड़े फिल्मकारों के साथ काम करते समय कलाकार के तौर पर हमें टैंशन लेने की जरूरत नहीं होती है. डेविड धवन के साथ चश्मेबद्दूर कर रहा था तो हमें पता था कि वे 40 फिल्में निर्देशित कर चुके हैं, इसलिए मुझे थोड़ा सा उन से डर था कि मैं उन की अपेक्षाओं पर खरा उतर पाऊंगा या नहीं. नए लोगों के साथ काम करते समय उन के अंदर का स्पार्क हमें उत्साहित करता रहता है. नए लोग किसी भी बात या सीन को ‘ग्रांटेड’ ले कर नहीं चलते. पर इस सवाल का सही जवाब मैं 10-15 फिल्में करने के बाद ज्यादा सही ढंग से दे पाऊंगा.

कोई किरदार या फिल्म का कोई सीन क्या आप की जिंदगी पर असर करता है?

कुछ किरदार या कुछ परिस्थितियां ऐसी होती हैं जोकि हम कलाकारों की निजी जिंदगी पर भी असर करती हैं. मुझे अच्छी तरह से याद है कि मैं ने पुणे फिल्म संस्थान में एक फिल्म की थी, जिस में बस कंडक्टर सुधीर का किरदार निभाया था, जो दिल्ली के बस कंडक्टरों जैसा था. किस तरह से उस की दुर्गति होती है, किस तरह से गांव से शहर आया हुआ मृदुभाषी युवक धीरेधीरे गुस्सैल होता जाता है. पैसेंजर उस के साथ झगड़ा व बदतमीजी करते हुए उसे भी बदतमीज बना देते हैं. एक दिन हालात ऐसे होते हैं कि वह एक पैसेंजर की हत्या कर देता है. यानी बदलते समाज के साथ वह भी बदतमीज होता गया. आज भी जब उस किरदार की चर्चा करता हूं तो मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं. मुझे लगता है कि ऐसे किरदार पता नहीं कितने होंगे, जो अभी भी होंगे. कहने का अर्थ यह कि कलाकार के तौर पर कई किरदार ऐसे होते हैं जिन्हें हम निभाते हैं और वे किरदार हमेशा के लिए हमारे साथ रह जाते हैं.

कोई खास किरदार करने की तमन्ना है?

निजी स्तर पर मुझे डार्क किरदार निभाना ज्यादा पसंद है. मुझे थ्रिलर में काम करना ज्यादा पसंद है. डिटैक्टिव फिल्म करने की इच्छा है. नए किरदार ढूंढ़ता रहता हूं.

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