‘‘यह असामान्य जरूर है मगर न तो पाप है न ही इस में कुछ गलत है, आखिरकार यह ईमानदार जीवन जीने का मामला है. मैं अपने बच्चों को विलासितापूर्ण जीवन जीने के लिए गलत तरीके अपनाने को प्रोत्साहित नहीं करूंगा. इंसान को वही काम करना चाहिए जो उस की क्षमताओं के अनुरूप हो.’’ ये दार्शनिक से विचार राजस्थान के भारतीय जनता पार्टी के विधायक हीरालाल वर्मा के हैं. 21 मार्च को उन का छोटा बेटा हंसराज वर्मा अजमेर कृषि उपज मंडी समिति में चपरासी पद के लिए इंटरव्यू देने गया था तो दूसरे विधायकों ने खासा बवाल मचाया था कि विधायक का बेटा, क्या चपरासीगीरी करेगा.

इस सवाल और बवाल पर तार्किक और करारा जवाब देते वर्मा ने यह भी जोड़ा था कि उन के महज 8वीं पास बेटे के लिए यही बेहतर विकल्प है, सरकारी नौकरी में उस का भविष्य सुरक्षित रहेगा. हैरानी इस बात की है कि हीरालाल वर्मा खुद 3 विषयों में एमए हैं और गोल्ड मैडलिस्ट हैं. वे समाज कल्याण विभाग में उपसंचालक के पद पर सेवाएं दे भी चुके हैं. हंसराज के चपरासी पद के लिए इंटरव्यू देने पर एतराज जता रहे दूसरे राजनेताओं की चिंता यह थी कि इस से समाज में गलत संदेश जाएगा कि विधायक का बेटा चपरासी जैसे मामूली ओहदे पर है. पर हीरालाल ने इन बातों, एतराजों और आलोचनाओं की परवा न करते जो जवाब दिया वह मिसाल है जिस की बाबत उन की तारीफ की जानी चाहिए. वे नहीं चाहते कि एक मामूली पढ़ालिखा लड़का, जो उन का बेटा ही सही, राजनीति में पिता के रसूख और पहुंच के चलते किसी महत्त्वपूर्ण पद पर काबिज हो. उन की नजर में कम शिक्षित लोग ऊंचे व सम्मानजनक पदों पर फिट नहीं बैठते.

यह राय एक विधायक की ही नहीं, बल्कि अधिकांश लोगों की है जो देश को विकसित देशों की कतार में सब से आगे खड़े होते देखना चाहते हैं और बेहतर शिक्षा को इस बाबत बहुत जरूरी मानते हैं. यह तो पता नहीं कि इस स्वीकारोक्ति के वक्त हीरालाल वर्मा के दिलोदिमाग में स्मृति ईरानी कहीं थीं या नहीं पर अपने विचारों को जो विस्तार उन्होंने दिया उस से सभी ने यह दोबारा सोचा कि देश के एक बड़े महत्त्वपूर्ण पद पर एक कम शिक्षित नेत्री क्यों है. अभिनेत्री स्मृति ईरानी को जब केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री बनाया गया था तभी से उन की शिक्षा पर रुकरुक कर बवाल मचा हुआ है. कहा जा सकता है कि लोग अब इस बारे में गंभीर हो चले हैं.

हीन होते हैं कम शिक्षित

विधायक हीरालाल वर्मा चाहते तो बात को छिपा सकते थे और राजनेताओं की शैली वाला कोई गोलमोल जवाब दे कर सब को टरका सकते थे. उन्होंने ऐसा न कर वाकई अपने उच्च शिक्षित होने को सार्थक कर दिया है, जो स्मृति ईरानी नहीं कर पाई थीं. जब उन की शिक्षा पर बवाल मचा था तो उन्होंने एक विदेशी पुरजे का हवाला दिया था जो किसी सैमिनार का या गैर मान्यताप्राप्त शौर्टटर्म पाठ्यक्रम का था. स्मृति ईरानी की मंशा यह थी कि उन के कहने भर से ही लोग उस पुरजे को ही डिगरी मान लेंगे. इस बात पर उन की और ज्यादा छीछालेदर हुई और लोग हंसे भी थे कि कितनी मासूमियत से वे लोगों को बरगलाना चाहती हैं. बाद में जरूर उन्होंने स्वीकारा कि वे कम शिक्षित हैं लेकिन तब तक उन की हीनभावना और कुंठा उजागर हो चुकी थी.

किसी को मानव संसाधन मंत्रालय की मुखिया से ऐसे बचाव की उम्मीद नहीं थी कि वे सच को जिद और अहं से ढकने की बचकानी कोशिश करेंगी. उन्होंने ऐसा किया तो सहज लगा कि गलती उन की नहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उन लाखोंकरोड़ों लोगों की भी है जो खुद भी कम पढ़ेलिखे हैं. और इसी वजह से खुद को मुख्यधारा से कटा मानते हुए असहज महसूस करते हैं. अलावा इस के, आजकल जो राजनेता अभद्र, अशिष्ट और अश्लील भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं उन से कम पढ़ेलिखों की संख्या 80 फीसदी है. बचे 20 फीसदी जानबूझ कर बवाल मचाने के लिए असभ्य भाषा का उपयोग करते हैं.

स्मृति ईरानी के प्रकरण से यह साबित हुआ था कि शिक्षित व्यक्ति में आत्मविश्वास होता है और सच को सहज स्वीकारने का साहस भी. इस के अलावा, दूरगामी फैसले लेने के लिए उस के पास पर्याप्त समझ व बुद्धि भी होती है. यह हीनभावना दरअसल वक्तवक्त पर अलगअलग तरह से प्रदर्शित होती रही है. पहले महत्त्वपूर्ण पदों पर कम शिक्षित लोग बैठे या बिठाए जाते थे तो कम लोग एतराज जताते थे और जो जताते थे उन्हें यह कहते हुए चुप कराने की कोशिश की जाती थी कि अरे, ये अनुभवी और ज्ञानी हैं. देश शिक्षा से नहीं, बल्कि बहुमत और लोकतंत्र से चलता है जिस के लिए ज्ञान चाहिए. पंडित जवाहरलाल नेहरू देश के पहले प्रधानमंत्री बने तो किसी की हिम्मत यह कहने की नहीं हुई थी कि उन से ज्यादा काबिल कई नेता हैं, उन्हें क्यों मौका नहीं दिया गया? अप्रत्यक्ष दलील यह दी गई थी कि वे विदेश से कानून की पढ़ाई कर के आए हैं, फर्राटे से अंगरेजी बोलते हैं, ब्राह्मण हैं, इसलिए योग्य हैं. आज यह योग्यता अधिकांश शहरी युवकों के पास है. लेकिन वे राजनीति या नेतागीरी को पसंद नहीं करते.

बदलते दौर में

संविधान में कहीं इस बात के इंतजाम जानबूझ कर तो नहीं किए गए कि कम पढ़ेलिखे लोग ऊंचे और सम्मानित पदों पर न बैठ पाएं. 60-70 के दशक में जो संस्कृत के 4 श्लोक और रामायण की 8-10 चौपाइयां बांच देता था उसे ही काबिल मान लिया जाता था. लोग शिक्षित हो कर ही इस चालाकी से वाकिफ हुए. इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं तब थोड़ीबहुत चर्चा उन के कम शिक्षित होने को ले कर हुई थी लेकिन परिवारवाद और तत्कालीन समस्याओं के आगे वे चर्चाएं दब गई थीं. कमोबेश यही राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनते वक्त हुआ. तब सारा देश उन्माद और भावुकता के समुद्र में गोते लगा रहा था.

अब जमाना और है. नेहरूगांधी खानदान के वारिस राहुल गांधी दौड़ में कहीं नहीं हैं जिन्होंने लगभग अपने ही बराबर शिक्षित स्मृति ईरानी को अमेठी से कांटे की टक्कर में हराया था. तब अगर कांग्रेसी शिक्षा को मुद्दा बनाते तो उंगली उन के युवराज पर भी उठती. लिहाजा, स्मृति को मंत्री बनाए जाने के बाद उन्होंने हल्ला मचाया. अधिकांश लोगों ने अप्रत्यक्ष ही सही, नरेंद्र मोदी द्वारा स्मृति ईरानी को केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय दिए जाने को गलत माना था और खुद नरेंद्र मोदी को ही कठघरे में खड़ा कर देखने की कोशिश की थी कि वे खुद कितने और कहां से पढ़ेलिखे हैं.

इस जागरूकता को अब रोका नहीं जा सकता. लोग समझने लगे हैं कि महत्त्वपूर्ण पदों पर बैठे लोग ही उन का और देश का भविष्य तय करते हैं. लिहाजा, उन का पर्याप्त शिक्षित होना जरूरी होना चाहिए. और शिक्षा का मतलब साक्षरता नहीं या एक ही नहीं बल्कि कई डिगरियां नेता के पास होनी चाहिए. इन में अगर तकनीकी और प्रबंधन पाठ्यक्रम की हों तो लोग नेता को सुनने और चुनने में भी दिलचस्पी लेंगे. लच्छेदार और मनमाफिक बातें तो महल्ला स्तर के नेता भी कर लेते हैं. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की डिगरी को हर कोई सम्मान से देखता है. उन के पास राजनीतिक अनुभव न के बराबर था लेकिन इस के बाद भी लोगों ने उन्हें दोबारा मौका दिया. वजह, एक शिक्षित नेता ही पहली गलती के लिए माफी मांगने की हिम्मत रखता है. कम शिक्षित नेता का अहं ही उस की डिगरी होता है. भाजपा नेत्री साध्वी उमा भारती इस की मिसाल हैं जो जबतब आगबबूला हो जाती थीं. इन दिनों वे चुप हैं तो वजह सियासी है.

मोदी मंत्रिमंडल के 25 फीसदी और देशभर में तकरीबन 60 फीसदी नेता ऐसे हैं जो कम पढ़ेलिखे हो कर अहम पदों पर काबिज हैं. ये लोग तेजी से शिक्षित होते समाज के लिए नीतियां बनाते हैं. इस से समझ आता है कि देश क्यों पिछड़ा है? कांग्रेस में तो ऐसे नेताओं की भरमार थी. भाजपा और दूसरे पनपते क्षेत्रीय दल इस से अछूते नहीं हैं. अरुण जेटली के बजट पर आम प्रतिक्रिया यही थी कि जो मंत्री वित्त के माने नहीं जानता उस से क्या खा कर उम्मीद रखें. भले ही जेटली वाणिज्य स्नातक हों पर उन्हें इस डिगरी के चलते अर्थशास्त्री या वित्त विशेषज्ञ नहीं कहा या माना जा सकता.

कैरियर और शिक्षा

सम्मानित और ऊंचे पदों पर कम शिक्षितों के दबदबे के चलते खासतौर पर युवा पीढ़ी में हमेशा से ही हताशा का माहौल रहा है जिस से उबरने के लिए वह नेताओं की शिक्षा को ले कर मजाक भी उड़ाती रही है. लेकिन इस से समस्या हल नहीं हो जाती, भड़ास ही निकल पाती है. दिक्कत तो यह है कि जो तकनीकी या मैनेजमैंट की डिगरी ले लेता है, जो आजकल ज्यादा अहम है, वह राजनीति को दूर से ही हाथ जोड़ लेता है. नई पीढ़ी समझदार है. वह सुरक्षित और गारेंटेड भविष्य चाहती है, जो कम से कम हालफिलहाल तो राजनीति में नहीं है. हर किसी की इच्छा अब एमबीए करने की इसलिए है कि उस की रचनात्मकता और शिक्षा का सही उपयेग हो.

आज के युवा सही कहते हैं कि अगर नेता ही बनना होता तो वे इतना पढ़ते ही क्यों. युवा, नेता नहीं बल्कि इंजीनियर और प्रबंधक क्यों बनना चाहते हैं, इस पर चर्चा की तमाम गुंजाइशें मौजूद हैं. वे बीए, एमए नहीं बल्कि एमबीए क्यों करना चाहते हैं, इस पर तो खासा शोध हो सकता है जिस का सार यही निकलेगा कि देश की तरक्की में नेताओं से बड़ा योगदान युवाओं का है जिन में वाकई कुछ कर गुजरने का जज्बा है और बकौल हीरालाल वर्मा बात ईमानदारी भरा जीवन जीने की है, विलासी जीवन की नहीं. तेजी से देश का बदला रूप कहता है, जागरूकता आ रही है. इस से चिंता नेताओं, खासतौर से कम पढ़ेलिखे नेताओं को होती है क्योंकि इस से उन की हकीकत और रोजीरोटी पर खतरा मंडराने लगता है. शायद इसीलिए मानव संसाधन विकास मंत्रालय उन हाथों में दे दिया जाता है जो प्रबंधन तकनीक और शिक्षा की ए बी सी डी भी नहीं जानते. मकसद यह है कि पढ़ाई के मौके बढ़ाए न जाएं, उसे इतना महंगा कर दिया जाए कि मध्यवर्गीय छात्र आसानी से न पढ़ पाएं और गरीब छात्र तो इस बाबत सोचे ही नहीं.

शिक्षित आगे आएं

गांवदेहातों में तो हालात और भी बुरे हैं. इसीलिए नरेंद्र मोदी की चाय बेचने की इमेज चल गई. सभी शिक्षित होते तो बात शायद न बनती. मोदी ने जो माहौल बना लिया था उसे बरकरार रखने में उन्हें अब पसीने आ रहे हैं. शायद ही कोई इवैंट कंपनी उन्हें ऐसा रास्ता बता पाए कि शोहरत की सीढ़ी से बगैर गिरे, नीचे उतरने का तकनीकी गुण क्या है. आज एक विधायक सीना ठोक कर अपने बेटे को राजनीति में लाने के बजाय सरकारी नौकरी पर तवज्जुह दे रहा है, तो इशारा साफ है कि ज्यादा पढ़ेलिखे लोगों को राजनीति में आना चाहिए ताकि महत्त्वपूर्ण, ऊंचे और सम्मानित पदों पर उच्चशिक्षित लोग बैठें जिन के वे ही हकदार हैं. प्रक्रिया हालांकि धीमी है लेकिन यह अब महज अवधारणा नहीं रह गई है.

इस बाबत संविधान और शिक्षा पद्धति में बड़े बदलाव की जरूरत है. राजनीति और शिक्षा को किसी न किसी निवार्यता से जोड़ा जाए. कोई भी चुन कर संसद पहुंच जाए, यह ज्यादा हर्ज की बात नहीं लेकिन उसे ऊंचे पद पर बैठने से रोकने के लिए कुछ शैक्षणिक योग्यताएं तय करनी जरूरी हैं वरना शिक्षा एक महत्त्वहीन आवश्यकता बनी रहेगी.

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