विश्व के सभी देशों में किसी न किसी रूप में नारी उत्पीडि़त है, चाहे व विकसित देश हों या विकासशील. पुरुषों की तरह अधिकार व स्वतंत्रता पाने के लिए महिलाएं संगठन बना कर आवाज भी उठाती हैं परंतु वह भी नक्कारखाने में तूती की आवाज ही साबित होती है. सभ्य समाज स्त्री के अधिकारों को मान्यता तो देता है पर आगे बढ़ने के समय वह रोड़े भी अटकाता है क्योंकि पुरुष खुद अपने वर्चस्व में कमी नहीं आने देना चाहता.हर साल 8 मार्च को पूरा विश्व महिला दिवस मनाता है. बड़ीबड़ी बातें की जाती हैं. मानवाधिकार आयोग व संयुक्त राष्ट्र संघ अपनीअपनी रिपोर्ट पेश करते हैं. गलतियों को सुधारने के लिए पहले किए गए प्रण को फिर से दोहराया जाता है, पर होता कुछ नहीं. उदाहरण के लिए भारत में 33 प्रतिशत महिला आरक्षण बिल संसद में वर्षों से लटक रहा है.

इस में रोचक बात यह है कि कई अफ्रीकी व मुसलिम देशों की स्त्रियां, जो अशिक्षित हैं, स्वयं सुधरने के नाम पर विरोध प्रदर्शन करती हैं. पश्चिम अफ्रीका में तकरीबन 62 लाख आबादी वाला एक छोटा देश सिएरालियोन है. वहां की 500 महिलाओं ने एक जुलूस निकाला था. उन के हाथों में बोर्ड पर लिखा था, ‘महिलाओं के सुन्नत कराने का विरोध करने वालों को फांसी पर चढ़ा दिया जाए’. मतलब यह कि वे सुन्नत कराने की प्रथा के पक्ष में हैं. है न विचित्र बात? वहां के जंगलों में रहने वाली बुंड जाति की लड़कियों के वयस्क होते ही उन के भगांकुर को ब्लेड या चाकू से काट दिया जाता है, जिस में उन्हें असह्य पीड़ा झेलनी पड़ती है. कभीकभी तो लड़कियां बेहोश तक हो जाती हैं.

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