‘देख तमाशा देख’ एक छोटी सी घटना पर मचे बवाल पर आधारित है. इस में राजनीतिबाजों और धर्म के धंधेबाजों पर व्यंग्य किया गया है. लेकिन यह व्यंग्य असरदार नहीं रहा है. फिल्म एक तमाशा बन गई है.

फिल्म की कहानी एक सच्ची घटना पर आधारित बताई गई है. यह कहानी एक छोटे से गांव की है जहां हिंदू और मुसलिम संप्रदाय के लोग रहते हैं. उसी गांव में एक राजनीतिबाज मुथ्था सेठ (सतीश कौशिक) भी रहता है. एक गरीब आदमी शहर के चौराहे पर मुथ्था सेठ का बहुत बड़ा कटआउट लगाते समय होर्डिंग के नीचे दब कर मर जाता है. लाश पर राजनीति गरमा जाती है. लाश को मुसलमान दफनाने के लिए ले जाते हैं, क्योंकि मरने वाले का नाम हामिद था और वह मुसलमान था. उधर हिंदू धर्म के ठेकेदार लाश को दफनाने नहीं देते. वे मरने वाले का नाम किशन बताते हैं और उसे हिंदू बताते हैं. पुलिस लाश को कब्जे में ले लेती है.

शहर में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठते हैं. धर्म के ठेकेदार लोगों को भड़काते हैं. अदालत में मुकदमा चलता है. अदालत फैसला देती है कि लाश उस के हिंदू भाई को सौंपी जाए. लाश भाई को दे दी जाती है. परंतु उस का हिंदू भाई लाश को दफनाने ले जाता है. पुलिस इंस्पैक्टर यह देख कर अपनी टिप्पणी करता है कि लाश को अगर दफनाना ही था तो यह तमाशा करने की क्या जरूरत थी? असल में उस का भाई छोटी जाति का था और उन की जाति में लाश को दफनाया ही जाता था.

फिल्म की इस कहानी में किशन उर्फ हामिद की जवान बेटी शब्बो और एक हिंदू युवक प्रशांत की प्रेम कहानी भी है. मुसलमान दंगाई प्रशांत को मार डालते हैं.

फिल्म की यह कहानी काफी कमजोर है. निर्देशक व्यंग्य करने में असफल रहा है. उस ने फिल्म में एक मौलवी को भड़काऊ भाषण देते भी दिखाया है जो कहता है कि जन्नत में 70 हूरें मिलेंगी. तुम्हारे घरों में तो मैलीकुचैली बीवियां ही हैं. इस के अलावा अदालत में जज द्वारा क्रौस क्वेश्चन करते हुए हंसी का माहौल क्रिएट किया गया है.

फिल्म में ग्लैमर का अभाव है. बहुत सी बातों की खिचड़ी सी पकाई गई है. कोई कलाकार प्रभावित नहीं कर पाता. फिल्म में गाने नहीं हैं. फिल्म कोई संदेश भी नहीं देती.

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