सरित प्रवाह, मई (प्रथम) 2013

संपादकीय टिप्पणी ‘मोदी मिशन का सच’ अत्यंत रोचक, सामाजिक, सामयिक व हकीकत से लबरेज लगी. आप का यह कहना बिलकुल सही है कि चुनाव अगर भाषण से जीते जाते तो अटल बिहारी वाजपेयी 1971 में ही प्रधानमंत्री बन जाते और उन्हें 2004 की हार न देखनी पड़ती. उस समय ‘अतुल्य भारत’ का नारा भाजपा के सिर चढ़ कर बोल रहा था. पार्टी विश्वास से पूरी तरह लबरेज थी कि जीत उसी की होगी, मगर हुआ उलटा. कांगे्रस पार्टी भारी बहुमत से तो जीत हासिल नहीं कर सकी पर पिछले 9 सालों से कांग्रेस ही सरकार चला रही है, भले ही गठबंधन की सरकार हो.

भाजपा के नेता व गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा छोड़ दिया है और विकास का अपना नजरिया पेश कर रहे हैं. मोदी के विकास के हवाई प्रवचनों में जादू की कहानियां हैं. भाजपा की रामलीला में अभी तक तय ही नहीं हो पाया, राम कौन बनेगा. रामनाम जपने वाली इस पार्टी में राम के लिए महाभारत का माहौल दिख रहा है. दावेदार कई हैं पर वनवास के लिए नहीं, राजतिलक कराने के लिए आतुर हैं. लक्ष्मण, भरत, हनुमान बनने को कोई तैयार नहीं, अलबत्ता तवज्जुह न मिलने पर विभीषण और बातबात पर श्राप देने वाले व संन्यास की धमकी देने वाले जरूर दिखते हैं. प्रधानमंत्री पद के लिए मोदी की बेचैनी साफ देखी जा सकती है.

केवल भाषणों से लोगों का पेट नहीं भरता. देश चलाने के लिए चुनौतियों का सामना करने के लिए जज्बा चाहिए और नया नजरिया होना चाहिए. मोदी के दामन पर सांप्रदायिक नरसंहार के दाग हैं.

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