सरित प्रवाह, अप्रैल (द्वितीय) 2013

संपादकीय टिप्पणी ‘संजय दत्त, कानून, सजा’ बड़े मनोयोग से पढ़ी. आप के स्पष्ट, निष्पक्ष और बिंदास विचार वास्तव में काबिलेतारीफ हैं. आप की लेखनी निडरता व बिना लागलपेट के अपना विचार व्यक्त करती है.

कहा जाता है कि ‘जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनायड’ यानी देर से किए गए न्याय का कोई औचित्य नहीं रह जाता. आज अदालतों में 20 सालों से ज्यादा समय से लंबित मुकदमे बिना न्याय के लटके हुए हैं. मुकदमा करने वाले कई तो न्याय पाने की आस में दूसरी दुनिया के वासी हो गए हैं. ऐसे में अगर उन के मरने के बाद न्याय मिलता है तो ऐसे न्याय से उन को क्या फायदा हुआ.

अभी हाल ही में एक मुकदमे में 20 साल बाद फैसला आया है जिस में एक डीएसपी को फर्जी मुठभेड़ में मार गिराया गया था. फैसला सुन कर उन की आईएएस बेटी न्यायालय में ही रो पड़ी और उस की मां फैसला सुनने के लिए अब तक जिंदा नहीं बची थीं.

किसी भी अपराध के पीडि़तों को पहला सुकून तब मिलता है जब अपराधी को सजा मिल जाए और सजा ऐसी कि वह पीडि़त को दोबारा प्रताडि़त न कर सके. आप का यह सु?ाव कि अगर समाज ऐसी न्याय व्यवस्था नहीं तैयार कर पा रहा जिस में पीडि़त को संतोष मिल सके और जनता को भरोसा मिले कि देश में कानून का राज चल रहा है तो दोषी सरकार, पुलिस, नेता, अदालतें और न्यायाधीश सभी हैं, यह कथन सत्य से सराबोर है.

देश की अदालतों में लाखों ऐसे मुकदमे भी लंबित हैं जिन में वर्षों से अभियुक्तों पर अपराध सिद्ध नहीं हुए पर जमानत न मिलने के कारण वे जेलों में सड़ रहे हैं, यह भी अमानवीय है, जनता के साथ अन्याय है. संजय दत्त का मामला तो सिर्फ ?ाक?ोरने के लिए है कि 20 वर्ष बाद अपराधी या निरपराधी सिद्ध करने का अर्थ क्या है? इस तरह के अपराधों में सरकार केस को त्वरित निबटाने के लिए आदेश दे तब तो कुछ सार्थक हल निकल सकता है.

प्रधानमंत्री व सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने भी कई बार अधिक दिनों से लंबित पड़े मुकदमों को शीघ्र निबटाने के लिए सु?ाव दिए हैं.

कैलाश राम गुप्ता, इलाहाबाद (उ.प्र.)

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‘संजय दत्त, कानून, सजा’ टिप्पणी में उठाया गया लचर न्याय प्रक्रिया से संबंधित आप का सवाल समाज, देश व उस के शासकों को ?ाक?ोर देने के लिए काफी है. यह बात अलग है कि ये सभी अपनीअपनी कर्तव्यविमुखता का दोष एकदूसरे पर डाल कर अपना पल्ला ?ाड़ लें. ‘आतंक के जनक’ दसियों सालों तक पकड़े नहीं जाते हैं जबकि संजय दत्त जैसे लोग मात्र ‘हथियार रखने’ के अपराध में सालों तक के लिए नाप दिए जाते हैं.

इस से ज्यादा शर्मनाक और क्या होगा कि वर्ष 1993 के मुंबई हमले के मास्टरमाइंड तो आज तक हमारे पड़ोसी के राज में खुले सांडों समान बेखौफ घूमते हमारी प्रभुसत्ता तक को ललकारते फिर रहे हैं कि अगर दम है, तो उन पर हाथ डाल कर दिखाओ, कुख्यात दाऊद इब्राहिम और टाइगर मेनन क्या इस के पुख्ता सुबूत नहीं? आप का यह सु?ाव भी अति महत्त्वपूर्ण, तथ्यजनक व विचारणीय है कि हमारे यहां सस्पैंडेड सजा का प्रावधान क्यों नहीं किया जा सकता. ताकि किसी जानेअनजाने में किए गए अपराध को अगर आरोपी भूल कर मान या स्वयं में सुधार कर अपने को पेश करे तो उसे जांचपरख कर माफ भी किया जा सके.

 ताराचंद देव रेगर, श्रीनिवासपुरी (दिल्ली)

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आप की टिप्पणी ‘चीन और बच्चा नीति’ पढ़ी. यह टिप्पणी बिलकुल सामयिक और हर तरह से देश के हित में है. चीन का यह दावा बिलकुल सत्य से ओतप्रोत है कि 1980 के दशक में उस के कम्युनिस्ट तानाशाहों ने जो ‘एक बच्चा’ नीति, लागू की थी, आर्थिक चमत्कार उसी का परिणाम है. ज्यादा बच्चों की अपेक्षा अगर दंपती के पास एक बच्चा हो तो उस का लालनपालन, पढ़ाईलिखाई, खानपान, पहनावा सब उच्चकोटि का होगा. वह ज्यादा स्वस्थ, पढ़ाई में प्रखर, शरीर मजबूत, निरोग व हमेशा प्रसन्न रहेगा. मातापिता को भी ज्यादा बच्चों की परवरिश की अपेक्षा, उस की परवरिश में काफी सुविधा रहेगी. कम बच्चे हों तो मातापिता 5-7 साल बाद बच्चों की जिम्मेदारी से लगभग मुक्त हो जाते हैं और अपने काम पर समय व शक्ति ज्यादा लगा सकते हैं, काम चाहे खेतों में हो या कारखानों या फिर दफ्तरों में. कम बच्चे होने पर पारिवारिक बचत बढ़ जाती है जो देश की पूंजी बनती है.

हमें चीन की ‘एक बच्चा नीति’ का विरोध नहीं करना चाहिए और भारत को भी देश में इस का जम कर प्रचार करना चाहिए.

 कैलाश, इलाहाबाद (उ.प्र.)

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मिट्टी से जुड़ी पत्रिका

बचपन से ही मैं ने सरिता को अपनी माताजी के हाथों में देखा है. रेलगाड़ी से यात्रा के दौरान, मेरी गाड़ी अंबाला रेलवे स्टेशन के मैग्जीन स्टौल के ठीक सामने रूकी. मैं ने स्टौल पर सरिता को देखा. रोज की भीड़भाड़ में वक्त ही नहीं मिला कि इस खजाने को जान सकूं. उस दिन मैं पता नहीं कैसे उस स्टौल के सामने जा कर खड़ी हो गई.

मैं उन सभी सुनहरे व रूपहले पलों का भ्रमण करना चाहती थी जो मेरी माताजी ने इस पत्रिका के साथ किए. मेरे पिताजी का तबादला दूरदराज के इलाकों में होता रहता था. इस बीच दिल्ली जैसे शहर में सरिता ने मेरी माताजी को अकेलेपन का एहसास नहीं होने दिया, बल्कि एक संगिनी की तरह हमेशा साथ दिया.

मैं भी उन सभी लमहों से वाकिफ होना चाहती थी. इसलिए अगले ही क्षण वह पत्रिका मेरे हाथों में थी. मैं अंतर्मन से समस्त संपादकीय टीम का धन्यवाद करना चाहूंगी, हमें इतने सच्चे व सुदृढ़ लेख प्रदान करने के लिए. व्यंग्य, स्तंभ, लेख, कहानी सब अपने स्थान पर अग्रणी हैं.

मैं सरिता पत्रिका से हमेशा के लिए जुड़ गई हूं, अपनी माताजी के दिखाए हुए एक और रास्ते को मैं ने अपना लिया है.

एक पाठिका

 

धर्मांध लोग अपने गिरेबां में झांकें

अप्रैल (द्वितीय) अंक में ‘वृंदावन की विधवाओं से होली का स्वांग’ शीर्षक से प्रकाशित रपट में थोड़ी भी सचाई है तो धर्म के इन ठेकेदारों, विधवाओं की तथाकथित सेवादारी में लगे पंडेपुजारियों व विधवाओं की मृतदेह को टुकड़ों में (कसाइयों समान) काट कर बोरों या पौलिथीनों में भर कर फेंक देने वाले तत्त्वों को चुल्लूभर पानी में डूब कर मर जाना चाहिए. हमारे समाज में पुरुषों में जो पितृप्रधान होने का गुमान हमारे ऐसे ही दुष्ट, धर्मप्रवृत्ति के लोगों ने कूटकूट कर भर रखा है, क्या वे विधुर नहीं होते? क्यों उन्हें सिर मुंडवा कर अपनी पत्नी की चिता में ‘सता’ होने को नहीं कहा जाता?

स्त्री समाज के जानी दुश्मन, इन धर्मांध तत्त्वों को अपने अगले पल का तो पता नहीं होता है कि क्या होने वाला है जबकि बातें वे पिछले जन्म की यों करते नजर आते हैं जैसे किसी के (विशेषकर विधवाओं के) पूर्व जन्म में वे ही साक्षात भविष्यवक्ता थे, जो वे फरमाते हैं कि पति की मौत तो पत्नी के पिछले जन्म के पापों के कारण ही होती है. मगर ऐसी कुंठित सोच वाले धर्म के ठेकेदार कभी अपने गिरेबां में ?ांकें, तो उन्हें पता चल जाएगा कि असली पापी कौन है?’

 टी सी डी गाडेगावलिया, (नई दिल्ली)

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वृंदावन की विधवाओं के बारे में पढ़ कर तो वाकई मैं चौंक गया. जिन सामाजिक दरिंदगियों को आजादी के बाद अभी तक समाप्त हो जाना चाहिए था वे न केवल पनप रही हैं बल्कि विधवाओं को मिलने वाली सरकारी सुविधाएं भी दलाल हड़प कर रहे हैं. ताज्जुब की बात है कि मरने के बाद विधवा के शव को टुकड़ों में काट कर, बोरे में भर कर फेंक दिया जाता है और यह कहीं और नहीं बल्कि हमारे उन तीर्थ स्थानों (वृंदावन, मथुरा और बनारस के विधवा आश्रम) में हो रहा है जिन को आज भी रामकृष्ण के लिए याद किया जाता है.

मैं सम?ाता हूं कि सब से पहले तो उन शहरों की गैरसरकारी संस्थाओं की खबर लेनी चाहिए. टीवी चैनल्स पर चर्चाएं अगला प्रधानमंत्री कौन बनेगा पर न हो कर विधवा आश्रम में रहने वाली विधवाओं की दयनीय अवस्था पर होनी चाहिए. मैं अकसर पढ़ता और देखता हूं कि छोटे तबके के लोगों को राज्य सरकारें पक्के मकान बना कर देती हैं और उन्हें आजादी से जीने देती हैं. तो क्या वजह है कि बेचारी विधवाएं कालकोठरी में अपना जीवन व्यतीत करने पर मजबूर हैं?

आजकल नारी के सम्मान की बात हो रही है, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि नारी का जीवन भी पति की मृत्यु के बाद उतना ही आवश्यक है जितना कि एक पति का उस की पत्नी की मौत के बाद. आशा करता हूं कि इस लेख के छपने से दोनों केंद्र और उत्तर प्रदेश सरकारें विधवाओं की हालत सुधारने की पूरी कोशिश करेंगी.

ओ डी सिंह, वडोदरा (गुजरात)

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जब हों बीमार…

‘कैसे पाएं महंगे इलाज से नजात’ शीर्षक से मार्च (द्वितीय) अंक के पृष्ठ संख्या 92 और ‘कहीं देर न हो जाए’ शीर्षक से पृष्ठ संख्या 96 पर प्रकाशित लेख एकदूसरे के विपरीत संदेश दे रहे हैं. पहले लेख में बीमारी का स्वयं इलाज करने या सिर्फ मैडिकल स्टोर में मौजूद दवा विक्रेताओं से दवा ले कर इलाज करने पर जोर दिया गया है. उस लेख के लेखक कोई डाक्टर नहीं हैं. वहीं, दूसरे लेख में बीमारी की शंका मात्र होने पर डाक्टर से तुरंत सलाह लेने पर जोर है. मैं एक फिजीशियन हूं और इस नाते मैं सभी को यह सलाह देता हूं कि किसी भी तरह की बीमारी का अंदेशा हो तो मैडिकल स्टोर के बजाय डाक्टर के पास जाएं.

डा. सौरभ कंसल

हम आमतौर पर चाहते हैं कि लोग चिकित्सक के पास ही जाएं पर यदि वे उपलब्ध न हों तो मैडिकल स्टोर के लाइसैंसशुदा कैमिस्ट से साधारण

दवाओं के लिए जैसे सिरदर्द, पेटदर्द या चोट पर दवा की राय लेना किसी तरह गलत नहीं हैं. इस पर आपत्ति की गुंजाइश नहीं है. यह न भूलें कि छोटी सी सलाह के लिए भी डाक्टर 500 से 1500 रुपए मांग लेते हैं. यह ज्यादा गलत है.

-संपादक 

विधवाओं की दुर्गति

अप्रैल (द्वितीय) अंक में प्रकाशित लेख ‘वृंदावन की विधवाओं से होली का स्वांग’ ने अंतआर्त्मा को ?ाक?ोर दिया. चाहे वह कोई भी धर्म हो, क्या धर्मग्रंथों की रचना केवल स्त्री शोषण के लिए हुई है. अगर ऐसा है तो आस्तिक से नास्तिक होना कहीं बेहतर है. हिंदू धर्म में विधवाओं के साथ बुरा सुलूक होता है, ऐसा सुनती थी किंतु इतना बर्बर सुलूक होता है, यह अब जान पाई. क्या विधवाएं इस समाज का अंग नहीं? क्या उन्हें भी सम्मान भरा जीवन नहीं चाहिए?

एक विधवा की दुर्गति की कहानी सर्वप्रथम उस के परिवार में लिखी जाती है. इस स्त्री समाज को सरकार ने क्यों उपेक्षित कर रखा है? जब किसी विधवा को परिवार द्वारा ठुकराया जाता है तभी वह वृंदावन या काशी का रुख करती है. सरकार को ऐसे परिवारों को दंडित करना चाहिए और एक विधवा को उस के घर में उस का हक मिलना ही चाहिए.

उद्योगपति जो मठोंमंदिरों में लाखों का चढ़ावा देते हैं ताकि उन के पाप धुल सकें तो क्या वे एक विधवा आश्रम को संरक्षण नहीं दे सकते. आखिर कब तक धर्म के ठेकेदार स्त्री को पशु से भी बदतर सम?ाते रहेंगे? सच तो यही है कि पुरुष सदैव स्त्री के लिए लक्ष्मणरेखा खींचते रहे हैं. इन की सोच बदलना आसान नहीं किंतु पाखंडियों पर कानूनी अंकुश तो लगाया ही जा सकता है. इस में सुधार की जिम्मेदारी महिलाओं को ही उठानी होगी. सर्वप्रथम कमउम्र विधवाओं को रोजगार दिया जाए और यदि वे चाहें तो उन का पुनर्विवाह करवाया जाए. अधेड़ या बूढ़ी विधवाओं के लिए सरकार और धर्म के नाम पर महादान करने वाले उद्योगपतियों को उन का संरक्षक बनाया जाए. महादान से कहीं बेहतर है किसी जरूरतमंद की सेवा की जाए.

शशिकला सिंह, सुपौल (बिहार)

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