लेखक – डा. दीपक कोहली
Uttarakhand Cloudburst : उत्तराखंड के धराली गांव में 5 अगस्त को बादल फटने से भारी तबाही मची. कई लोग लापता हुए और कुछ के मरने की खबर आई. इस साल भी जिस तरह पहाड़ों पर जलप्रलय देखने को मिला उस ने तेजी से बदलते जलवायु परिवर्तन को ले कर चिंताएं खड़ी कर दी हैं.
हाल ही में उत्तराखंड राज्य स्थित उत्तरकाशी जनपद के धराली गांव में जो घटित हुआ वह केवल एक प्राकृतिक आपदा नहीं बल्कि विज्ञान, पर्यावरण और मानवीय लापरवाही के सम्मिलित प्रभावों का विस्फोट था. इस त्रासदी में दर्जनों जानें गईं, सैकड़ों लोग लापता हुए और पूरा गांव 20 सैकंड में पानी, मलबे और चट्टानों के सैलाब में समा गया. धराली, उत्तरकाशी जिले में गंगोत्री मार्ग पर स्थित एक छोटा लेकिन पर्यटन और तीर्थ दृष्टि से महत्त्वपूर्ण गांव है. धराली कोई साधारण गांव नहीं. गंगोत्री धाम से केवल 18 किलोमीटर दूर स्थित यह गांव तीर्थयात्रियों का एक प्रमुख पड़ाव रहा है. यह क्षेत्र हिमालय की मध्य श्रेणियों में स्थित है और 2,500 मीटर से अधिक ऊंचाई पर बसा हुआ है. इस के पास ही भगीरथी, गंगा की प्रमुख धारा और कई ग्लेशियल धाराएं बहती हैं. यहां की चट्टानें अपेक्षाकृत भंगुर और अस्थिर हैं. यह संपूर्ण भौगोलिक स्थिति इसे अत्यंत आपदा-संवेदनशील बनाती है.
धराली जैसे गांव वर्षों से प्राकृतिक आपदाओं के खतरे में हैं. उन की भौगोलिक स्थिति ऐसी घाटी में है जहां विशाल चढ़ावउतार, संकरी नालियां और नदियां हैं और वहां अत्यधिक बारिश होने की संभावना रहती है. 5 अगस्त को जब बादल फटा तो बाजार की दुकानें, मकान, होटल, होमस्टे सब तबाह हो गए और देखते ही देखते 30 फुट तक मलबा जमा हो गया. तीर्थ, पर्यटन, खेती, सेब बगीचे और बाजार जीवन की धड़कन हैं लेकिन जब इस तरह बादल फटते हैं तो सबकुछ मिनटों में मिट्टी में मिल जाता है. सड़कों का संपर्क टूट जाता है, बिजली, पानी, टैलीफोन, इंटरनैट जैसी बुनियादी सुविधाएं ठप हो जाती हैं, लोग अपने परिजनों की खोज में भटकने को मजबूर हो जाते हैं. धराली की घटना अविस्मरणीय है क्योंकि यह न केवल प्राकृतिक त्रासदी की तसवीर है बल्कि मानवजनित असंतुलन और जलवायु परिवर्तन के भयानक इशारे भी हैं इस में.
वैज्ञानिक परिभाषा के अनुसार, जब सीमित क्षेत्र, आमतौर पर कुछ किलोमीटर दायरे में, बेहद कम समय अर्थात एक घंटा या उस से कम समय के लिए 100 एमएम या उस से अधिक बारिश होती है तो उसे बादल फटना या क्लाउड बर्स्ट कहते हैं. इस से एकाएक बाढ़ जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है. ऐसा तब होता है जब नमी से भरी गरम हवा पहाड़ों, खासकर हिमालय-श्रृंखला के ऊंचे इलाकों से टकरा कर ऊपर उठती है, वहां वह अचानक ठंडी हो कर स्कंधीकृत (कंसोलिडेटेड) भारी वज्रपातीय बादलों में बदल जाती है. जब पानी का भार बादलों में बहुत अधिक हो जाता है तो वे अचानक गुरुत्वाकर्षण की वजह से भारी जलवर्षा के रूप में फूट पड़ते हैं. फटने की इसी प्रक्रिया में महज कुछ ही मिनटों में लाखों लिटर पानी धरती पर गिरता है, पहाड़ी ढलान होने के कारण यह पानी बहुत तेज बहाव के साथ मिट्टी, चट्टान, पेड़, घर, इंसान और जानवर तक सबकुछ बहा ले जाता है.
पहाड़ों की ढलानें पानी को रोक नहीं सकतीं, इसलिए बरसात का सैलाब तेजी से नीचे की ओर बहता है और प्रलय का दृश्य बन जाता है. जलपीडि़त गांव, टूरिस्ट, खेती, परिवहन, बाजार सबकुछ मिनटों में बरबाद हो जाता है. हादसे वाले दिन सुबह अत्यधिक आर्द्रता और स्थानीय तापमान असंतुलन के कारण संवहनीय बादल बने थे जिस से 3 से अधिक स्थानों पर एकसाथ बादल फटने की पुष्टि हुई. इस कारण मलबे के साथ पानी की अत्यधिक मात्रा ने पूरे क्षेत्र को तबाह कर दिया. इस बात में दोराय नहीं कि बादल फटना एक प्राकृतिक घटना है, जिस पर इंसानों का कोई जोर नहीं लेकिन यह भी एक उद्वेलित करने वाला तथ्य है कि जब पानी के निकलने के रास्तों, नालों-गदेरों के मुहानों पर कंक्रीट के बड़ेबड़े स्ट्रक्चर खड़े हो चुके हैं तो फिर उन तमाम जगहों से जिन रास्तों से पानी को बहना था आखिर वह कैसे निकलेगा. उन रास्तों पर तो ‘प्रकृतिप्रेमी’ इंसान बस चुका है. स्पष्ट है कि यह जानबूझकर आफत बुलाने जैसा है. इसी के चक्कर में भारी जनधन की हानि ?ोलनी पड़ती है.
वैज्ञानिकों का एक अन्य अनुमान है कि धराली के पास स्थित एक ग्लेशियर ?ाल भी फटी हो सकती है, जिस से ?ाल में जमा बर्फ और पानी एकसाथ नीचे की ओर बहा. यदि यह सच है तो यह एक हिमनद ?ाल के फटने से बाढ़ की घटना थी, जो हिमालयी क्षेत्रों में ग्लोबल वार्मिंग के कारण तेजी से बढ़ रही है.
2025 तक भारत में 300 से अधिक संभावित हिमनद के फटने से बाढ़ की घटना के स्पौट चिह्नित किए जा चुके हैं. इस के अलावा धराली की त्रासदी को जलवायु परिवर्तन से अलग कर के नहीं देखा जा सकता. पिछले दो दशकों में हिमालयी क्षेत्र में औसत तापमान 1.3 डिग्री सैल्सियस तक बढ़ चुका है. इस से ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं और ग्लेशियल ?ालें बन रही हैं. वर्षा का पैटर्न अनियमित हुआ है, कभी बहुत कम तो कभी बहुत अधिक वर्षा.
मानसून अब हिमालय में ज्यादा तीव्र और अस्थिर हो चला है. जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल की रिपोर्ट्स पहले ही इस क्षेत्र को ‘हौटस्पौट औफ हाइड्रो-क्लाइमेटिक रिस्क’ घोषित कर चुकी हैं.
अनियंत्रित मानवीय हस्तक्षेप
धराली त्रासदी की एक बड़ी वजह अनियंत्रित मानवीय हस्तक्षेप भी रहा. सड़क चौड़ीकरण परियोजनाएं, भारी मशीनों से पहाड़ों की कटाई, पर्याप्त रिटेनिंग वाल न होना, मलबा नदियों में डाला जाना आदि से प्राकृतिक जल निकासी तंत्र अवरुद्ध हुआ. अवैध होटल और निर्माण कार्य, बगैर पर्यावरणीय स्वीकृति के निर्माण, नदी किनारे और ढलानों पर होटल, सीवेज और कचरा सीधे नदियों में, पेड़ों की कटाई और भूमि अपरदन, भूमि की जलधारण क्षमता कम हुई, जड़ें मिट्टी को पकड़ नहीं सकीं, भूस्खलन की संभावना बढ़ी.
सुप्रीम कोर्ट ने विभिन्न जनहित याचिकाओं में समयसमय पर गाइडलाइन जरूर दी हैं, मगर इन्हें ताक पर रख कर अनापशनाप निर्माण तो जैसे पहाड़ों में रिवाज हो चला है. यदि जलवायु परिवर्तन और मौसमी बदलावों के बीच हम पर्यावरण और परिस्थितिकी से तालमेल बनाने के बजाय हालात को मनमाने ढंग से रौंदते चले जाएंगे तो निश्चित ही ऊपरी हिमालय में होने वाली हलचलें धराली जैसे मंजर दोहराती रहेंगी.
मौसमी बदलावों के कारण ऊपरी हिमालय में ग्लेशियरों के गलन की बढ़ती गति और भूगर्भीय हलचलें बड़े पैमाने पर मलबा जुटा रही हैं. वहां बारिश और हिमस्खलन से अस्थायी ?ालें बन रही हैं. बादल फटने और अतिवृष्टि जैसे प्रकोपों के दौरान मौका पाते ही सारा मलबा बाढ़ और भूस्खलन को साथ ले कर कई गुना ताकत से बह कर नीचे तबाही मचा डालता है. धराली के जलप्रलय के पीछे भी विशेषज्ञ यही अनुमान लगा रहे हैं कि पानी का ऐसा रौद्र रूप ऊपर किसी अस्थायी ताल या ?ाल के टूटने से ही संभव है.
हादसों के कारणों को नजरअंदाज करना घातक
पुराने समय में लोगों को प्रकृति के साथ रहने और उस का मिजाज समझने का गहरा और व्यावहारिक सलीका आता था. हिमालय में उच्चे पथों पर धार्मिक और सांस्कृतिक यात्राओं का उद्देश्य ही यह था कि वहां होने वाली हर हलचल से वाफिक रहें. अब खासकर पहाड़ों में पर्यटन के बढ़ते रु?ान ने नए तरह के दबाव पैदा किए हैं. पुरानी परंपराएं और परिपाटियां पर्यटन का आधुनिक चोला ओढ़ कर उद्देश्यों से भटक चुकी हैं. बेशक पर्यटन से लोगों की आजीविका के रिश्ते को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता लेकिन क्या इसे इतनी हद तक छूट दे दी जाए कि आपदा और मनुष्य के बीच बचाव की गुंजाइशें न रहें? भू-गर्भशास्त्री धराली को पहले ही बारूद का ढेर बताते रहे हैं लेकिन इन चेतावनियों को अनसुना कर सरकारें यहां पर्यटन संबंधी व्यापार का सपना संजोती आई हैं.
अभी हाल में सुप्रीम कोर्ट ने हिमाचल प्रदेश में अनियंत्रित और अराजक पर्यटन को ले कर यहां तक कह डाला कि सूरते हाल यही रही तो हिमाचल देश के नक्शे से मिट जाएगा. अदालत ने वहां आई आपदाओं को कुदरती कोप नहीं, मानवीय कारस्तानी बताया है. सर्वोच्च अदालत 2013 में लगभग यही बातें उत्तराखंड के बारे में भी कह चुकी है. केदारनाथ की विनाशलीला के फौरन बाद 13 अगस्त, 2013 को ‘अलकनंदा हाइड्रो पावर प्रोजैक्ट बनाम अनुज जोशी व अन्य’ के केस में फैसला सुनाते हुए जस्टिस के एस राधाकृष्णन और जस्टिस दीपक मिश्रा ने उत्तराखंड की सूरत ए हाल के लिए जलविद्युत परियोजनाओं को जिम्मेदार ठहराया था जोकि अदालत के ही शब्दों में ‘बगैर किसी ठोस अध्ययन के आननफानन मंजूर की जा रही हैं.’
हम ने देखा था कि केदारनाथ की त्रासदी पर पूरा देश एकजुट दिखा था और केंद्र सरकार, राज्य सरकारें, निजी घराने, समाचारपत्र समूह, न्यास, सामाजिक संगठन और विद्यार्थियों समेत देश का हर तबका तनमनधन से सहायता को आगे आया था तब सरकारें चाहतीं तो सहानुभूति के उस जज्बे को हिमालय और उस के पारिस्थितिक तंत्र की चिंताओं से जोड़ कर देख सकती थीं. हिमालय की हिफाजत से संबंधित सिफारिशों, निर्णयों और नीतियों को अमली जामा पहनाने का उस से सटीक अवसर कोई और नहीं हो सकता था.
यह देशभर से मिली सहायता और सहानुभूति का संतोषप्रद विनिमय होता लेकिन ऐसा नहीं हुआ. हादसों के बावजूद सरकारें हिमालय की इकोलौजी के मद्देनजर भू-वैज्ञानिकों की दीर्घकालिक चिंताओं से आंखें मूंद लेना चाहती हैं. वे ऊपरी हिमालय में होने वाली हलचलों और उन के खतरों के गहन वैज्ञानिक विश्लेषणों में नहीं जाना चाहतीं. हिमालय के संरक्षण को नियोजन का केंद्रबिंदु बनाए बिना बात नहीं बनने वाली. धराली इस कड़ी में एक और नसीहत है.
विकास की असंतुलित होड़
धराली की विनाशलीला केवल एक प्राकृतिक दुर्घटना नहीं है, यह हिमालय के साथ हमारी विकास की असंतुलित होड़ का दुष्परिणाम है. जब तक हम प्रकृति के संतुलन को नहीं सम?ोंगे और विज्ञान आधारित नीतियों को लागू नहीं करेंगे, तब तक ऐसी घटनाएं बारबार होती रहेंगी. हमें न सिर्फ राहत और बचाव पर ध्यान देना है, बल्कि पूर्वानुमान, तैयारी और सतत विकास की ओर बढ़ना होगा. धराली की घटना एक चेतावनी है, अब भी समय है संभलने का. उत्तरकाशी हादसा सिर्फ एक दुखद घटना नहीं, बल्कि भविष्य के लिए एक चेतावनी है. यह हमें सोचने पर मजबूर करता है कि विकास के नाम पर हम प्रकृति से कितना दूर जा चुके हैं. यदि समय रहते हम ने अपने तरीके नहीं बदले तो आने वाले समय में ऐसी घटनाएं और अधिक विध्वंसकारी हो सकती हैं. हमें याद रखना होगा कि पहाड़ों को काट कर विकास नहीं होता, बल्कि उन्हें सुरक्षित रख कर ही सच्ची प्रगति संभव है. Uttarakhand Cloudburst.





