Exclusive Interview : रोनू मजूमदार बांसुरी वादक हैं जिन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया जा चुका है. वे प्रतिभा संपन्न हैं, कई फिल्मों में अपने संगीत व शास्त्रीय संगीत को बढ़ावा देते रहे हैं. संगीत की अपनी जर्नी को ले कर क्या कहते हैं वे, आप भी जानिए.

रणेंद्र मजूमदार को रोनू मजूमदार के नाम से भी जाना जाता है. भारतीय शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में वे एक विचारशील संगीतकार हैं. इस वर्ष ‘पद्मश्री’ पुरस्कार से सम्मानित और गिनीज बुक रिकौर्ड धारक पंडित रोनू मजूमदार का बांसुरी वादन में बहुत बड़ा नाम है. वे मशहूर संगीतकार भी हैं. उन्होंने ‘शंख बांसुरी’ का आविष्कार किया. हालांकि वे नैपोटिज्म के शिकार रहे हैं.

रोनू मजूमदार ने 13 वर्ष तक संगीतकार आर डी बर्मन के निर्देशन में फिल्मों में बांसुरी बजाई थी. आर डी बर्मन के कैरियर की आखिरी फिल्म ‘कुछ न कहो’ को रोनू मजूमदार की बांसुरी के लिए याद किया जाता है. रोनू मजूमदार ने रवींद्र जैन, खय्याम, नौशाद, गुलजार, विशाल भारद्वाज के साथ भी काम किया है तो वहीं विदेश में भी उन्होंने काफी नाम कमाया. वे पिछले 22 वर्षों से साधना स्कूल के तहत देश व विदेश के युवाओं को बांसुरी की शिक्षा दे रहे हैं.

पंडित रोनू मजूमदार ने अपने पिता डा. भानू मजूमदार, पंडित लक्ष्मण प्रसाद जयपुरवाले और पंडित विजय राघव राव के मार्गदर्शन में बांसुरी वादन सीखा और बजाना शुरू किया था. उन्हें अपने महान गुरु पंडित रविशंकर से प्रशिक्षण प्राप्त करने का मौका भी मिला. उन्होंने ‘नदी की बेटी’ फिल्म में संगीत निर्देशन करने के साथ ही गीत भी गाया था. इतना ही नहीं, वे ग्रैमी अवार्ड के लिए भी नौमिनेट हो चुके हैं. कई विदेशी गायकों, संगीतकारों के साथ म्यूजिक कंसर्ट का हिस्सा रह चुके हैं वे.

रोनू को ढेर सारे पुरस्कार मिले हैं. जब उन से पूछा गया कि कौन सा पुरस्कार उन के लिए ज्यादा महत्त्वपूर्ण है तो उन्होंने कहा, ‘‘पुरस्कार तो आप को काम करने की प्रेरणा देते हैं. मेरे लिए सभी पुरस्कार बड़े हैं. संगीत नाटक अकादमी का मु झे जो पुरस्कार मिला, उस की ज्यूरी बहुत खतरनाक थी. इस वर्ष मुझे पद्मश्री का अवार्ड मिला, यह बड़ा पुरस्कार है क्योंकि पद्मश्री को मैं ने पहलगाम की विधवाओं के आंसुओं को डेडीकेट कर दिया ताकि उन को न्याय मिले और आतंकवाद खत्म हो.’’

जब उन से पूछा गया कि उन्हें नहीं लगता कि 50 साल की शास्त्रीय संगीत की साधना के बाद यह सम्मान काफी देर से मिला तो इस पर उन्होंने कहा, ‘‘आप ऐसा कह सकते हैं. पूरी संगीत बिरादरी यह बात कहती रही है कि पंडित रोनू मजूमदार को अब तक ‘पद्मश्री’ क्यों नहीं मिला लेकिन मु झे सरकार से कोई शिकायत नहीं. जब सरकार ने मु झे यह सम्मान दिया तो मैं ने दोनों हाथ फैला कर स्वीकार किया. मैं मानता हूं कि ‘देर आए दुरुस्त आए.’ शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में बेहतरीन काम करने की मेरी मेहनत जारी है, मैं ने अपनी इस मेहनत में कभी कोई कमी नहीं आने दी.

‘‘आखिरकार, ज्यूरी को एहसास हुआ कि इस बार यह सम्मान मु झे मिलना चाहिए तो उन्होंने मु झे दिया. इस तरह के सम्मान से हम जैसे कलाकारों का हौसला बढ़ता है और हम अधिक मेहनत, लगन के साथ अपने क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ काम करने का प्रयास करते हैं. यह न आदि है और न अंत है, बल्कि यह तो शुरुआत है. आगे अभी बहुतकुछ बड़ा काम मु झे करना है और बड़े सम्मान भी पाने हैं.’’

कलाकार बनने के लिए बांसुरी वादन ही क्यों चुना, इसे ले कर उन्होंने कहा,’’ सच कहूं तो बांसुरी वादन को मैं ने नहीं चुना, बल्कि बांसुरी ने मु झे चुना. आप जानते हैं कि मेरे पिता मशहूर पेंटर व होम्योपैथ डाक्टर थे. वे शौकिया बांसुरी बजाया करते थे जबकि वे पन्नालाल घोष के शिष्य भी थे. जब मेरी उम्र 5-6 साल रही होगी, तब सारनाथ में खेलखेल में मैं ने खिलौने की भांति 6-7 बांसुरियां तोड़ दी थीं.

‘‘मैं झूठ बोलता नहीं था. पिताजी ने मु झ से पूछा तो मैं ने सच बता दिया. उन्होंने मेरी पिटाई नहीं की और डांटा नहीं. सजा के तौर पर उन्होंने मु झे आदेश दिया कि जितनी बांसुरी तोड़ी हैं उतने घंटे रोज बांसुरियां बजाने का रियाज करो तो मैं ने हर दिन 6 से 7 घंटे रियाज करना शुरू किया. रियाज करतेकरते मैं बांसुरी के प्रेम में पड़ गया. वह रियाज आज भी काम आ रहा है. शुरूआत में पढ़ाई के साथ वारणसी से ही मेरे पिताजी ने मु झे बांसुरी बजाना सिखाना शुरू कर दिया था.

‘‘मुंबई पहुंचने के बाद मेरे पिताजी ने मु झे गुरु पंडित विजय राघव राव के सुपुर्द कर दिया. वे बांसुरी के बहुत बड़े विद्वान थे. पंडित विजय राघवजी ने संगीत की बारीकियां, रागरागिनी सबकुछ मेरे अंदर डालीं. रवि शंकरजी ने मेरा प्रोफाइल बनाया. रिश्ते में रवि शंकरजी मेरे दादा गुरु थे. पंडित विजय राघव राव के गुरु पंडित रवि शंकरजी थे. यह रिश्ता बड़ा अजीब था. मैं पंडित रवि शंकरजी के हर और्केस्ट्रा में बांसुरी बजाने लगा. 1982 में एशियाड के स्वागत गीत ‘अथ स्वागतम शुभ स्वागतम’, यह गाना मैं ने ही रवि शंकरजी के साथ बजाया था. रवि शंकरजी ने मु झे संपूर्णता का एहसास दिलाया.’’

रास्ता आसान न था

अपनी कला के विस्तार को ले कर उन्होंने बताया, मुंबई नगरी में उन्होंने बहुत ठोकरें खाईं. बहुत नकारे गए. बहुत जगहों से निकाले भी गए क्योंकि वे संगीत के बहुत बड़े खानदान से ताल्लुक नहीं रखते थे. वे रविशंकरजी या अमजद अली खां साहब या बड़े गुलाम अली खां साहब के बेटे नहीं थे.

रोनू मजूमदार ने कहा, ‘‘मैं किसी का नाम नहीं लेना चाहता, लेकिन कटु सत्य यही है कि कई कलाकारों ने मु झे सपोर्ट करने के बजाय मु झे दबाने का भरसक प्रयास किया. अब वे कलाकार नहीं रहे पर मैं ने हकीकत में दुख का पहाड़ झेला है. नैपोकिड न होने की मैं ने सजा भोगी है. मैं ने हर रुकावट का सामना करते हुए अपनी यात्रा को जारी रखा.

‘‘विवाह के बाद मेरी पत्नी आनंदी का बहुत बड़ा योगदान है. मेरी पत्नी ने मु झे कभी टूटने नहीं दिया. मैं दिनभर स्ट्रगल कर के आता था और रात में रियाज करता था, तब भी उस ने कभी शिकायत नहीं की.’’

वे आगे कहते हैं, ‘‘ये लोग कला व संस्कृति को नुकसान पहुंचाने की बनिस्बत कुछ प्रतिभाशाली लोगों का जीना दूभर कर देते हैं. देखिए, मैं यह नहीं कहता कि सभी नैपोकिड प्रतिभाशाली नहीं हैं. मगर स्पर्धा साफसुथरी, स्वस्थ व सकारात्मक होनी चाहिए पर नैपोटिज्म के हिमायती सारे नियमों को ताक पर रख कर केवल नैपोकिड को आगे बढ़ाते हैं.’’

जब उन से पूछा गया कि ऐसी परिस्थिति में कलाकार क्या करे तो उन्होंने कहा, ‘‘ऐसा कलाकार कुछ नया करेगा तो सवाल वही है कि बेचेगा कहां? जब कोई बड़ा इंसान ही आप को गिराने पर आमादा हो जाए तो आप अपनी नई चीज लोगों के पास किस तरह ले कर जाएंगे?

‘‘आज मैं ने एक स्टाइल को जन्म दिया पर वह लोगों के पास पहुंचे कैसे? मैं साफसाफ बात करता हूं. 1980 में केवल मैं एकमात्र बांसुरी वादक था, जिस ने पंडित हरिप्रसाद चौरसिया से अलग तरह से बांसुरी बजा कर दिखाया जबकि उन दिनों सभी उन की ‘नकल’ करते थे. बांसुरी जगत में पंडित पन्नालाल घोष सब से बड़े थे. उस के बाद हरिप्रसाद चौरसियाजी. मेरे गुरुजी पंडित विजय राघव राव भी, जोकि हरिप्रसाद चौरसिया से भी बड़े थे. मगर पंडित हरिप्रसाद चौरसिया का नाम सब से ऊपर.

‘‘सच कहूं तो मैं ने केवल नियति पर भरोसा रखा. अपने काम को ईमानदारी से करता रहा. इस का असर यह हुआ कि जो कलाकार बांसुरी से जुड़े हुए नहीं थे, उन्होंने मेरे काम की चर्चा करनी शुरू की. लोगों ने मेरी शंख बांसुरी, सेवन होल्ड तकनीक के बारे में और मेरे आलाप की चर्चा करनी शुरू कर दी.’’

27 साल पुरानी शंख बांसुरी

अपने शंख बांसुरी के ईजाद को ले कर उन्होंने कहा, ‘‘शंख बांसुरी का ईजाद करने के पीछे भी पंडित रवि शंकरजी ही हैं. 1988 में मैं पंडित रविशंकरजी के साथ मास्को गया था. रवि शंकरजी आलाप लेते हुए नीचे की तरफ मंत्र सप्तक में पहुंच गए. उस वक्त बांसुरी पंचम से ज्यादा नीचे जाती नहीं है. यदि कानी यानी कि छोटी उंगली लगा दें तो भी ज्यादा से ज्यादा मध्यम तक जाएगा तो मु झे बड़ी घुटन होने लगी कि यह कैसे किया जाए. पंडित विश्व मोहन भट्ट और पंडित रविशंकर के दूसरे शागिर्द बड़ी आसानी से बजा लेते थे.

‘‘मुंबई आने के बाद मैं प्रयेग करने में जुट गया. इस प्रयोग को करने में मु झे एम एम पई से बड़ी मदद मिली. एम एम पई बहुत बड़े वैज्ञानिक और बांसुरी वादक रहे. ऐसा संयोग मिलना मुश्किल होता है. वे मेरे गुरुजी के शिष्य थे. उन की वजह से ही मैं शंख बांसुरी को ईजाद करने में सफल हो पाया. इस में शंख एक भी नहीं है पर इस की आवाज, इस का नाद जो है वह शंख की तरह है. इसलिए इसे ‘शंख बांसुरी’ नाम दिया.’’

राग मालकोस विधा को ले कर रोनू मजूमदार कहते हैं, ‘‘बांसुरी वादन में मालकोस राग बहुत कठिन है. मैं डर की वजह से बजाता नहीं था. इस बात से मेरे पिताजी बहुत दुखी थे. 2009 में उन का देहांत हुआ पर कुछ दिनों पहले उन्होंने मु झ से कहा था कि मैं उन को मालकोस सुना दूं. मैं ने मांजना शुरू किया. उन को सुना तो नहीं पाया पर पूरे एक वर्ष तक कठिन मेहनत करने के बाद मैं इस में निपुण हो गया. अब तो मालकोस मेरा फेवरेट हो गया. बांसुरी में मालकोस की पोजीशन बहुत अलग होती है. इस में बेसुरा होने की बहुत गुंजाइश होती है.’’

वे आगे कहते हैं, ‘‘मैं पूरे एक साल तक मालकोस बजाता रहा और मैं सोचता रहा कि लोग डरते क्यों हैं मालकोस राग पर बांसुरी बजाने से. मालकोस राग में गाना आसान है. मगर बांसुरी में ओरिजिनल बजाना बहुत मुश्किल है. लोग बजाते हैं पर सुर इधरउधर रह जाता है. परफैक्ट नहीं बजता. अब तक सही बजाने वाला मैं ने नहीं देखा.’’

फिल्मों में मालकोस राग का प्रयोग

रोनू मजूमदार का मानना है कि फिल्म में मालकोस बजाना बहुत आसान है. आप स्केल बदल कर बजा सकते हैं. मगर जब शास्त्रीय संगीत में मालकोस बजाने की बात आएगी, तब तो मुश्किल है. तलवार की धार पर चलने की बात है. दिल्ली वाले पंडित राजेंद्र प्रसन्ना का मालकोस में गायन काफी हद तक सही है. वे मालकोस के साथ काफी न्याय करते हैं. उन्होंने साधना बहुत की होगी. उन्होंने कहा, ‘‘मैं ने किसी भी फिल्म के लिए मालकोस में बांसुरी नहीं बजाई पर बैकग्राउंड संगीत में मैं ने मालकोस में आलाप बहुत किया. सनी देओल की फिल्म ‘बेताब’ में मैं ने मालकोस में बजाया था.’’

रोनू मजूमदार ने आलाप की शुद्धता को ले कर कहा, ‘‘आजकल लोग फ्यूजन संगीत बहुत बजाते हैं. इसलिए वे शास्त्रीय संगीत में भी फ्यूजन कर देते हैं. तमाम गायक रेस्टलैस हो कर गाते हैं तो सुनने वाला स्वर्गिक आनंद कैसे लेगा? इसलिए जो शुद्ध शास्त्रीय संगीत कार्यक्रम के आयोजक हैं, उन्हें चिंता होने लगी है. अमेरिका के लौस एंजलिस में विनोद वेंकट रमण हैं, वे भी शुद्ध आलाप की मांग करते हैं. इसी तरह दिल्ली में एक आयोजक हैं, वे भी शुद्ध आलाप की मांग करते हैं.’’

उन का मानना है, जब वे कोई बंदिश बजाते हैं तो उस के साहित्य को सम झ कर ही बजाते हैं. पिछले दिनों उन्होंने वेणुनाद का विश्व रिकौर्ड बनाया. 5,378 बांसुरी वादकों के एक विशाल समूह ने ‘वेणुनाद’ नामक एक कार्यक्रम में एकसाथ बांसुरी बजाई जिसे उन्होंने ही कंडक्ट किया तो वहां जो बंदिश थी, उस के भाव को सम झ कर बजवाया.’’

वेणुनाद का विश्व रिकौर्ड स्थापित करने की वजह के बारे में वे कहते हैं, ‘‘यह आर्ट औफ लीविंग के श्रीश्री रविशंकर की इच्छा थी कि ऐसा एक रिकौर्ड बने और इसे मैं करूं क्योंकि हरिप्रसाद चौरसियाजी अपनी उम्र की वजह से नहीं कर पाएंगे. गुरुदेव का मु झ पर विश्वास था. उन की इच्छा के अनुसार इसे नासिक में किया गया. मैं 2 माह तक नासिक जाता रहा. इस में हरिप्रसाद चौरसियाजी का भी पूरा योगदान रहा. मैं खुद उन से मिलने गया था. मैं ने पंडित हरिप्रसाद चौरसियाजी से मदद मांगी तो उन्होंने कहा कि उन के सभी शागिर्द मेरे साथ हैं. फिर उन के शागिर्द के शागिर्द भी मेरे साथ हो गए. इस तरह कारवां बनता गया. अंत में 16 दिसंबर के दिन 5,378 बांसुरी वादकों ने एक तय बंदिश पर बांसुरी बजाई. इस से पहले जापान का 3,777 का रिकौर्ड था.’’

विदेश में भी ख्याति

रोनू मजूमदार ने विदेश जा कर भी काम किया है. उन्होंने कहा, ‘‘रवि शंकरजी ने हम सभी को शिक्षा दी थी कि जब आप पश्चिमी संगीत से जुड़े इंसान के साथ बजा रहे हैं तो थोड़ा रास्ता तय कर उन के नजदीक पहुंचें, थोड़ा उन का भी संगीत सीखो. सिर्फ अपने ही राग या अपने ही संगीत को सर्वश्रेष्ठ मत कहो. मिलन या समन्वय के लिए आप को उन के संगीत को भी बजाना होगा. मैं ने पश्चिमी संगीत भी सीखा. जब हम सामने वाले के संगीत को सीखते हैं तो उस के साथ हमारा जुड़ाव बढ़ जाता है. प्यार बढ़ता है. प्यार बढ़ने पर वह संगीत में नजर आता है. मैं ने अनुशासन के साथ यह सीखा कि कला में ईगो की कोई जगह नहीं है.’’

वे आगे कहते हैं, ‘‘पिछले साल मैं अमेरिका के लौस एंजलिस में ग्रेग चैपल यानी कि चर्च में मैं अपने बेटे ऋषिकेश मजूमदार के संग जुगलबंदी बजा रहा था. एक गोरा इंसान मेरे पास आया और उस ने कहा, ‘मेरी जिंदगी का सारा तनाव दूर हो गया. आज के बाद मैं सिर्फ भारतीय संगीत ही सुनूंगा और वह भी बौलीवुड नहीं, केवल शास्त्रीय संगीत.’ उस की बातें सुन कर मुझे लगा कि मु झे सारे बड़े अवार्ड मिल गए.’’

रोनू मजूमदार संगीत को मैडिसिन के रूप में मानते हैं. वे बताते हैं, ‘‘उन दिनों म्यूजिक थेरैपी काफी लोकप्रिय थी. पी डी हिंदुजा कालेज के यूरोलौजिस्ट डाक्टर शरद उन के शिष्य थे और बांसुरी बजाते थे. वे अपने हर मरीज को औपरेशन के बाद कुछ समय बैठ कर बांसुरी सुनाया करते थे. वे अस्पताल में अपनी केबिन में बांसुरी रखते थे. वे उन से उम्र में बड़े थे, लेकिन मेरे पैर छू कर गुरु के रूप में सम्मान देते थे. उन का मानना था कि म्यूजिक थेरैपी हर अस्पताल में होनी चाहिए.’’

वे अपने फिल्मी जुड़ाव को ले कर कहते हैं, ‘‘जब 1991 में मु झे औल इंडिया रेडियो प्रतियोगिता में तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह से पुरस्कार मिला, तब रेडियो में मेरा कार्यक्रम रखा गया था. जिसे सुनने के लिए पंडित रविंद्र जैन साहब आए थे. मैं ने एक गाना गाया. आर डी बर्मन तक बात पहुंची और फिर टैगोर दादा, जिन्होंने फिल्म ‘गाइड’ में बजाया था वे मु झे आर डी बर्मन के पास ले कर गए. आर डी बर्मन को बांसुरीवादक की जरूरत थी. उन दिनों हरिप्रसाद चैरसियाजी तो लक्ष्मीकांत प्यारे लाल व यश चोपड़ा के साथ व्यस्त थे. मैं ने आर डी बर्मन के साथ लगातार 13 साल बांसुरी बजाई. उन के कैरियर की आखिरी फिल्म ‘1942 : ए लव स्टोरी’ का गाना ‘कुछ न कहो’ तो मेरी बांसुरी के लिए ही जाना जाता है.

‘‘मैं ने तो नौशाद, खय्याम सहित कई संगीतकारों के साथ काम किया है. नौशादजी तो पुरानी स्टाइल के थे और वे गायक को या बांसुरी वादक को फ्रीहैंड नहीं देते थे. ए आर रहमान फ्रीहैंड देते हैं. पंचम दा तो पूरी छूट देते थे. विशाल भारद्वाज ने फिल्म ‘माचिस’ में मेरी बांसुरी का बहुत खूबसूरत उपयोग किया. पहले फिल्मों में बजाने वाले शास्त्रीय संगीत से जुड़े लोगों के नाम नहीं दिए जाते थे लेकिन विशाल भारद्वाज ने फिल्म ‘माचिस’ में क्रैडिट मुझे भी दिया. मैं ने गुलजार के साथ भी काम किया.’’

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