‘मैं सिर्फ नाइकी के ही जूते पहनता हूं, हमारे स्कूल की यूनीफौर्म एडिडास की है, पहन कर मजा आ जाता है, ब्लैकबैरी के मोबाइल का तो कोई मुकाबला ही नहीं है, जब भी मैं पार्टी में जाती हूं, गुच्ची के ही बैग ले जाती हूं. वैसे तो मम्मी उसे हाथ नहीं लगाने देतीं, कहती हैं कि मैं अभी छोटी हूं.’
ये कुछ ऐसे संवाद हैं जिन्हें हम अकसर किशोर होते बच्चों के मुंह से सुनते रहते हैं. स्कूलकालेज में पढ़ने वाली यह पीढ़ी न सिर्फ अपनी ब्यूटी व हैल्थ के प्रति सजग है बल्कि ब्रैंडेड वस्तुओं से इतनी प्रभावित है कि उस की जिंदगी से जुड़ी हर चीज ब्रैंडमय होती जा रही है. फिर चाहे कपड़े हों या जूते, घड़ी हो या मोबाइल, कार हो या मोटरसाइकिल, पेय पदार्थ हो या चौकलेट. ये वे बच्चे हैं जिन्हें आप केवल उच्चवर्ग के कह कर नजरअंदाज नहीं कर सकते, क्योंकि मध्यवर्ग भी ब्रैंडेड वस्तुओं की जकड़ से अब अछूता नहीं रहा है. वहां भी इस की घुसपैठ तेजी से हो चुकी है, क्योंकि इसे ही आज फैशन, स्टाइल, स्टेटस और लग्जरी का प्रतीक माना जा रहा है. ब्रैंडेड वस्तुएं खरीदने के लिए अगर जेब भी खाली करनी पड़े तो भी न अभिभावकों को आज इस बात पर ऐतराज है और न किशोरों को.
इस की वजह है बहुत ही कम उम्र में बच्चों का कंज्यूमर बनते जाना. मीडिया व इंटरनैट की दुनिया से अत्यधिक करीबी की वजह से खरीदारी से जुड़े उन के निर्णयों को अब मान्यता दी जाने लगी है. खरीदारी करते समय उन का निर्णय अब महत्त्वपूर्ण हो गया है. वे अपने मातापिता को बताते हैं कि क्या खरीदना है और क्या नहीं. बाजार में क्या लेटैस्ट ब्रैंड्स उपलब्ध हैं, उस की जानकारी मातापिता को वही देने लगे हैं.
मध्यवर्ग व उच्चवर्ग के परिवारों में टीवी की घुसपैठ इतनी ज्यादा हो गई है कि वह उन की जिंदगी, उन की सोच और उन के खरीदारी करने के निर्णय पर हावी हो चुका है. बच्चे चूंकि ईजी टारगेट होते हैं और उन की बात को टालना अभिभावकों के लिए कठिन होता है इसलिए विक्रेता कंपनियां उन के नाम से चीजें बाजार में उतार कर लुभावने विज्ञापनों से उन्हें लुभाती हैं. बच्चों को ब्रैंड ऐंबैसेडर बनाने के पीछे भी उन की यही सोच काम करती है. मीडिया में प्रदर्शित ब्रैंड के नाम से आज 5 साल का बच्चा तक प्रभावित होने लगा है. जब तक वह स्कूल जाने लायक होता है, उसे हजारों ब्रैंड्स के नाम रट जाते हैं.
फास्ट फूड, खिलौने व कपड़े बनाने वाली कंपनियां इस तरह से आज की पीढ़ी पर हावी होती जा रही हैं कि उन के लिए ब्रैंड ही उन की पहचान का पर्याय बनते जा रहे हैं. प्रिंट व इलैक्ट्रौनिक मीडिया में लगातार दिखने वाले विज्ञापन युवाओं को यकीन दिलाने में सफल हो रहे हैं कि फलां ब्रैंड ज्यादा विश्वसनीय व सही है.
रजत 12वीं में पढ़ता है और रेबेन का चश्मा व टाइटन की घड़ी पहनता है. उस के लिए ब्रैंडेड चीजें स्टेटस सिंबल हैं. वह कहता है, ‘‘आज हर कोई ब्रैंड की महत्ता को समझता है. अच्छी चीजें ही महंगे दामों में मिलती हैं और इन्हें पहन कर एक क्लासी लुक आ जाता है. रीबौक के जूते में जो आराम मिलता है वह आम जूतों में कहां. आज उस का ही सम्मान किया जाता है जो बढि़या चीजें पहनता है. ब्रैंडेड चीजों से दूसरों पर रोब तो पड़ता ही है साथ ही पर्सनैलिटी में भी निखार आता है.’’
दूसरों पर अपना प्रभाव जमाने के लिए योग्यता या अच्छा छात्र होना उतना आवश्यक नहीं रहा है जितना कि महंगी चीजों को अपने शरीर से चिपकाए घूमना. ब्रैंड का मतलब है ग्लैमर की दुनिया में फिट होना. यही वजह है कि ब्रैंड बड़ी तेजी से हमारे जीवन पर हावी होते जा रहे हैं. ‘‘ब्रैंड एक इंप्रैशन छोड़ते हैं,’’ यह कहना है 16 वर्षीय वत्सल का.
आज स्थिति यह है कि वयस्कों की दुनिया का हिस्सा बन चुकी ब्रैंडेड वस्तुएं किशोरों और बच्चों के लिए स्टेटस सिंबल बनती जा रही हैं. नाइकी, एडिडास, डियोर, हाईडिजाइन, रीबौक, टाइटन आदि नाम उन के कान में संगीत की मधुर लहरियों की तरह गूंजते हैं. किसी ब्रैंड का टैग लगते ही उन के लिए आम चीज भी विशेष हो जाती है. जहां तक कार का सवाल है तो एक अध्ययन से यह बात सामने आई है कि लगभग 32 प्रतिशत किशोर हुंडई सैंट्रो को पसंद करते हैं. घडि़यों में उन का मनपसंद ब्रैंड टाइटन है और टीवी के लिए एलजी व म्यूजिक सिस्टम में सोनी को प्राथमिकता देते हैं. यहां तक कि कोला, चौकलेट, बिस्कुट व चिप्स तक में उन की पसंद में व्यापक बदलाव आया है.
आलम यह है कि कोई भी चीज ब्रैंड के लेबल से अछूती नहीं है, फिर चाहे कपड़े हों, बिजली के उपकरण, ऐक्सैसरीज, कौस्मैटिक या खाने की चीजें. टूथपैस्ट से ले कर बाथरूम के इंटीरियर तक, सनग्लास से ले कर पैन तक में ब्रैंड का ठप्पा लग चुका है.
फोर्टिस ला फेम अस्पताल के मनोवैज्ञानिक डा. रोहित जयमन का कहना है, ‘‘आज हमारा समाज भौतिकवाद के पश्चिमी संस्करण के अधीन हो चुका है. इसलिए लोगों की पहचान नैतिक मूल्यों या उन की शैक्षिक उपलब्धियों की अपेक्षा उन के पास उपलब्ध चीजों से होती है. इस सोच से हमारी युवा पीढ़ी भी बच नहीं सकी है. ये ब्रैंड भीड़ से अलग दिखने का एहसास देते हैं.
ब्रैंड व्यक्ति के अंदर आत्मविश्वास व खास होने का एहसास भरते हैं. लक्जरी और स्टेटस का पर्याय होने के साथसाथ वे व्यक्ति को आकर्षण का केंद्र बनाते हैं. युवाओं के अंदर अपने साथियों के बीच लोकप्रिय होने की चाह बहुत तीव्र होती है. इस से उन के अहं को भी संतुष्टि मिलती है, इसी वजह से वे आज बहुत ही ब्रैंडकौंशस हो गए हैं.