Education Policy : सरकार भारत के बच्चों और युवाओं की शिक्षा के प्रति बेहद उदासीन है. देश के कई राज्यों में स्कूल तो खुल गए मगर बच्चों को किताबें नहीं मिलीं. क्योंकि इन कक्षाओं की किताबें नई छप कर आनी हैं, जिन में सरकार ने अपनी मर्जी से कुछ चैप्टर हटा दिए हैं और कुछ नए जोड़ दिए हैं. सरकार कभी मुगलों को हटाएगी कभी गांधी को हटाएगी. इन के हटाने से इतिहास बदल जाएगा क्या?
मार्च में नया सेशन शुरू हुआ. सुबह छोटेछोटे बच्चे अपनी यूनिफार्म पहने चहकते हुए स्कूल की ओर जा रहे थे. कोई पैदल, कोई पापा की साइकिल पर तो कोई अन्य बच्चों के साथ रिक्शे पर लदा हुआ. सब की पीठ पर बस्ते लटके थे, मगर बस्ते खाली थे. जी हां, उत्तर प्रदेश सहित देश के कई राज्यों में स्कूल तो खुल गए मगर बच्चों को किताबें नहीं मिलीं. अप्रैल का पहला हफ्ता खत्म हो गया मगर परिषदीय स्कूलों में पहली से तीसरी कक्षा के बच्चों को एक भी किताब नहीं मिली है.
वहीं सीबीएसई से संचालित स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे भी परेशान हैं. उन्हें भी एनसीईआरटी के किताबें नहीं मिल पा रही हैं. एनसीईआरटी में सातवीं और आठवीं कक्षा में पढ़ने वाले बच्चों के सामने सब से बड़ी चुनौती है क्योंकि इन कक्षाओं की किताबें नई छप कर आनी हैं, जिन में सरकार ने अपनी मर्जी से कुछ चैप्टर हटा दिए हैं और कुछ नए जोड़ दिए हैं.
एनसीईआरटी ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के अनुसार पहली से आठवीं तक के सिलेबस में काफी बदलाव किया गया है. यानी इतिहास में फेरबदल कर, इतिहास को तोड़मरोड़ कर कुछ नया बच्चों के सामने परोसना है. लिहाजा किताबें अभी तक बाजार में नहीं हैं. अभिभावक और बच्चे दुकानों के चक्कर लगा रहे हैं.
केंद्रीय विद्यालय की आठवीं की एक छात्रा सृष्टि माथुर कहती हैं कि हम तो स्कूल जाते हैं मगर बिना किताबों के क्या पढ़ें? टीचर क्लास में आती है, बच्चों से कुछ बातचीत करती है और फिर अपनी गैंग में चली जाती है. बच्चे क्लास में ऊधम मचाते हैं. कुछ बच्चों के पास पुरानी किताबें हैं मगर कौन सा चैप्टर बदल गया है और कौन सा वही है, इस को ले कर कन्फ्यूजन है.
टीचर कहती है पुरानी किताब से कोई न पढ़ें. दुकानदार कहता है नई किताबें मई में छप कर आएंगी. तो स्कूल खोलने की क्या जरूरत थी? सीधे मई में ही खोलते.
कंचन की मां सरकार पर खीज निकालती है. हर साल किताबें बदल देते हैं. हम लोग अपनी बड़ी बहनों और भाइयों की किताबों से पढ़ कर आज नौकरी कर रहे हैं, मगर हमारे बच्चों को पढ़लिख कर भी नौकरी मिलेगी इस की कोई गारंटी नहीं है. आधाआधा साल तो पढ़ाई ही नहीं होती है.
ये सरकार हर साल सिलेबस में कोई न कोई बदलाव करती रहती है. कभी मुगलों को हटाएगी कभी गांधी को हटाएगी. इन के हटाने से इतिहास बदल जाएगा क्या? दोदो महीने बच्चे बिना पढ़ाई के बैठे हैं, खाली बैग ले कर स्कूल जा रहे हैं. फीस तो पूरी लेंगे मगर पढ़ाई अधूरी करवाएंगे.
सरकार ढोल पीटती है कि बेसिक शिक्षा विभाग कक्षा चार से आठ तक बच्चों को निशुल्क किताबें वितरित करता है मगर सच्चाई यह है कि आधाआधा साल खत्म हो जाता है और बच्चों तक किताबें नहीं पहुंचती हैं.
हाल ही में कांग्रेस संसदीय दल की अध्यक्ष और राज्यसभा सांसद सोनिया गांधी ने ‘द हिंदू’ अखबार में लिखे अपने एक लेख में 3सी के जरिए सरकार की राष्ट्रीय शिक्षा नीति (2020) पर सवाल खड़े किए हैं. सोनिया ने आरोप लगाया है कि सरकार का ध्यान सिर्फ तीन चीजों- सेंट्रलाइजेशन, कमर्शलाइजेशन और कम्युनिलाइजेशन यानी 3सी पर है.
सोनिया गांधी ने अपने लेख – ‘द 3सी दैट होंट इंडियन एजुकेशन टुडे’ (3सी जो भारतीय शिक्षा के लिए आज चिंता का विषय है) में लिखा है कि केंद्र सरकार का मुख्य एजेंडा सत्ता का केंद्रीयकरण, शिक्षा का व्यवसायीकरण और पाठ्य पुस्तकों का सांप्रदायीकरण है.
उन्होंने लिखा कि पिछले एक दशक के दौरान केंद्र सरकार के ट्रैक रिकार्ड ने स्पष्ट रूप से प्रदर्शित किया है कि शिक्षा के क्षेत्र में, वह केवल तीन एजेंडों पर काम कर रही है. सत्ता का केंद्रीकरण; शिक्षा में निजी क्षेत्र का निवेश और आउटसोर्सिंग के जरिए उस का व्यवसायीकरण और पाठ्यपुस्तकों, पाठ्यक्रमों और संस्थानों का सांप्रदायिकरण.
गौरतलब है कि स्कूली पाठ्यक्रम की रीढ़ माने जाने वाले राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) की पाठ्यपुस्तकों में भारतीय इतिहास को साफसुथरा बनाने के इरादे से संशोधन किया गया है. महात्मा गांधी की हत्या और मुगल भारत से जुड़े खंडों को पाठ्यक्रम से हटा दिया गया है. इस के अलावा, भारतीय संविधान की प्रस्तावना को भी पाठ्यपुस्तकों से हटा दिया गया था, मगर जनता के विरोध के कारण सरकार को एकबार फिर उसे अनिवार्य रूप से शामिल करने के लिए बाध्य होना पड़ा. सरकार द्वारा इस तरह के प्रयास करना बेहद निंदनीय हैं.
पिछले 11 वर्षों में अनियंत्रित केंद्रीकरण मोदी सरकार की कार्यप्रणाली की पहचान रही है, लेकिन इस के सब से हानिकारक परिणाम शिक्षा के क्षेत्र में हुए हैं. सोनिया गांधी इस तथ्य को उजागर करती हैं कि केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड, जिस में केंद्र और राज्य सरकारों के शिक्षा मंत्री शामिल होते हैं, की बैठक सितंबर 2019 से नहीं हुई है.
राष्ट्रीय शिक्षा नीति- 2020 के माध्यम से शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन को अपनाने और लागू करने के दौरान भी, केंद्र सरकार ने इन नीतियों के कार्यान्वयन पर एक बार भी राज्य सरकारों से परामर्श करना उचित नहीं समझा. वह अपनी आवाज के अलावा किसी और की आवाज नहीं सुनना चाहती है. सरकार भारत के बच्चों और युवाओं की शिक्षा के प्रति बेहद उदासीन है.
कांग्रेस नेता सोनिया गांधी ने लिखा है कि हमारे विश्वविद्यालयों में हम ने देखा है कि शासन अनुकूल विचारधारा वाले पृष्ठभूमि के प्रोफेसरों को बड़े पैमाने पर नियुक्त किया गया है, भले ही उन के शिक्षण और विद्वता की गुणवत्ता हास्यास्पद रूप से खराब क्यों न हो. उच्च शिक्षा में राज्य सरकारों को उन के द्वारा स्थापित, वित्तपोषित और संचालित विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति से पूरी तरह बाहर कर दिया गया है.
केंद्र सरकार ने यूजीसी गाइडलाइन को दरकिनार कर अपने राज्यपालों के माध्यम से, जिन्हें आमतौर पर विश्वविद्यालय का कुलाधिपति नियुक्त किया जाता है, राज्य विश्वविद्यालयों में कुलपतियों के चयन में लगभग एकाधिकार शक्ति अपने हाथ में ले ली है. यह देश के संघीय ढांचे पर खतरा है. मोदी सरकार ने ‘पीएम स्कूल फौर राइजिंग इंडिया’ स्कीम को लागू कराने के लिए समग्र शिक्षा अभियान के जरिए मिलने वाले धन को भी रोक दिया है.
सरकार बड़े पैमाने पर सरकारी स्कूलों पर ताला लगा रही है और निजीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है. 2014 से अब तक देश भर में 89,441 सरकारी स्कूलों को बंद और विलय होते देखा है. जबकि इस समय 42,944 अतिरिक्त निजी स्कूलों की स्थापना हुई है. देश के गरीबों को सरकारी शिक्षा से बाहर कर दिया गया है और उन्हें बेहद महंगी और बिना कंट्रोल वाले निजी स्कूल प्रणाली के हाथों में डाल दिया गया है.
शिक्षा प्रणाली में बढ़ता भ्रष्टाचार व्यवसायीकरण का ही नतीजा है. इसी ने नकल माफिया को भी मजबूत किया है. राष्ट्रीय मूल्यांकन और प्रत्यायन परिषद (NAAC) में रिश्वत कांड से ले कर दुखद रूप से अक्षम राष्ट्रीय परीक्षण एजेंसी (NTA) तक, सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली और एजेंसियां वित्तीय भ्रष्टाचार के लिए लगातार सुर्खियों में हैं.
सोनिया गांधी लिखती हैं कि केंद्र सरकार का तीसरा जोर सांप्रदायिकरण पर है. इस का उद्देश्य राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी की दीर्घकालिक वैचारिक परियोजना को पूरा करना है, जिस में शिक्षा प्रणाली के माध्यम से नफरत की खेती की जा रही है.
भारत में शिक्षा की वर्तमान स्थिति के बारे में इसी साल जनवरी में जारी एक सरकारी रिपोर्ट में भी काफी परेशान करने वाले तथ्य सामने आए हैं जिस में भारतीय स्कूलों में बुनियादी ढांचे की भारी कमी का पता चलता है.
शिक्षा मंत्रालय द्वारा संचालित ‘यूनीफाइड डिस्ट्रिक्ट इनफार्मेशन सिस्टम फौर एजुकेशन’ (यू.डी.आई.एस.ई.प्लस) द्वारा जारी नवीनतम आंकड़ों के अनुसार भारत के 14.71 लाख स्कूलों में से 10.17 लाख स्कूल सरकारी हैं. इन में से केवल 9.12 लाख स्कूलों में ही बिजली की सुविधा है, शेष 1.52 लाख स्कूलों में बिजली ही नहीं है. इन के अलावा 4.54 लाख सरकारी सहायता प्राप्त, निजी और गैर सहायता प्राप्त तथा अन्य स्कूल हैं जिन में से 4.07 लाख स्कूलों में ही बिजली उपलब्ध है.
देश के कुल स्कूलों में से 14.47 लाख स्कूलों में पीने के पानी की व्यवस्था बताई गई है लेकिन केवल 14.11 लाख स्कूलों में ही यह व्यवस्था काम कर रही है. 10.17 लाख सरकारी स्कूलों में से 9.78 लाख स्कूलों में ही पीने के पानी की व्यवस्था लागू है. इसी प्रकार सरकारी सहायता प्राप्त, निजी एवं अन्य स्कूलों में 4.33 लाख स्कूलों में पीने के पानी की व्यवस्था काम कर रही है.
देश के 14.71 लाख स्कूलों में से 14.50 लाख स्कूलों में शौचालयों की सुविधा है लेकिन केवल 14.04 लाख शौचालय ही काम कर रहे हैं. 67000 स्कूल नाकारा शौचालयों के चल रहे हैं और इन में से अधिकांश (46000) स्कूल सरकारी हैं.
दिव्यांगों के मामले में तो स्थिति और भी खराब है तथा 10.17 लाख सरकारी स्कूलों में से केवल 3.37 लाख स्कूलों में ही दिव्यांगों के अनुकूल शौचालय हैं और उन में से भी केवल 30.6 प्रतिशत ही चालू हालत में हैं. देश के केवल 57.2 प्रतिशत स्कूलों में ही कंप्यूटर चालू हालत में हैं. इसी तरह इंटरनेट की सुविधा भी देश के केवल 53.9 प्रतिशत स्कूलों में ही उपलब्ध है.
वहीं देश के स्कूलों में होने वाले दाखिलों में भारी गिरावट आई है. प्रीनर्सरी और नर्सरी की कक्षाओं में वर्ष 2022-23 की तुलना में वर्ष 2023-24 में 37 लाख दाखिले कम हुए हैं. 2022-23 में स्कूलों में दाखिला लेने वाले छात्रों की संख्या 25.17 करोड़ थी जो 2023-24 में घट कर 24.80 करोड़ रह गयी. पिछले वर्ष की तुलना में दाखिला लेने वाले छात्रों की संख्या में 16 लाख और छात्राओं की संख्या में 21 लाख की गिरावट आई है. अनेक बच्चे प्राथमिक कक्षाओं के बाद पढ़ाई छोड़ रहे हैं.