Trending Debate : दुनिया सभ्य आधुनिक और वैज्ञानिक बोलने की आजादी के चलते ही हुई है लेकिन वक्तवक्त पर इस में अड़ंगे आते रहते हैं जो अब फिर आ गए हैं. इस का दोष किसे दिया जाए या इस का जिम्मेदार कौन यह कोई सर्वे तय नहीं करता लेकिन हकीकत क्या है यहां पढ़िए.

फ्रीडम औफ स्पीच यानी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए पहचाने जाने वाले अमेरिका में ही आती गिरावट बताती है कि अमेरिका अब पहले सा अमेरिका नहीं रह गया है. सनकी और लगभग खब्त मिजाज डोनाल्ड ट्रंप के दोबारा राष्ट्रपति बनने के बाद वहां बहुत कुछ ठीक नहीं है. लोग चिंतित हैं, आशंकित है, सहमे हुए और खामोश रहने भी मजबूर हैं जिस की पुष्टि एक ताजा सर्वे भी करता है.

ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिका की बदहाली की दास्ता सरिता अपने हर दूसरे तीसरे अंक में तथ्यों, तर्कों और आंकड़ों सहित विचारों के जरिए पाठकों तक पहुंचा रही है. पाठक सरिता के डिजिटल संस्करण में भी इसे पढ़ सकते हैं. (खासतौर से पढ़ें मार्च द्वितीय अंक में- अमेरिका का सनकी प्रेसिडैंट दुनिया के लिए खतरा)

इस ताजे सर्वे के आंकड़े और निष्कर्ष वैंडरबिल्ट यूनिवर्सिटी में द फ्यूचर औफ फ्री स्पीच के थिंक टैंक द्वारा जारी किए गए हैं. यह दरअसल में कोई 15 हजार छात्रों वाली रिसर्च यूनिवर्सिटी है जो अमेरिका के ही टेनेसी राज्य के शहर नैशविले में है. नैशविले म्यूजिक सिटी के नाम से तो विख्यात है ही इस के अलावा अपने जायकेदार हौट चिकन के लिए भी यह मशहूर है.

यह सर्वे पिछले साल अक्तूबर में 33 देशों में किया गया था जिस का शीर्षक था कौन मुक्त भाषण का समर्थन करता है. इस में भारत सहित कौन सा देश किस पायदान पर है इस से पहले बात अमेरिका की ही की जाए तो वहां फ्रीडम औफ स्पीच में भारी गिरावट दर्ज की गई.

33 देशों की लिस्ट में अमेरिका 9वें नंबर पर आया जब कि 2024 में यह तीसरे नंबर पर हुआ करता था. यानी 6 पायदान नीचे खिसका और अगर हालात यही रहे जिन की हालफिलहाल आशंका ज्यादा है तो मुमकिन है, 2026 में यह 20 के आसपास दिखे.

अव्वल तो यह आंकड़ा ही अपनेआप में एक निष्कर्ष है लेकिन द फ्यूचर औफ फ्री स्पीच के मैनेजिंग डायरेक्टर जैकब मचगामा इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं, दुर्भाग्य से घटनाक्रम ज्यादातर नकारात्मक है. अधिकतर देशों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के समर्थन में वृद्धि के बजाय गिरावट देखी गई है. और अमेरिका में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के समर्थन में हमारे समय में तीसरी बड़ी गिरावट दर्ज की गई है.

एक वक्त में अमेरिका जा कर बसना दुनियाभर में हर किसी का सपना हुआ करता था क्योंकि वहां पैसा था, संपन्नता थी, खुशहाली थी, समानता थी, सुरक्षा थी, काम था और सब से बड़ी बात बोलने सहित हर तरह की आजादी थी. सब से बड़ी सैन्य शक्ति बन चुके अमेरिका में विज्ञान और आधुनिकता थे तो कला और संस्कृति भी थी. कुलजमा यह एक परफैक्ट कंट्री थी यह सब जीने और हासिल करने लाखोंकरोड़ों लोग पैसा और जिंदगी दांव पर लगाते जायज और नाजायज दोनों तरीकों से अमेरिका जाते थे.

इस तस्वीर को 30 के दशक के लेखक जेम्स ट्रस्लो एडम्स ने अपनी किताब ‘द एपिक औफ अमेरिका’ में शब्दों में यह लिखते ढाला है कि अमेरिका लोग हाई सैलरी और बड़ी मोटरकार के लिए ही नहीं जाते बल्कि अमेरिका जाने का सपना एक सामाजिक व्यवस्था का भी सपना है जिस में हर पुरुष और महिला उस पूर्ण कद को प्राप्त करने में सक्षम होगा जिस के लिए वे जन्मजात रूप से सक्षम हैं.

बाद में देखते ही देखते अमेरिका दुनिया का सब से बड़े एजुकेशन हब की शक्ल में भी विकसित हुआ तो दुनियाभर के युवा वहां पढ़ने भी जाने लगे और इन में से अधिकतर वहीँ नौकरी करते रहने भी लगे.

ऐसा भी नहीं है कि यह सब अभी न हो लेकिन जिस अंदाज में डोनाल्ड ट्रंप फैसले ले रहे हैं उन से दुनिया तो सकते में है ही खुद अमेरिकन भी उन्हें हजम नहीं कर पा रहे हैं. प्रवासियों का मुद्दा हो या गर्भपात के अधिकार का या फिर आर्थिक नीतियों का, ट्रंप पूरी तरह चर्चो और इसाइयत के शिंकजे में फंसे साफ दिखाई दे रहे हैं.

ट्रंप के सनकीपन के चलते दुनियाभर के लोगों का मोहभंग अमेरिका से हो चला है. विदेशी अवैध प्रवासियों को जिस अमानवीय तरीके से भगाया जा रहा है उस का नजारा भारत में भी देखने को मिला. लेकिन क्या मजाल सरकार की या किसी और की जो चूं भी किसी की चोंच से निकली हो. गुलामों की तरह हथकड़ियों और बेड़ियों में जकड़े जब भारतीय किक खाई फुटबाल की तरह दिल्ली तरफ फेंके गए तो यह चोट हमारी गैरत और इज्जत पर थी.

किसी का कुछ न बोलना बता गया कि भारत में भी मुक्त भाषण गुजरे कल की बात हो चली है यहां भी धर्मपंथियों का दबदबा है और दिनरात सभी खासतौर से भाजपा नेता पूजापाठ में लगे रहते हैं. जिस से मिलता धैर्य का प्रसाद मुंह में दही की तरह जमा रहता है. हां बात, राहुल गांधी की टीशर्ट या विदेश यात्रा की हो तो यही दही रायता बन कर बिखरने लगता है. और जो लोग थोडाबहुत बोले उन्हें मीडिया ने जानबूझ कर नजरंदाज कर दिया क्योंकि वह खुद बोलने से डरता है और पूजापाठी है.

द फ्यूचर औफ फ्री स्पीच का सर्वेक्षण और विश्लेष्ण भारत की भी पोल खोलता है और भारतीयों की दोहरी मानसिकता पर हैरानी जाहिर करता है. मसलन यह कि साल 2021 के बाद से भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खराब हुई है. लेकिन कुछ भारतीयों का मानना है कि इस में सुधार हुआ है. लेकिन इसी सर्वेक्षण के मुताबिक अधिकांश भारतीयों के लिए सरकारी सैंसरशिप के बिना स्वतंत्र रूप से बोलना बहुत महत्वपूर्ण है.

भारत में सरकारी नीतियों की आलोचना के लिए समर्थन वैश्विक औसत से भी कम है. यहां के 37 फीसदी लोग चाहते हैं कि सरकार को लोगों को सरकारी नीतियों की आलोचना करने से रोकने में सक्षम होना चाहिए.

जाहिर है ये 37 फीसदी वे धर्मपंथी हैं जिन्होंने देशभर में गंद फैला रखी है और इन की मंशा और आग्रह सरकार से यह है कि जो आलोचना करे उस का टेंटुआ ही दबा दिया जाए तो न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी. गौरतलब है कि 33 देशों की इस लिस्ट में भारत को 24वां स्थान मिला है ऐसे में अगर इन 37 फीसदी को और शह मिली तो हम सब से नीचे की शोभा बढ़ा रहे होंगे.

ये धर्मपंथी कैसे अभिव्यक्ति का गला घोंटते हैं इस की एक बड़ी मिसाल कुंभ के मेले में देखने में आई थी. मेले के दौरान कुछ नास्तिकों द्वारा कुंभ मेले को अंधविश्वास का प्रचार करने वाला बताया गया था तो नागासाधू उन पर बुरी तरह पिल पड़े थे. प्रशासन के दखल से बात आईगई हो गई थी लेकिन यह जरूर साबित हो गया था कि अगर आप नास्तिक हैं, अनास्थावादी हैं, अनीश्वरवादी हैं तो आप धर्मपंथियों द्वारा दुत्कारे जाने के लिए तैयार रहें.

अब यह और बात है कि एक वक्त में भीमराव आंबेडकर ने पूरे दमखम से यह कहा था कि कुंभ के मेले में नंगे साधुओं के पैरों तले कुचल कर हजारों नागरिक मर गए. धर्म के प्रति इतना अंधविश्वास और पागलपन विश्व के किसी भी देश में हमें दिखाई नहीं देगा. बात तो यह भी और है कि इन्हीं आंबेडकर को धर्मपंथियों की सरकार ने देवता बना दिया. यानी आवाज बंद करने यह तरीका टोटका भी कारगर होता है जिसे बुद्ध पर भी उन्हें अवतार घोषित कर आजमाया गया था.

लेकिन यह धर्मांधता अब चारोंतरफ बिखरी नजर आ रही है. क्योंकि यह रिपोर्ट दुनियाभर के हालातों का जायजा लेते खुलासा करती है कि अधिकतर देशों में 2021 के बाद मुक्त भाषण समर्थन में सुधार के बजाय गिरावट देखी गई है. जिस में सब से बड़ी गिरावट अमेरिका, इजरायल और जापान जैसे लोकतांत्रिक देशों में हुई. गुमनाम सा स्कैडिनेविया टौप पर रहा जब कि नार्वे और डेनमार्क मुक्त भाषण के भविष्य सूचकांक में दूसरे और तीसरे नंबर पर रहे.

धार्मिक कट्टरवादी देश निचले पायदानों पर रहे. इन में पाकिस्तान, नाइजीरिया और टर्की के नाम शुमार हैं. हालांकि सभी लोकतंत्रों में मुक्त भाषण की बात कही गई है पर यह कहने भर की बात है, अमल में नहीं आती. धार्मिक ही नहीं बल्कि जो देश वैचारिक रूप से कट्टर हैं वहां भी फ्री स्पीच नीचे ही रहती है. मसलन चीन, फ़्रांस, जापान वगैरह.

इन देशों में धर्म इतना अहम नहीं है कि उसे ले कर किसी का मुंह बंद करने की जरूरत पड़े. लेकिन यहां आप सरकार के खिलाफ कुछ नहीं बोल सकते. चीन में तो हालात यह हैं कि कोई अगर सरकारी नीतियों का विरोध करना चाहे तो उसे सरकारी लाइसेंसशुदा प्रकाशकों को विरोध का मसौदा दिखाना पड़ता है जिस में प्रकाशक सरकार की मंशा के मुताबिक कांटछांट करता है. नुकसान दोनों ही स्थितियों में बराबर हैं फर्क इतना है कि धार्मिक कट्टरवादी देश आमतौर पर नंगेभूखे और कर्ज में डूबे मिलते हैं. जब कि वैज्ञानिक सोच वाले देशों की पर केपिटा इनकम ज्यादा होती है.

बोलने की आजादी क्यों अहम है यह हर कोई जानता है. लेकिन क्या इस का उत्पादकता और विकास से भी कोई लेनादेना है इस जटिल सवाल या जिज्ञासा पर अर्थशास्त्र और अर्थशास्त्री खामोश नहीं हैं. उन्होंने क्या कुछ कहा उस से पहले एक सरसरी नजर दुनियाभर के देशों पर डालें तो समझ आता है कि जिन देशों में संपन्नता है, विज्ञान है उन देशों में बोलने की आजादी ज्यादा रही है.

अमेरिका का मौजूदा हाल और आने वाला कल कुछ भी हो पर इतना तय है कि वह सब से बड़ी ताकत इसलिए बन पाया कि वहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिली हुई थी जिस को छिनते देख हर किसी का चिंतित होना स्वभाविक है. क्योंकि आफ्टरआल अमेरिका एक ऐसी ताकत का नाम है जिस का हर फैसला सभी देशों पर असर डालता है. जैसे अब दुनियाभर में दक्षिणपंथ डाल रहा है.

विभाजन के बाद भारत ने पाकिस्तान के मुकाबले ज्यादा तरक्की की और खुशहाली भी हासिल की क्योंकि यहां धार्मिक कट्टरवाद पाकिस्तान सरीखा नहीं था और बोलने की आजादी थी. इस का बेहतर उदाहरण संविधान के लागू होने पर आरएसएस और हिंदू महासभा जैसे संगठनों और दलों द्वारा किया गया सार्वजनिक हिंसक विरोध था जिसे केवल दंगेफसाद रोकने की गरज से नियंत्रित किया गया था. वैचारिक विरोध को कभी देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने नहीं दबाया जाहिर है, अगर दबाया होता तो आज नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री न होते.

पाकिस्तान और अफगानिस्तान जैसे देशों में तो न मजहब और मुल्लाओं के खिलाफ बोलने की आजादी थी ( न अभी है) और न ही लोकतांत्रिक रूप से चुने गए नेताओं के खिलाफ कोई कुछ बोल सकता इसलिए वे ज्यादा बदतर हालत में हैं.

अर्थशास्त्र को बेहद बारीकी से देखें तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अकेले उच्च या अभिजात्य वर्ग का विषय नहीं है बल्कि यह आम नागरिक के हित का विषय ज्यादा है. जिस से उत्पादन भी बढ़ता है और सम्रद्धि भी आती है. रिजर्व बैंक औफ न्यूजीलैंड के चैयरमन रहे प्रमुख अर्थशास्त्री आर्थर ग्राइम्स की मानें तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कम संसाधनों वाले लोगों को सशक्त बनाती है. जिस से हाशिए पर पड़े लोगों की बेहतरी को बढ़ावा मिलता है.

19वीं सदी के दिग्गज अर्थशास्त्री जान स्टुअर्ट मिल का कहना था कि विचारों के लिए एक बाजार होना चाहिए. विचारों को खुले बाजार में प्रतिस्पर्धा करना चाहिए ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि कौन से विचार प्रबल होंगे. जब परीक्षण किया जाएगा तो अच्छे विचार जीवित रहेंगे जब कि बुरे विचारों को अस्वीकार कर डस्टबिन में डाल दिया जाएगा.

अर्थशास्त्र के नजरिए से मिल का चर्चित निबंध आन लिबर्टी मील का पत्थर माना जाता है जिस के मुताबिक मानव स्वतंत्रता के बिना विज्ञान, कानून या राजनीति में कोई तरक्की नहीं हो सकती. यानी मुक्त भाषण आत्मरक्षा के साथसाथ उत्पादकता के लिए भी जरूरी है. किसी विचार की अभिव्यक्ति को चुप कराने की अनोखी बुराई यह है कि यह मानव जाति को लूट रही है भावीपीढ़ी के साथसाथ वर्तमान पीढ़ी को भी, राय रखने वालों से कहीं अधिक वे लोग जो राय से असहमत हैं.

लेकिन अमेरिका, चीन, भारत और पाकिस्तान सहित दुनियाभर के देशों में धर्मपंथी और सत्तावादी जिस धूर्तता और क्रूरता से अभिव्यक्ति का गला घोंट रहे हैं उस की चर्चा और चिंता किसी सर्वेक्षण में सिमट कर रह जाती है. मिल का यह कहना भी अर्थशास्त्र की मोटीमोटी किताबों में कैद हो कर रह गया है कि व्यक्ति को अपनी पसंद के अनुसार सोचनेबोलने और काम करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए जब तक कि वह दूसरों को नुकसान न पहुंचाए.

अब डोनाल्ड ट्रंप और नरेंद्र मोदी जैसे अनेकों शासक आम या खास आदमी नहीं बल्कि भगवान टाइप हो गए हैं तो कहने का अधिकार भी उन के पास ही सुरक्षित हैं.

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