Indian Women : वे थकान की शिकार हो रही हैं, बीमारियों से घिर रही हैं लेकिन उफ भी नहीं कर रहीं, समानता की मांग नहीं कर रहीं. वे यह भी नहीं पूछ पा रहीं कि मेरे कमाए पैसों पर पूरा हक मेरा क्यों नहीं.
पिछले दिनों ओटीटी पर रिलीज हुई हिंदी फिल्म मिसेज मलयालम फिल्म ‘द ग्रेट इंडियन किचन’ की रीमेक है. इस फिल्म को मीडिया ने उतना भाव दिया नहीं जिस की वह हकदार थी. कोई नहीं चाहता खासतौर से मनुवादी मीडिया तो रत्तीभर भी नहीं कि समाज के पौराणिक सचों को उजागर करते साहित्य और फिल्मों पर बात की जाए. यह भक्तमीडिया दलित, शूद्रों की बात करते डरता है. वह स्त्री विमर्श से भी डरता है क्योंकि ये और ऐसे विषय धर्म की रूढ़ियों की और पितृसत्ता की पोल खोलते हैं.
मिसेज इस का अपवाद नहीं है. कैसे और क्यों इस की भरसक अनदेखी की गई. इस से पहले इस की विषयवस्तु थोड़े में ही समझें तो लगता है कि निर्देशक आरती कदव ने रियल लाइफ को रील में ज्यों का त्यों उतार दिया है. कुछ अतिश्योक्तियों के साथ ही सही लेकिन यह केवल पेशे से डांसर ऋचा की ही नहीं बल्कि लगभग हरेक औरत की कहानी है.
ऋचा जब शादी कर पति के घर आती है तो उसे एहसास होता है कि यह परिवार बेहद परंपरावादी है, जिस में घर के पुरुष खाट तोड़ते रहते हैं और महिलाएं घरेलू कामकाज में गुलामों की तरह खटती रहती हैं. यानी परिवार पूरी तरह पितृसत्तात्मक है. वह नौकरी करना चाहती है लेकिन ससुर इस की इजाजत नहीं देता क्योंकि इस से मुफ्त की नौकरानी हाथ से निकल जाती और बहू कमाऊ हो तो शोषण के खिलाफ विद्रोह भी कर सकती है.
एक दृश्य में बड़ी सहजता से दिखाया गया है कि सास कुर्सी तोड़ते ससुर के टूथब्रश में पेस्ट लगा कर देती है. घर की औरतों को मर्दों से पहले खाने की इजाजत नहीं. मुद्दे की बात ससुर का इस बात पर ऋचा को कोसना या नसीहत देना है कि वह सिलबट्टे पर पिसी चटनी ही खाएगा मिक्सी की नहीं. यहां हर कोई या कोई भी सासससुर का पक्ष लेते यह दलील देते फेमिनिज्म का विरोध कर सकता है कि अब तो सिलबट्टा रसोई से गायब है. इस्तेमाल मिक्स्चर ग्राइंडर का ही होता है. बात सही है लेकिन निर्देशक की मंशा दरअसल में सिलबट्टी मानसिकता का उकेरने की है और वह इस में कामयाब भी रही हैं.
कैसे पुरुषों ने महिलाओं की भूमिका सीता और सावित्री तक सीमित कर रखी है. इसे अंतरंग दृश्यों के जरिए भी दिखाया गया है. ऋचा का पति पेशे से डाक्टर है लेकिन फिर भी सैक्स में फोरप्ले की अहमियत नहीं समझता. सहवास के दौरान ऋचा को दर्द होता है तो वह कुछ देर पति को फोरप्ले करने को कहती है, इस पर पति चाहता है कि इस के लिए भी ऋचा उसे उकसाए या उत्तेजित करे. उस का उल्टासीधा बेहूदा सा जबाब सुन कर ऋचा सुबकते हुए सो जाती है.
पीरियड्स के दिनों में भी उस के साथ वही बर्ताव किया जाता है जिस का वर्णन इफरात से धर्मग्रंथों में किया गया है कि इन दिनों में स्त्री अछूत शूद्र होती है. इसलिए उसे जमीन पर चटाई बिछा कर सोना चाहिए. किचन में नहीं जाना चाहिए, पूजापाठ नहीं करना चाहिए और तो और पति का स्पर्श भी नहीं करना चाहिए क्योंकि इस से उस की उम्र कम होती है वगैरहवगैरह.
यह सब बेवजह नहीं है इस के पीछे मंशा औरत को गुलाम बनाए रखने की है. यह ठीक है कि महिलाएं शिक्षित हुई हैं वे नौकरी और व्यापार भी कर रही हैं और हर क्षेत्र में पुरुषों की बराबरी कर रही हैं. लेकिन यह भी सच है कि इतना सब कुछ हो जाने के बाद भी वे पुरुष दासता से मुक्त नहीं हो पाई हैं. बल्कि उन्हें नएनए तौर तरीकों और टोटकों से घेर लिया गया है.
मिसेज तो यह इशारा भर करती है कि मर्दों की कोशिश औरतों को ज्यादा से ज्यादा वक्त रसोई में रखने की है. जिस से उन की ऊर्जा प्रतिभा और वक्त खाना बनाने और खिलाने में जाया हो और इस पर भी तुर्रा यह कि खाना अच्छा नहीं बना. वह ऐसा और वैसा नहीं बना ये ताने किसी भी महिला को गिल्ट से भर देने वाले होते हैं जिन से उस का आत्मविश्वास लड़खड़ाता है.
यही आत्मविश्वास तब भी लड़खड़ता है जब एक कमाऊ महिला के नाम जायदाद तो होती है लेकिन उसे इस का इस्तेमाल करने की इजाजत नहीं होती. पहचान छिपाए रखने की शर्त का आग्रह करती भोपाल की 40 वर्षीय एक बैंक मैनेजर की माने तो उन की सैलरी एक लाख रुपए महीना है जिस का हिसाबकिताब पति रखते हैं. उन्हें उन के खर्च के लिए महज 20 हजार रुपए महीना दिए जाते हैं.
इस 20 हजार में से भी 8 हजार पैट्रोल में खर्च हो जाते हैं. बाकी 12 हजार में उन्हें अपनी व्यक्तिगत जरूरतें पूरी करनी होती हैं. जिन में मेकअप के अलावा बैंक की टी पार्टी से ले कर सैनेटरी नेपकिन तक के खर्च शामिल हैं. कंडोम अपनी इच्छा और जरूरत के मुताबिक पति ले आते हैं.
सभी नौकरीपेशा महिलाओं की यही हालत, वे तल्ख लहजे में बताती हैं कि बैंक में नौकरीपेशा महिलाओं के एकाउंट्स का लेनदेन अधिकतर पुरुष ही करते हैं. एक महिला प्रोफैसर का उदाहरण देते वे कहती हैं कि सैलरी डेढ़ लाख क्रेडिट होते ही एक लाख रुपए पति के एकाउंट में ट्रांसफर हो जाते हैं. बाकी बचे 50 हजार में से 15 हजार कार की किश्त के कट जाते हैं बचे 35 हजार में से प्रोफैसर साहिबा भी पैट्रोल, ब्यूटीपार्लर आदि पर खर्च करती हैं. इस के बाद भी उन के खाते में 8-10 हजार रुपए बच ही जाते हैं.
निश्चित रूप से किसी एक बैंक के एक या दो उदाहरणों को व्यक्तिगत रूप से हासिल कर यह सिद्ध नहीं किया जा सकता कि कमाऊ महिलाएं दूसरे कई शोषण के साथ आर्थिक शोषण का भी शिकार हैं. लेकिन यह नपातुला सच है कि नौकरीपेशा महिलाओं के नाम पर ज्यादा से ज्यादा लोन लिए जा रहे हैं इन में पर्सनल सहित कार और होमलोन भी शामिल हैं. इस से उन की कमाई किश्तों के जरिए ठिकाने लग जाती है जबकि खरीदी गई जायदाद का इस्तेमाल पुरुष करते हैं. इन में भी पति अव्वल हैं.
भोपाल के ही एक डाक्टर दंपति का उदाहरण इसे साबित करता है. इस मामले में दोनों की सैलरी लगभग बराबर है. लेकिन 40 लाख का होमलोन पत्नी के नाम पर लिया गया है जिस की इंस्टालमेंट 50 हजार रुपए महीने कटती है. खरीदे गए फ्लैट में पति के पेरेंट्स रहते हैं जबकि पतिपत्नी को सरकारी आवास मिला हुआ है.
डाक्टर पति अपना पैसा कहीं भी कैसे भी खर्च करे या जमा रखे इस पर टिप्पणी करना बेकार है पर उन की पत्नी एक तरह से सासससुर को 50 हजार रुपए महीने का दहेज ही दे रही है. अगर कभी वे अपने पेरेंट्स को शहर के फ्लैट में रखना चाहें तो क्या पति अपनी सैलरी पर 40 लाख का लोन ले कर 50 हजार रुपए की किश्त कटवाने तैयार होगा.
इसे बड़े फ्रेम में समझने आरबीआई का 28 फरवरी को जारी वह आंकड़ा काफी है. जिस में बताया गया है कि 2024-25 के 9 महीनों में बैंकों के गोल्ड लोन पोर्टफोलियो में 71.3 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. इस दौरान ज्वैलरी सहित गोल्ड लोन बढ़ कर 1.72 लाख करोड़ का हो गया है. यह बढ़ोतरी पिछले वित्त वर्ष में महज 17 फीसदी थी.
दो टूक कहा जाए तो यह महिलाओं को कंगाल करने या उन से पैसा छीनने का काम है. सदियों से पुरुष महिलाओं के गहनों पर नजर गड़ाए रहे हैं क्योंकि यही उन की संपत्ति होती थी जिसे कानूनन स्त्रीधन कहा जाता है.
कांग्रेस भले ही इस गोल्ड लोन को ले कर भाजपा सरकार को घेरे लेकिन उसे बयानबाजी के दायरे से बाहर लाने में नाकाम रही है. वह औरतों को यह हकीकत नहीं बता पा रही कि दरअसल आज भी पुरुष मनुस्मृति के इस सूत्र पर चल रहा है कि स्त्री को संपत्ति रखने का अधिकार नहीं. जबकि संविधान महिलाओं को संपत्ति का अधिकार देता है. इस पर जाने क्यों राहुल गांधी, मनुस्मृति और संविधान की तुलना नहीं कर पा रहे.
बड़ी तादाद में महिलाओं से सोना गहने छीन कर बैंकों में नहीं रखे जा रहे बल्कि महिलाओं का आत्मविश्वास गिरवी रखा जा रहा है और महिलाएं कुछ नहीं बोल पा रहीं. क्योंकि उन्हें घर नाम की इमारत की फिक्र ज्यादा है जिस के अंदर वे खुद को महफूज समझने का भ्रम पाले हुए हैं. वे कभी मिसेज फिल्म की ऋचा बनने का जोखिम नहीं उठा सकतीं जो फिल्म के आखिर में ससुर और पति के चेहरों पर रसोई का गंदा पानी फेंक कर चली गई थी और डांस टीचर बन गई थी.
रियल की औरतें घरों में पूजापाठ कर रही हैं और सड़कों पर कलश यात्रा में कलश ढो रही हैं. पति और बच्चों को उन के बिस्तर तक चायनाश्ता पहुंचा रही हैं. 8 घंटे रसोई और घर के कामकाज में खट रही हैं. अगर नौकरीपेशा हैं तो 9 घंटे दफतर में भी काम कर रही हैं. वे थकान की शिकार हो रही हैं, बीमारियों से घिर रही हैं लेकिन उफ भी नहीं कर रहीं. समानता की मांग नहीं कर रहीं. वे यह भी नहीं पूछ पा रहीं कि मेरे कमाए पैसों पर पूरा हक मेरा क्यों नहीं.
पंडालों में विराजे साधुसंत और बाबा उन्हें समझाते हैं कि स्त्री महान होती है, वह धरा है उस की सहनशक्ति असीम है. वह जननी है, आदिशक्ति है, वह पूज्यनीय है क्योंकि वह त्याग करती है. ठीक यही बातें 8 मार्च को देशभर में धर्म के ठेकेदारों की तरह फेमिनिज्म के ठेकेदारों ने भी घुमाफिरा कर अभिजात्य भाषा में कहीं थीं. उन का भी सार यही था कि जुती रहो, विद्रोह मत करो वह व्यर्थ जाएगा. हां भड़ास चाहे जितनी सम्मान के इन मंचों से निकाल लो उस से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला क्योंकि ये मंच असल में हैं ही इसीलिए.