Office : ”मिनी सिंह, मिनी सिंह और बस मिनी सिंह, मेरे तो कान पक गए यह नाम सुनसुन कर. लगता है जैसे उन के अलावा पूरे स्कूल में कोई और टीचर काम ही नहीं करती है. जो कुछ होता है सब मिनी सिंह ही करती है.” स्टाफ रूम में अमृता रावत दो अन्य टीचरों के साथ अपने मन की भड़ास निकाल रही थी. वे किसी तरह मिनी सिंह को प्रिंसिपल की नजरों में गिराने की साजिश में लगी थीं.

दरअसल मिनी सिंह ने अभी कुछ महीने पहले ही स्कूल ज्वाइन किया था. उम्र ज्यादा नहीं थी. कोई 26-27 साल की ऊर्जा और उत्साह से भरी लड़की थी. बीएससी, बीएड कर के आई थी और एक्स्ट्रा एक्टिविटीज जैसे डांस, सिंगिंग, एक्टिंग, क्राफ्टवर्क आदि में बड़ी माहिर थी. आमतौर पर अधिक उम्र की टीचर्स इन साड़ी एक्टिविटीज से दूर ही रहती हैं, जबकि बच्चों को इन एक्टिविटीज में अधिक इंट्रैस्ट होता है.

स्कूल के एनुअल डे के लिए मिनी सिंह ने बच्चों के एक समूह को डांस और एक समूह को एक छोटी नाटिका का प्रशिक्षण दे कर जब स्टेज पर उतारा तो दर्शक जिस में बच्चों के पेरेंट्स और कुछ विशेष अतिथि शामिल थे, बच्चों की परफौर्मेंस देख कर अभिभूत हो गए. प्रिंसिपल तो मिनी सिंह की कायल हो गई. इतना अच्छा डांस तो इतने छोटे बच्चों से इस से पहले कोई टीचर नहीं करवा पाई जैसा मिनी सिंह ने करवा लिया.

इस के अलावा स्टेज का पूरा डैकोरेशन, अतिथियों का स्वागत भाषण आदि में भी मिनी सिंह की अहम भूमिका रही. इस प्रोग्राम के बाद तो मिनी सिंह प्रिंसिपल की आंख का तारा बन गई. हर एक्टिविटी में उस की राय ली जाने लगी और कई महत्वपूर्ण प्रोजैक्ट उस को दिए गए. यह सब देख कर अन्य टीचर्स जलभुन कर बैंगन हो गईं.

साल भर के भीतर मिनी सिंह साधारण टीचर से प्रिंसिपल की पीएस बन गई. उस की सैलरी में तीन गुना बढ़ोत्तरी हो गई. यह सब उस को अपनी मेहनत, ज्ञान और कौशल से हासिल हुआ जो अन्य निकम्मी और कामचोर टीचर्स कभी हासिल नहीं कर सकतीं. मिनी सिंह के खिलाफ वे कितनी भी साजिशें करतीं मगर प्रिंसिपल उन की शिकायतों को एक कान से सुन कर दूसरे से निकाल देती क्योंकि मिनी सिंह की मेहनत वह साफसाफ देख रही थीं.

प्रत्येक कार्यालय, कंपनी, व्यवसाय आदि में एक न एक व्यक्ति मालिक का बहुत विश्वसनीय होता है. वह अन्य लोगों की अपेक्षा ज्यादा मेहनत करता है, संस्थान को ज्यादा समय देता है और सब से अधिक बेहतर परिणाम लाता है. स्वाभाविक रूप से, उस के साथ अलग तरह से व्यवहार भी किया जाता है. उस का मानसम्मान समयसमय पर होता है. उस की तनख्वाह में बढ़ोतरी होती है और इस के कारण स्वाभाविक रूप से वह कुछ लोगों की ईर्ष्या का शिकार भी बनता है. ईर्ष्यालु लोग सोचते हैं कि मालिक का ये व्यवहार गलत है कि किसी को इतना मान दें और अन्य को न दें.

अनेक संस्थानों में ऐसे एक या कई व्यक्ति हो सकते हैं जो सच्चे मन से संस्थान का हित चाहते हैं और उन की मेहनत के कारण ही संस्थान उन्नति करता है. दूसरा समूह उन कर्मचारियों का होता है जो बस घड़ी देख कर काम करते हैं, उन को संस्थान की उन्नति से कोई मतलब नहीं होता है, वे सिर्फ टाइम पर अपनी तनख्वाह चाहते हैं. यह वह समूह है जो कभी मालिक का प्रिय नहीं बन सकता. यह समूह तरक्की भी नहीं करता. यह बस चुगलखोरी और ईर्ष्या में लिप्त रहता है. इस के विलाप से न तो इस का कोई फायदा होता है और न ही इस के नियोक्ता का. इसलिए अगर जीवन में तरक्की करनी है तो किसी भी व्यक्ति का लक्ष्य पहले समूह में शामिल होने का रहना चाहिए.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...