Bollywood New Movie : ‘‘इमरजेंसी: कथानक के स्तर पर कुछ भी नया नही,मगर पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का महिमामंडन’’

रेटिंगः डेढ़ स्टार

निर्माताः कंगना रनौत, उमेश कुमार बंसल और, रेणु पिट्टी

लेखकः कंगना रनौत, रितेशशाह,तनवी केसरी पसुमर्थी

निर्देशकः कंगना रनौत

कलाकारः कंगना रनौत, अनुपम खेर,श्रेयश तलपड़े, अशोक छाबरा,महेंद्र चौधरी, विशाक नायर,मिलिंद सोमण,सतीश कौशिक,अधीर भट्ट

अवधिः दो घंटे 26 मिनट

लगभग तीन वर्ष पहले जब कंगना रनौत ने ओमी कपूर की किताब ‘इमरजेंसी: ए पर्सनल हिस्ट्री’ के अलावा जयंत वसंत सिन्हा की किताब पर आधारित फिल्म ‘इमरजेंसी’ बनाने का ऐलान किया था. तभी से यह फिल्म सुर्खियों में रही है. भाजपा सांसद होते हुए भी उन्हें अपनी इस फिल्म को दर्शकों तक पहुंचाने के लिए काफी पापड़ बेलने पड़े.अदालती लड़ाई भी लड़नी पड़ी.

लोग मानकर चल रहे थे कि देश को 2014 में आजादी मिलने की बात करने वाली व भाजपा सांसद व अभिनेत्री कंगना रनौत अपनी फिल्म ‘इमरजेंसी’ में 26 जून 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा देश में लगाई गई इमरजेंसी के दौरान हुई ज्यादतियों को बढ़ाचढ़ाकर चित्रित करते हुए इंदिरा गांधी व कांग्रेस पार्टी को देश के बहुत बड़े खलनायक के रूप में पेश करेंगी.

ऐसे में भी जब उन्हीं की यानी कि भाजपा शासन के दौरान उनकी फिल्म ‘इमरजेंसी’ रिलीज नही हो पा रही थी,तो लोग आश्चर्यचकित थे. सेंसर बोर्ड ने भी फिल्म के 21दृश्यों पर कैंची चलाने के लिए आदेश दिया.खैर,काफी लंबे इंतजार एक बड़ी लड़ाई लड़ने के बाद जब 17 जनवरी को ‘इमरजेंसी’ ने सिनेमाघरों में दस्तक दी,और हमने फिल्म देखी तो अहसास हुआ कि भाजपा सरकार इस फिल्म की रिलीज पर क्यों अडंगा डाले हुए थी.क्योंकि यदि आम चुनावों से पहले यह फिल्म रिलीज हो जाती, तो भाजपा को नुकसान और कांग्रेस को फायदा होना तय था.कंगना रनौत ने फिल्म का नाम गलत रखा है.इस फिल्म का नाम ‘इमरजेंसी’ की बजाय कुछ और होना चाहिए था. यह तो पूर्व प्रधानमंत्री की बायोपिक फिल्म है,जिसमें इमरजेंसी की घोषणा करने के लिए उन्हें विलेन नही बताया गया है.

अधिकांश राजनीतिक टिप्पणीकार मानते हैं कि इंदिरा गांधी एक महान नेता थीं, लेकिन आपातकाल सबसे बड़ी राजनीतिक भूल थी.पर कंगना रनौत की यह फिल्म इंदिरा गांधी को खलनायिका की तरह पेश नही करती,बल्कि वह उन हालातों व संजय गांधी को ही कटघरे में खड़ी करती हैं.

फिल्म ‘‘इमरजेंसी’’ के कुछ संवाद भी वर्तमान सरकार को नश्तर की तरह चुभ रहे होंगे.फिलहाल वर्तमान सरकार पिछले कुछ वर्षों से देश की अस्सी करोड़ जनता को मुफ्त में राशन बांट रही है.जबकि इस फिल्म में एक संवाद है-‘‘आधी रोटी खाएंगे,इंदिरा को वापस लाएंगे..’’ तो वहीं एक दूसरा संवाद है-‘जब प्रशंसा दुख देने लगती है, तो यह इस बात का प्रतिबिंब है कि चीजें सही नहीं हैं.’ यह संवाद भी अपने आप बहुत कुछ कह जाता है.कंगना ने फिल्म में पिता जवाहर लाल नेहरू,बुआ विजयलक्ष्मी पंडित,पति फिरोज गांधी के साथ के रिश्तों के उतारचढ़ाव के साथ ही निजी व राजनैतिक जीवन के कई प्रमुख घटनाक्रमों का समावेश किया है.

 

कहानीः 

फिल्म शुरू होती है इलाहाबाद,अब प्रयागराज स्थित आनंद भवन से, जब इंदिरा गांधी उर्फ इंदू महज ग्यारह वर्ष की रही होंगी,घर में कई महिलाएं इकट्ठा हैं और उस वक्त इंदू की बुआ व जवाहर लाल नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी पंडित ने नौकर के माध्यम से टीबी की बीमारी से ग्रसित इंदू की मां को घर के अंदर के कमरे में जाने के लिए कहती हैं.यह बात इंदू को अच्छी नहीं लगती.इंदू अपनी बुआ विजयलक्ष्मी पंडित को ‘चुड़ैल’ कहती हैं.फिर वह अपने पिता जवाहर से कहती हैं कि बुआ को घर से बाहर कर दें.जवाहरलाल कहते हैं कि यह काम तो दादा जी कर सकते है,घर तो उनका है.इंदू अपने दादा मोतीलाल नेहरु के पास जाती है, तब इंदू को अपने दादा मोतीलाल नेहरू से सत्ता और शासक होने का पहला सबक मिलता है.

फिर कहानी सीधे आसाम पहुंच जाती है,जिसे युद्ध के चलते चीन को सौंपकर जवाहरलाल नेहरू चीन को खुश करना चाहते हैं,मगर इंदिरा गांधी आसाम पहुंचकर पूरे विश्व का ध्यान खींचकर चीन को वापस जाने के लिए मजबूर करती हैं. इसके बाद कहानी 1971 का भारतपाक युद्ध, 1971 में बांग्लादेश का स्वतंत्र राष्ट्र बनना, शिमला समझौता, इंदिरा का शासन काल, 1975 से 1977 तक का इमरजेंसी, नसबंदी का दौर, आपरेशन ब्लू स्टार और अंत में अपनी आखिरी रैली के लिए जाती इंदिरा की हत्या तक जाती है.

1971 के भारतपाक युद्ध तक, अनुभवी जय प्रकाश नारायण (अनुपम खेर) और अटल बिहारी वाजपेयी (श्रेयस तलपड़े) जैसे विपक्षी नेताओं द्वारा भी गांधीजी का सम्मान किया जाता था.हालांकि, चार साल बाद, उसने उनमें से अधिकांश को सलाखों के पीछे डाल दिया.मगर इमरजेंसी हटने के बाद जनता पार्टी की सरकार बनने व उसके गिरने के बाद जब इंदिरा गांधी फिर से प्रधानमंत्री बनीं तो संजय गांधी का अपनी मां से भी मिलना मुश्किल हो गया था.

 

समीक्षाः

कंगना रनौत के व्यक्तित्व और पिछले 11-12 वर्षों से वह जिस तरह की बयानबाजी करती आई हैं,उसे देखते हुए लगता है कि कंगना फिल्म ‘इमरजेंसी’ को बनाना कुछ चाहती थी,मगर फिल्म बन कुछ और ही गई.इसी वजह से फिल्म के शुरू होते ही अति छोटी उम्र में इंदिरा गांधी को अपनी बुआ के लिए

‘चुड़ैल’ शब्द का प्रयोग करते दिखाया गया है.यह कितना सच है,हमें नही पता.मगर इस कड़ी के सिरे को पकड़कर शायद कंगना रनौत फिल्म में इंदिरा गांधी को जिद्दी,गलत शब्द बोलने वाली प्रधानमंत्री के रूप में पेश करना चाहती थीपर नही कर पाई.फिल्म में उन्होंने ऐसा कुछ भी नही परोसा है,जो कि गूगल सर्च में न मिले या साठ साल और उससे अधिक उम्र के लोग न जानते हो और उससे छोटी उम्र के लोगों ने न सुना हो.

इंदिरा के जीवन के लगभग 60 साल के दौरान घटित सभी महत्वपूर्ण घटनाक्रमों को दो घंटे 26 मिनट में समेटने के चक्कर में फिल्म की पटकथा काफी कमजोर होने के साथ ही इंटरवल से पहले घटिया डाक्यूमेंट्री फिल्म का अहसास कराती है.इंटरवल के बाद फिल्म कुछ ठीक होती है.यदि आप पूरी फिल्म की बजाय फिल्म के कुछ हिस्से अलगअलग देखें,तो बहुत अच्छे लग सकते हैं.

कंगना ने इस फिल्म में इंदिरा गांधी के मानवीय पहलुओं पर ज्यादा जोर दिया है.वह इंदिरा के डोमिनेटिंग, लीडरशिप और बेबाक छवि के विपरीत प्रधानमंत्री की मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक जटिलताओं पर जोर देती हैं.इंदिरा गांधी अपने समय की एक दबंग महिला ही नहीं बल्कि अतिसाहसी व दबंग राजनेता भी थी,जो कि पहली ही मुलाकात में फ्रांस व अमरीका के राष्ट्रपतियों से वह काम करवाने में सफल होजाती हैं,जिसके लिए वह उनसे मिलने गई थीं.मगर यह फिल्म इंदिरा गांधी के इस व्यक्तित्व को उभारने में असफल रहती है.

फिल्म जनता पार्टी के दिग्गज नेता जयप्रकाश नारायण (अनुपम खेर), अटल बिहारी वाजपेयी (श्रेयस तलपड़े), जगजीवन राम (सतीश कौशिक) उनकी करीबी पुपुल जयकर (महिमा चौधरी) उनके बेटे संजय गांधी (विशाक नायर), पति फिरोज गांधी (अधीर भट्ट) के साथ उनके रिश्तों की पड़ताल करते हुए उनके अंदर चल रहे अंदरूनी द्वंद को आधाअधूरा चित्रित करती हैं.

15 अगस्त 1975 के दिन पड़ोसी मुल्क बांग्लादेश के राष्ट्पति शेख मुजीबुर्रहमान के संपूर्ण परिवार को मारकर तख्ता पलट कर देने का घटनाक्रम दिखाते हुए इस बात की ओर इशारा जरूर किया,कि ऐसा किन विदेशी ताकतों की शह पर हुआ,पर वह पूरा सच बयां करने से कतरा गई.

इंदिरा गांधी के पिता जवाहरलाल नेहरु का उनके प्रति व्यवहार,आसाम का निदान निकाल कर जवाहरलाल को शर्मिंदगी से बचाने के बावजूद जवाहरलाल का अपनी बेटी इंदिरा से खुश न होना कहीं न कहीं उनके व्यक्तित्व को अलग ढंग से गढ़ता है,इसे भी लेखक व निर्देशक सही परिप्रेक्ष्य में चित्रित नही कर पाए. हां! वह अपनी इस फिल्म में संजय गांधी को ही विलेन के रूप में पेश करने में सफल रही हैं.

यह सच भी था.फिल्म में दिखाया गया है कि किस तरह इंदिरा गांधी की गैर मौजूदगी में इंदिरा गांधी यानी कि प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बड़ी ढीतता के साथ बैठकर मंत्रियों को आदेश देनेसे लेकर उनका पालन तक करवाते थे.तुर्कमान गेट और ‘जबरन नसबंदी’ के लिए वही असली विलेन हैं.तभी तो फिल्म में एक दृश्य हैजब संजय गांधी की मौत के बाद मायूस इंदिरा गांधी को पुपुल जयकर कार में बैठाकर घुमाने ले जाती हैं.

इंदिरा गांधी ने अपना चेहर छिपा रखा है,रास्ते में कुछ लोग उत्सव मना रहे हैं,ड्राइवर पूछता है कि यह कौन सा उत्सव है,तो एक महिला संजय गांधी को गाली देते हुए कहती है कि संजय गांधी मर गया,उसकी खुशी है. कुल मिलाकर कंगना की यह फिल्म हर जगह इंदिरा गांधी का महिमामंडन करते हुए ही नजर आती हैं.एक वक्त में इंदिरा के अंदर अपने बेटे संजय के प्रति विरक्ति आती है,इसे फिल्म में खूबसूरती से चित्रित किया गया है.

एक बहुत पुरानी कहावत है-‘‘एक साधे सब सधे,सब साधे सब जाय’’यह कहावत इस फिल्म के संदर्भ में कंगना पर पूरी तरह से फिट बैठती है.हर काम को खुद ही कर लेने की जिद के चलते बहुत कुछ गड़बड़ हो गया.कई तथ्य सही ढंग से नही रख पाई.बाला साहेब ठाकरे को वह नजरंदाज ही कर गईं.भिंडरावाला मसले को उन्होंने सिर्फ पांच मिनट के अंदर बहुत ही खराब तरीके से निपटा दिया.

इतना ही नहीं किरदारों के अनुरूप कलाकारों का चयन भी गलत ही किया गया.यहां तक कि इंदिरा गांधी के किरदार के लिए कंगना ने अपना चयन भी गलत ही किया.वह इस किरदार में बिलकुल फिट नही बैंठती हैं,इसलिए भी वह फिल्म में इंदिरा गांधी को बहुत कमजोर दिखाया है.प्रोस्थेटिक मेकअप के बाद भी उनकी नाक इंदिरा गांधी की नाक की तरह नही नजर आती,इसे छिपाने के लिए पूरी फिल्म में वह महज एक खास एंगल में ही खुद को कैमरे के सामने रखती हैं.फिल्म में सैम मानेकशों के किरदार में मिलिंद सोमण को छोड़कर एक भी कलाकार अपने किरदार के उपयुक्त नही है.तभी तो यह कलाकार अपने किरदारों के लोकप्रिय मैनेरिजम को पकड़ने के प्रयास में नौटंकी व मिमिक्री करते हुए नजर आते हैं.कई जगह कैरीकेचर नजर आते हैं.यह सब लेखक व निर्देशक की कमजोरी है.

इमरजेंसी के दौरान किसी नेता को टार्चर करते नही दिखाया गया.बल्कि बताया गया कि ट्रेन सही समय पर चल रही हैं.सब कुछ अनुशासित है.इमरजेंसी के दौरान तुर्कमान गेट व नसबंदी की ही बुराई है,जिन्हें संजय गांधी ने अपनी जिद के चलते अंजाम दिया था.इस फिल्म में व हर इंसान के दिमाग में एक सवाल का उठना लाजमी है कि इंदिरा गांधी पर किसी भी प्रकार का इंटरनेशनल दबाव नही था,भारत में भी उनके खिलाफ विरोध के स्वर उठाने वाले तो जेल में ही थे,फिर भी इंदिरा गांधी ने बिना संजय गांधी व अन्य नेताओं को विश्वास में लिए ‘इमरजेंसी’उठाते हुए चुनाव का ऐलान क्यों किया था? इस पर यह फिल्म कहती है कि इंदिरा गांधी ने ऐसा अपनी अंतरआत्मा की आवाज पर किया था.यहां भी इंदिरा गांधी का महिमामंडन ही है.

तमाम कमजोरियों के बावजूद यह फिल्म पूर्व प्रधानमंत्री के सामाजिक, राजनीतिक और यहां तक कि व्यक्तिगत जीवन पर एक संतुलित दृष्टिकोण पेश करती है.एकमात्र महिला प्रधानमंत्री की बुद्धिमानी उन चुनौतियों पर आपका ध्यान आकर्षित करती हैं जिनका गांधी को उनकी पार्टी और बड़े राजनीतिक स्पेक्ट्रम दोनों के भीतर सामना करना पड़ा. शुरुआत में वह एक नौसिखिया थीं, लेकिन गांधी को घरेलू और अंतरराष्ट्रीय राजनीति दोनों में अपनी छाप छोड़ने में ज्यादा समय नहीं लगा. गांधी ने अपनी पहली बैठकों में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और फ्रांसीसी राष्ट्रपति वालेरी गिस्कार्ड पर गहरी छाप छोड़ी.     इस फिल्म में इंदिरा गांधी समेत अटल बिहारी बाजपेयी,जय प्रकाश नारायण जैसे दिग्गज नेताओं पर देशभक्ति से ओतप्रोत गाने का फिल्मांकन अटपटा लगता है.

1971 की जंग के दृश्य दमदार बहुत बेहतरीन तरीके से फिल्माए गए हैं.अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन से इंदिरा का टकराव और फ्रांस के राष्ट्रपति के साथ रात्रि भोज करते समय परोसे गए केक के टुकड़े को पैक कराकर ले जाने वाले दृश्य अच्छे बन पड़े हैं.इसके लिए कैमरामैन टेट्सुओ नागाटा की ही प्रशंसा की जानी चाहिए.अन्यथा निर्देशक के तौर पर कंगना रनौत बहुत कमजोर रही.इस बात को तो अब उन्होंने भी स्वीकार कर लिया है.कुछ दिन पहले कंगना ने कहा है कि उन्हें फिल्म ‘इमरजेंसी’ का निर्देशन नही करना चाहिए था.

 

अभिनयः

इंदिरा गांधी के किरदार में खुद कंगना रनौत फिट नही बैठती हैं. वह कई दृष्यों में मिमिक्री आर्टिस्ट बन कर रह गई हैं.उन पर प्रोस्थेटिक मेकअप भी खराब लगता है. इंदिरा गांधी आइरन लेडी थीं,लेकिन कंगना के अभिनय से यह बात कहीं भी उभरकर नहीं आती. फिर भी बेअंत सिंह और सतवंत सिंह की गोलियों का शिकार होने वाले दृश्य में उनका अभिनय काफी स्वाभाविक बन पड़ा है और संजय गांधी के हमलावर होने वाले सीन में तो कंगना ने कमाल कर दिया है.इंदिरा गांधी की करीबी,दोस्त व सलाहकार पुपुल जयकर के किरदार में महिमा चौधरी का अभिनय सराहनीय है.श्रेयश तलपड़े,सतीश कौषिक,अनुपम खेर आदि अभिनेता के तौर पर अच्छे हैं,मगर इनमें से एक भी कलाकार अपने किरदार के साथ न्याय नही कर पाया.

क्योंकि वह उस किरदार के उपयुक्त ही नही है.सेनाध्यक्ष सैम मानेकशो के किरदार में मिलिंद सोमण जरुर ध्यान खींचते हैं.बिगडी हुई औलाद संजय गांधी के किरदार मे विशाक नायर का अभिनय जानदार है.फिल्म में वह तो कंगना को भी ओवरशेडो करते हुए नजर आते हैं. जय प्रकाश नारायण बहुत बड़े कद्दावर नेता थे,मगर अनुपम खेर उनके किरदार को ठीक से परदे पर चित्रित करने में बुरी तरह से असफल रहे हैं.

 

अंत में:

कंगना रनौत के पास एक सशक्त कथानक और बेहतरीन कलाकारों की फौज थी,पर वह इनका सही उपयोग करने में पूरी तरह से विफल रही हैं.इंदिरा गांधी हमारे देश की एकमात्र महिला और दबंग व सही प्रधानमंत्री ही नही बल्कि अति जटिल प्रधानमंत्री रहीं.उनके रिश्तें अपने पिता जवाहरलाल नेहरू,पति फिरोज गांधी,बेटे संजय गांधी,दूसरी तरफ उन्हीं की कांग्रेस पार्टी के साथ बगावत,एक तरफ अपने देश में गूंगी गुड़िया का टैग,तो दूसरी तरफ विश्व के हर सशक्त नेता को झुकाने वाली इंदिरा,एक तरफ पाकिस्तान व अमरीका की गीदड़ भभकी तो दूसरी तरफ बांग्लादेश का गठन. कथानक के स्तर पर क्या नही था,पर कंगना इन सभी का पटकथा में सही ढंग से उपयोग करने में बुरी तरह से मात खा गई.‘इमरजेंसी’ एक आम दर्शकों को भाने वाली फिल्म नहीं बन पाई इसलिए बाक्स आफिस पर इसका डूबना तय है.

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