Romantic Story 2025 : मन के प्रेम को जबान पर लाना भी जरूरी है, यह मैं तब समझा जब बहुत देर हो चुकी थी लेकिन शायद इतनी भी देर नहीं हुई थी कि अपनी गलती सुधार न पाता.

‘‘सु नो, आज औफिस मत जाओ न,’’ अर्चना ने बड़ी  मनुहार से सकपकाए से स्वर में कहा.

‘‘क्यों?’’ मेरे रूखे लहजे ने उस की घबराहट बढ़ा दी.

‘‘जी, पता नहीं क्यों, जी, कुछ अच्छा नहीं लग रहा,’’ उस ने  िझ झकते हुए कहा.

‘‘तुम औरतें भी न और तुम्हारा त्रिया चरित्र, आज मत जाओ,’’ मैं ने खी झ कर कहा, ‘‘वाह, अगर नौकरी नहीं करूंगा तो तुम्हारी फरमाइशें कैसे पूरी करूंगा. जी खराब है, पैसे रखे हैं टेबल पर, चली जाना किसी के साथ डाक्टर के यहां.’’ जातेजाते इतना एहसान अवश्य कर दिया उस पर.

और एक बार फिर, हमेशा की तरह, आज भी उसे अनसुना कर दिया. उस की डबडबाई आंखें यों भी मेरे लिए विशेष माने नहीं रखती थीं.

पुरुषोचित अहम का पुजारी मैं उस के प्रेम को उस का अर्थ सम झता, उस की आवाज वैसे भी मेरे सामने कभी खुली ही नहीं. मैं बस अपनी मनवाता गया और वह मानती ही गई. कभी ठहर कर सोच ही नहीं पाया कि आखिर उस की भी अपनी कभी कोई मरजी तो रही होगी. घर के सभी मर्दों की तरह घर की जरूरतों को पूरा करने के अलावा उस के पास बैठना मु झे मुनासिब न लगा. नौकरी के बाद मिले खाली वक्त में अपने दोस्तों के साथ रहना, अपनी जिंदगी अपने तरीके से जीने का हिमायती था मैं.

विवाह के शुरुआत के दिनों में उस के जल्दी आने के लिए टोकने को खुद पर अंकुश लगाने का प्रयास सम झता. विवाह के प्रारंभिक समय में जब होली पर उसे लेने मायके गया था तो एकांत में उस ने शरारत के साथ थोड़ा सकुचाते हुए मेरे गालों पर गुलाल लगा दिया. मैं क्रोध में उसे बहुतकुछ कह गया, जैसे मेरे साथ पत्नी नहीं कोई नौकर खड़ा हो, जिस ने कर्तव्य में कोई चूक कर दी हो. वह इसे अपनी गलती मान कर चुप हो गई और थोड़ी खामोश भी.

उस ने अपने सभी कर्तव्य निष्ठा से निभाए. इसे मैं अपनी सख्ती के परिणाम का फल मानने लगा. और उस ने धीरेधीरे खुद को खोते हुए यह भी छोड़ दिया, बस खामोशी के साथ मेरी पसंद में यों घुलती गई जैसे शरबत में शक्कर. कभी किसी विवाहित जोड़े को चुहलबाजी करते देखती तो उस के होंठों पर मीठी मुसकान आ जाती. मगर उस की तरसी निगाहें तनिक से प्रेम के लिए मेरी क्रोधित भंगिमा से सहम जातीं.

मैं खामोशी का पुजारी बस अपनी गृहस्थी के दायित्व की पूर्ति को प्रेम मानता रहा और वह धीरेधीरे खामोश होने लगी. उस की प्रेम की फरमाइश मु झे बचपना लगती, सो, मैं ने कभी उसे उस के मन को सम झने का प्रयास भी न किया. हां, बंद कमरे में मु झे प्रेम की आवश्यकता हुई तो उस ने कभी शिकायत का मौका न दिया, न ही मैं ने कभी उस से यह जानने की कोशिश की कि वह खुश है भी या नहीं. प्रेम का प्रदर्शन मु झे फुजूल लगता और रूमानी बातें कोरी किताबी. हकीकतपसंद मैं उस के नारीमन, उस के समर्पण और सहयोग को अपना हक मानता रहा.

लंचटाइम में कैंटीन में दोस्तों के साथ हंसीमजाक का दौर चल ही रहा था कि अचानक आए फोन ने जैसे मेरे दिमाग की सारी चूलें हिला दीं.

मु झे अपने कानों पर जो खबर सुनाई दे रही थी उस पर यकीन नहीं हो रहा था. किसी तरह चार्ज दूसरे अधिकारी को दे कर कैसे हौस्पिटल पहुंच पाया, यह मेरी सम झ से बाहर था.

हौस्पिटल में इमरजैंसी विभाग के बैड पर बेहोश लेटी अर्चना को शायद पता भी नहीं था कि उस का अकड़ू पति उस के सिरहाने 3 घंटे से उसी का चेहरा देख रहा है. उस की हालत काफी खराब हो गई थी. जब अस्पताल पहुंचा, उस के डाक्टर विकास ने मु झ से उस के बारे में कुछ बातें पूछीं, जिन्हें मैं उन्हें बता ही न पाया, कुछ मालूम होता तो ही बताता न.

तब डाक्टर ने मु झे लगभग फटकारते  हुए कहा, ‘‘मिस्टर रवि, कब से इन की तबीयत खराब है और ये अकेले ही आती रहीं. इन्हें डेंगू हुआ है और प्लेटलेट्स भी काफी डाउन हो गई हैं. आप इन पर ध्यान नहीं देते क्या?’’

मैं ने घबरा कर कहा, ‘‘आप अच्छे से अच्छा इलाज कीजिए, सर. पैसों की कोई चिंता नहीं, बस यह ठीक हो जाए.’’

उस के बाद अपने छोटे भाई शशिकांत को फोन किया. वह थोड़ी देर बाद मेरे पास आ गया. उस की आंखों में जो मेरे लिए क्रोध के भाव थे, उन्हें पहचानने में मेरी आंखें बिलकुल चूक नहीं कर रही थीं.

मु झे हमारी पड़ोसिन स्नेहा भाभी ने अर्चना के सामान के साथ उस के जेवर और चूडि़यां जाने से पहले पकड़ा दी थीं. उस के सूने हाथों में धीरेधीरे जीवन, ग्लूकोज और खून की शक्ल में घुल रहा था.

 

मैं रवि, अर्चना का पति, बेहद अनुशासनपसंद था. बचपन से और उस से भी ज्यादा जिद्दी व अकड़ू पर शर्मीला भी था जो अपनी भावनाएं जल्दी नहीं बांट पाता था. मेहनती और मेधावी था, इसलिए जल्दी ही अच्छे सरकारी पद पर रेलवे में इंजीनियर की नौकरी पा गया.

उधर, छोटा भाई शशि मेरे स्वभाव के बिलकुल उलट, नरमदिल और खुशमिजाज. वह मां और अर्चना सभी के लिए कोमल हृदय रखता था तो अपनी पत्नी सुमेधा के लिए क्यों न रखता. मैं उसे जोरू का गुलाम कहता क्योंकि उस का हर कदम मेरे स्वभाव के उलट था, भरी सभा में किसी अच्छे पकवान की तारीफ में कोई कंजूसी न करता. शौपिंग हो या बीमारी, वह थकान के बाद भी हाजिर रहता. मु झे ससुराल जाने से परहेज था मगर शशि में व्यावहारिक बातें कूटकूट कर भरी थीं. दफ्तर से सीधे घर आने और रसोईघर में पत्नी की बीमारी में सहयोग के लिए तो मु झे वह कभी अच्छा न लगता.

मु झे लगता था कि स्त्री को इतना तो मजबूत होना ही चाहिए, फिर भी हम दोनों भाइयों में बहुत प्यार था. इसीलिए मेरे जीवनसाथी की तलाश चल रही थी तो उस की खोज महानगर की मेरी पसंद की रिया से आ कर छोटे कसबे की अर्चना पर रुकी.

गौरवर्ण, सुंदर और सुघड़, अर्चना ने हर तरह से मेरा साथ दिया पर मैं न जाने कब से उस की भावनाओं को बिना सम झे, बस, मनमानियों की दुनिया में जिए जा रहा था. तब तक शशि की ‘‘दादा, यह लीजिए भाभी की रिपोर्ट और दवाइयां’’ की आवाज से मेरी तंद्रा भंग हुई.

 

मु झे पता था, एक दिन यह नौबत आनी है. उस

ने क्रोधित स्वर में कहा, ‘‘यह सरासर आप की लापरवाही है. भाभी आप के

अहं की कीमत चुका रही हैं. आखिर अपनी ही पत्नी के साथ अस्पताल जाने में कैसी शर्म?’’

मैं निरुत्तर था. वह मेरी आंखों मे आंखें डाल कर बोला, ‘‘दादा, भाभी ने आप को प्रेम देने में कोई कसर नहीं रखी पर आप चूक गए. अगर उन्हें कुछ हो गया तो आप को कभी माफ नहीं कर पाऊंगा.’’

इतना कह कर उस ने मुंह दूसरी तरफ फेर लिया और मैं उस के तर्क की कसौटियों पर खुद को तोलने लगा.

अर्चना के प्रेम का पलड़ा हर तरह से भारी था. मैं इस मामले में कंगाल था. कर्तव्यों की पूर्ति प्रेम कहां होती है, अब सम झ पा रहा था. शशि कहीं से गलत

नहीं लगा मु झे. हमारे समाज में सिनेमा में प्रेम स्वीकार है पर अपनों को प्रेम देने

में कृपणता.

‘‘शशि, गलती मेरी भी नहीं है. लड़कों का पालनपोषण ही ऐसे किया जाता है कि जैसे कोमलता को मारना ही पौरुष की निशानी हो.’’

‘‘दादा, यही तो बुराई है. हमें कोमल हृदय का भाई और पिता तो स्वीकार है पर पति की कसौटियों पर हृदय से कोमल पुरुष को हम जोरू का गुलाम कह डालते हैं. हो सके तो आप खुद को थोड़ा सा बदल कर देखिए, जिन को खुश करने के लिए आप अपनों को दरकिनार कर रहे उन का मोल जीवनसाथी से ज्यादा थोड़ी न है.’’

‘‘हां छोटे, शायद मैं पुरुष बनने में प्रेम की कीमत कभी सम झ ही न पाया. हम सर्वाधिक प्रेम जिस से पाते हैं उस की कीमत तो न हम चुकाते हैं और न सम झते हैं.

शीशे की दीवार के पार पीला पड़ा मौन अर्चना का चेहरा कितना बोल रहा था और मेरे तर्क आज स्पंदनहीन थे. मु झे याद आ रहा था, अगर वह कह देती कि शेव बनवा लीजिए तो मैं कई दिन उस को चिढ़ाने के लिए ही न बनाता, उस के फेवरेट कलर को कम पहनता आदिआदि.

उसे सजनासंवरना पसंद था पर मैं उसे गंवार कह देता. सुबहसुबह उस की चूडि़यों की आवाज जब वह चाय ले कर आती, मेरे लिए मेरी नींद खराब कर डालती, इसलिए उसे कड़े ला कर दे दिए. पायल अब शायद ही कोईकोई पहनता होगा पर अर्चना लपक कर पायलें ही पसंद करती.

मु झे सिंदूर भी थोड़ा सा ही लगाना अच्छा लगता पर वह हंस कर कहती, ‘यह आप की सलामती की निशानी है और कोई मु झे गंवार कहे तो कह ले.’

ऊपरी नाराजगी तो मैं उसे दिखलाता पर मन में मु झे भी अच्छा लगता कि यह मेरे होने का एहसास है. उसे कसबे से मेगा सिटी की नागरिक में बदलने की कोशिश में ही लगा रहा मैं.

घर में मेरे आते ही शांति छा जाती जो मेरे रहने तक बरकरार रहती. उस की उपस्थिति की हर आवाज को मेरी सोच ने दबा डाला किसी कोने में. किसी से फोन पर बात करती तो उस की उन्मुक्त खिलखिलाहट से मेरे अनुशासन का किला दरकने लगता. अब वह खुद में सिमटने लग गई थी और मैं यह देख कर खुश था.

 

अब तो हम दोनों 2 बच्चों के मातापिता भी बन चुके थे और बच्चे अपनी पढ़ाईलिखाई में मस्त थे. अर्चना ने हर फर्ज निभाया बिना शिकायत पर मैं शायद उस को इतना बदल चुका था कि उस का मन नहीं पढ़ पाया.

कुछ दिनों से थकी लग रही थी पर मैं ने पैसे दे कर फुरसत पा ली कि अकेले जा कर दिखा लो खुद को. अब नौकरी करूं या तुम्हें ले कर घूमता फिरूं.

वह अकेली चली जाती और एक दिन डाक्टर के ही फोन पर भागा हौस्पिटल आया तो वह बेहोश पड़ी थी बैड पर. आज वह साथ में पड़ोस की स्नेहा भाभी को लाई थी.

आज डाक्टर ने मु झे आईना दिखा दिया था मेरी सीरत की बदसूरत शक्ल का. अर्चना के पास अपने मित्र की पत्नी को छोड़ कर घर आया तो बच्चे कोचिंग से आ चुके थे.

रसोईघर और कमरे अपनी मालकिन के बिना अनाथ लग रहे थे. आज नीरवता से घबराहट हो रही थी. मैं उस में उस की चूडि़यों और पायल की आवाज को खोज रहा था.

सूना घर बहुत डरा रहा था. माहौल वैसा ही शांत था जैसा मु झे पसंद था पर आज यह दिल दहला रहा था. बारबार एहसास होता उस के टोकने का लेकिन वह तो  अस्पताल में जिंदगी और मौत के बीच आंखमिचौली खेल रही थी.

घबराहट हो रही थी उस के बिना कि अगर उसे कुछ हो गया तो क्या करूंगा. रातभर जागता रहा. सुबह जल्दी उठा. आज पहली बार मेरे कदम रसोईघर की ओर बढ़े. बच्चों की मदद से चाय और नाश्ता बना कर हौस्पिटल गया.

अब अर्चना को होश आ चुका था और वह मु झे देख कर मुसकराई भी. हफ्तेभर में उसे वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया.

इतने दिनों में मु झे उस के प्रेम का एहसास शिद्दत से हो चुका था. उस को खोने के डर ने मु झे दहला रखा था. मैं अब अर्चना को जीने लगा था. आज मैं ने अपने शर्मीले स्वभाव को पीछे छोड़ कर अपने अनगढ़ हाथों से खुद उस के बाल संवारे, बिंदी लगाई और चूडि़यां हाथों में पहना दीं.

जब उस की मांग में सिंदूर लगा कर उस के पास फूल रखे तो उस की आंखें भर आईं, शायद उसे मु झ से ऐसी उम्मीद न थी.

पर कहीं न कहीं वह उन तरसे पलों को जी कर छलक उठी जो उसे आज यों ही मिल गए थे. आज प्रेम में गुलाब नहीं, दवाओं की महक भले थी लेकिन मेरी बीमार सोच स्वस्थ हो चुकी थी.

मोबाइल में उस का चेहरा दिखा कर पूछा, ‘‘ठीक तैयार किया है?’’ तो उस ने क्षीण मुसकान से कहा, ‘‘पहली बार आप ने सजाया है मु झे, मैं बहुत खुश हूं.’’

5 दिनों बाद अस्पताल से जब उसे घर लाया तो साफसुथरा घर उस का स्वागत कर रहा था.

‘‘जब उसे कमरे में बैड पर अंदर लिटा कर चाय बना कर और ब्रैड सेंक कर लाया तो उस ने मु झे अपने पास बैठने को कहा.

बच्चे कोचिंग जा चुके थे. मेरा गला बुरी तरह भर गया था, बोला, ‘‘मैं बहुत डर गया था तुम्हें इस हालत में देख कर.’’

पर मैं इन दिनों में आप के बदलाव पर री झ गई, रवि.’’

शाम को मैं अपनी पसंद की पायल लाया और उस के पैरों में पहना कर कहा, ‘‘मु झे हर उस आवाज से प्यार हो गया है जो घर में तुम्हारे होने का एहसास कराती हो. तुम अब ऐसे कभी मत सोना. तुम सोती हो तो घर में सूनापन छा जाता है.

‘‘पता है, शांति से सूनापन डरावना होता है. आज मैं तुम्हें अपनी बनाई दीवारों से आजाद करता हूं. तुम खुद से भी प्रेम करो. आज मैं अपने प्रेम को बे िझ झक स्वीकार करता हूं. तुम सही कहती थीं कि चूडि़यों, पायल की आवाजें आत्मविश्वास बढ़ाती हैं कि मेरी जीवन संगिनी मेरे साथ है.

‘‘मकान को घर उस की मालकिन ही बनाती है, जो बात तुम कह कर न सम झा पाईं वह तुम्हारी बेहोशी ने बता दी.’’

उस ने जवाब में मुसकरा कर मेरे हाथों में अपना हाथ रख दिया.

मेरा घर अब फिर चहकने लगा था उस की उपस्थिति से, उस की कद्र करना अब मैं सीख गया था. शाम को शशि और सुमेधा भी आए. उन्हें मेरे सुखद बदलाव पर विशेष खुशी हो रही थी.

शशि ने मु झे सीने से लगा कर कहा, ‘‘दादा, प्रेम रैस्टोरैंट में खाना या पेड़ों के इधरउधर नाचना नहीं है, कभीकभी अपनों से व्यक्त करना चाहिए, यह जीवन का अन्न है.’’

‘‘हां शशि, अपनापन भी किसी डाक्टर से कम नहीं होता है, हर तकलीफ में ताकत की दवा देता है. यह सबक तू ने मु झे छोटे हो कर सिखाया है. बोल, आज अपने भैया के हाथ की चाय पिएगा?’’

वह इस बात पर आश्चर्यजनक तरीके से मुसकरा  दिया और मैं उसे होंठों में ‘थैंक यू छोटे’ कह कर मुसकरा दिया.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...