लेखक : अश्विनी कुमार भटनागर
केशव की पत्नी तरला खाना बनाने की शौकीन थी तो नरेश की पत्नी मनीषा को अपनी साजसज्जा से फुरसत नहीं मिलती थी. उन के इन रवैयों से परेशान केशव व नरेश ने एक ऐसी युक्ति अपनाई कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे, आखिर वह युक्ति क्या थी?
हैलोहैलो से परिचय की शुरुआत हो कर केशव और नरेश में आत्मीयता हो गई थी. अब तो दोपहर का खाना भी दोनों साथ बैठ कर खाते थे.
‘‘आज मैं इडली, चटनी और सांभर लाया हूं.’’ केशव ने अपना लंच बौक्स खोलते हुए कहा, ‘‘मेरी पत्नी बहुत अच्छा बनाती है.’’
‘‘यार, घर के खाने की बात ही कुछ और है,’’ नरेश ने अपना डब्बा खोल कर कुछ उदासी से कहा, ‘‘मेरा मन तो अकसर बाहर खाने को करता है.’’
‘‘हम लोगों की मानसिकता भी विचित्र है,’’ केशव ने हंस कर कहा, ‘‘होटल में घर जैसा खाना ढूंढ़ते हैं और घर में होटल जैसा.’’
दरअसल, नरेश के खाने में न तो कोई विविधता होती थी और न ही अच्छा स्वाद. लगभग रूखा सा. नरेश की पत्नी की रुचि खाना बनाने में कतई नहीं थी. वह तो बस, पत्नी का कर्तव्य निभा रही थी. अगर नरेश ने कभी कुछ कह दिया तो वह तुनक जाती थी.
‘‘इतने सारे होटल हैं. अब तो वहां जाना भी नहीं पड़ेगा. सब मुफ्त में होम डिलीवरी करते हैं. मनचाहा मंगाओ और खाओ,’’ उस की पत्नी का सदा यही जवाब होता था.
केशव को नरेश की स्थिति का एहसास था, इसीलिए वह अपनी पत्नी तरला से कहता, ‘‘नरेश को तुम्हारा खाना बहुत अच्छा लगता है. थोड़ा ज्यादा ही रख देना.’’
तरला इठला कर उत्तर देती, ‘‘मेरा खाना किसे पसंद नहीं? मुझ तो घर में सब हल्दीराम भी कहने लगे थे. बस, एक बार रसोई में घुस जाऊं तो नए से नया स्वादिष्ठ व्यंजन बना कर ही निकलती थी. ठीक बात है न?’’
केशव कटाक्ष करने से नहीं चूकता, ‘‘हां, एक गुण हो तो बाकी सारे अवगुण नजरअंदाज हो जाते हैं.’’
तरला नाराज हो कर मुंह बिचकाती. वैसे, वह कोई खास सुंदर नहीं थी और न ही उस में ठीक से रहने का सलीका ही था. काफी समय किचन और मसालों में रहने से उस के कपड़ों से ही नहीं, शरीर से भी मसालों की गंध आती थी. अब तो केशव उस गंध का इतना आदी हो गया था कि अगर वह कभी घर में नहीं होती तो दूर से ही उस की अनुपस्थिति का एहसास उसे हो जाता था.
खाली घर में ऊंचे स्वर में केशव अपनेआप से कहता था, ‘‘कहां हो मेरी हल्दी, मेरी सरसों, मेरी नमक, मेरी मिर्च, अब अधिक न तड़पाओ और जल्दी से प्रकट हो जाओ.’’
बाहर से अंदर आते हुए जब तरला यह नाटकीय संवाद सुनती तो खिलखिला कर हंस पड़ती थी.
एक दिन केशव ने कहा, ‘‘सुनो, मैं चाहता हूं नरेश और मनीषा को खाने पर बुला लूं. तुम्हें कोई आपत्ति तो नहीं?’’
नरेश के बारे में तरला बहुतकुछ सुनती रहती थी. उसे भी नरेश से मिलने की इच्छा थी, सो तुरंत कहा, ‘‘हांहां, बुला लो, कम से कम एक प्रशंसक तो और बढ़ेगा.’’
जिस दिन जाना था, मनीषा और नरेश समय से पहले ही पहुंच गए. घंटी बजाई तो दरवाजा केशव ने खोला. वह बनियान और पाजामा पहने था. यह देख कर दोनों को हंसी आ गई.
‘‘माफ करना, यार,’’ केशव ने सोेफे पर से सामान हटा कर उन के बैठने की जगह बनाते हुए कहा, ‘‘भाभी, आप बैठिए. मैं अभी तैयार हो कर आता हूं.’’
घर को बिखरा देख कर दोनों थोड़ा चौंक गए थे. अब आने का पता था तो कुछ तो सजावट सभी करते हैं. और तो और, घर में अगरबत्ती की जगह मसालों की खुशबू ने स्वागत किया.
केशव के जाते ही नरेश और मनीषा ने एकदूसरे को देखा. आंखों में एक ही प्रश्न था. यह घर है या कोई गोदाम?
केशव को तैयार हो कर आने में आधा घंटा लगा. तब तक दोनों बैठे बोर होते रहे.
जब केशव आया तो नरेश ने पूछा, ‘‘भाई, हमारी भाभीजी कहां हैं? अभी तक दर्शन नहीं हुए. कहीं ब्यूटीपार्लर तो नहीं चली गईं.’’
‘‘मेरी इन को तो ब्यूटीपार्लर का नाम छोड़ो, काम भी पता नहीं,’’ केशव ने मनीषा की ओर प्रशंसा से देखते हुए कहा, ‘‘ये तो साक्षात ब्यूटीपार्लर स्वयं हैं.’’
मनीषा को सजनेसंवरने का बड़ा चाव था. केश हों या कपडे़, सौंदर्य प्रसाधन हों या चलनेबैठने का अंदाज, सब में एक अदा थी. अपनी प्रशंसा सुन कर वह मुसकरा दी.
‘‘अब यही तो एक गुण है मेरी इन अच्छी आधी में,’’ नरेश ने हंस कर कहा, ‘‘जो भी इन्हें देखता है, लट्टू हो जाता है.’’
केशव अभी मनीषा को निहार ही रहा था कि अंदर से तरला बाहर आ गई.
‘‘माफ करना भैया और मनीषाजी,’’ तरला ने हाथ जोड़ कर कहा, ‘‘सुबह से खाना बनाने में लगी थी. आप लोग पहली बार आए हैं तो कुछ तो विशेष बनाना ही था न.’’
तरला को देख कर नरेश और मनीषा चौंक गए. अभी तक वह रसोई वाली साड़ी पहने थी. केशों की लटें गालों पर झुल रही थीं. पता न होता तो जरूर ही उसे नौकरानी समझने की भूल हो जाती.
‘‘आज परीक्षा हो जाएगी,’’ मनीषा ने हंस कर कहा, ‘‘वैसे तो आप स्वयं कुशल हैं, लेकिन मैं आप की कुछ मदद कर सकती हूं?’’
‘‘अरे नहीं,’’ केशव ने कहा, ‘‘आप का शृंगार खराब हो जाएगा.’’
‘‘आप इन को सूप दीजिए, मशरूम का है,’’ तरला ने केशव से कहा और बोली, ‘‘बस, आधे घंटे में आती हूं.’’
सूप इतना स्वादिष्ठ था कि नरेश को और लेने की इच्छा हुई, लेकिन रुक गया. मनीषा ने भी प्रशंसा की.
तरला हाथमुंह धो कर और साड़ी बदल कर आई, लेकिन कोई अंतर नहीं पड़ा.
मेज पर तरहतरह के व्यंजन थे. इतने स्वादिष्ठ थे कि सब उंगलियां चाटते रह गए. तरला हर एक व्यंजन का विस्तार से वर्णन भी कर रही थी. सबकुछ इतना अच्छा था कि नरेश और मनीषा भूल गए कि जब घर में आए थे तो कितना बुरा प्रभाव पड़ा था.
नरेश बारबार पत्नी से कहता, ‘‘तुम को भाभी से प्रशिक्षण लेना पड़ेगा. कुछ दिनों के लिए यहीं छोड़ जाऊंगा. क्यों भाभी?’’
नरेश और मनीषा के जाने के बाद तरला खाना और बरतन समेटने लगी. केशव आराम से बैठा तरला को भागदौड़ करते देख रहा था.
थोड़ी देर बाद पल्लू से हाथ पोंछते हुए तरला ने पास आ कर बैठते हुए मुसकरा कर कहा, ‘‘कहो, कैसा रहा? खाने की तो बहुत तारीफ कर रहे
थे न.’’
‘‘तारीफ तो होटल के खाने की भी लोग करते हैं,’’ केशव ने चिढ़ कर कहा, ‘‘मु?ो तो शरम आ रही थी.’’
‘‘शरम, कैसी शरम?’’ तरला ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘अच्छे खाने में शरम की क्या बात हुई?’’
‘‘शरम खाने से नहीं, तुम्हारे से आई,’’ केशव ने तनिक क्रोध से कहा, ‘‘देखा नहीं, मनीषा कैसा शृंगार कर के आई थी. कपड़े और जेवर पहनने के ढंग से लगता था कि अच्छे खानदान की है. घरवाली को ऐसा लगना चाहिए कि पति को गर्व हो.’’
तरला झटके से उठ खड़ी हुई और बोली, ‘‘अब खाना बनवा लो या मुझे कोई मेम बना दो. ठीक है, कल से खाना अपनेआप बना लेना. मैं सजती
और संवरती रहूंगी. मुझे भी तो पाउडरलिपस्टिक लगाना आता है.’’
तरला पति के मुंह से प्रशंसा के दो शब्द सुनने आई थी. उस की जगह कांटे चुभो दिए. क्रोध से केशव को देखने लगी.
‘‘नरेश तो यह भी कह रहा था कि उस का घर देखो तो हमेशा आईने की तरह चमकता है,’’ केशव ने क्रोध से कहा, ‘‘एक हमारा घर देखा, पूरा गोदाम है.’’
‘‘हां, और नरेश सुबह उठ कर चाय बनाता है तब महारानी बिस्तर से उठती है,’’ तरला ने ऊंचे स्वर से कहा, ‘‘और अगर कहीं नरेश ने जूतेचप्पल इधरउधर रख दिए तो सारे घर में झाड़ू लगवाती है. मुझे सब मालूम है. आधा महीना तो खाना बाहर से आता है.’’
अगले दिन तरला बिस्तर से नहीं उठी. सुबह न चायनाश्ता बना न दफ्तर के लिए लंच. केशव चुपचाप खाली लंचबौक्स उठा कर चला गया. भोजन अवकाश पर नरेश और केशव आमनेसामने थे. दोनों का मुंह लटका हुआ था.
लंचबौक्स खोलते हुए आश्चर्य का नाटक कर केशव ने कहा, ‘‘अरे, लंच वाला डब्बा तो घर पर ही रह गया. खाली डब्बा आ गया. चलो, तुम्हारे पास तो कुछ होगा.’’
‘‘हांहां, क्यों नहीं,’’ नरेश ने उत्साह से कहा, ‘‘आज भरवां परांठे बना रही थी, सो मैं ने तुम्हारा खयाल कर के और परांठे रखने को कह दिया था. अब तुम्हारे घर जैसे तो नहीं.’’
नरेश ने डब्बा खोला और आश्चर्य से बोला, ‘‘अरे, यह भी खाली, लगता है मेरा डब्बा भी घर पर रह गया.’’
दोनों एकदूसरे को काफी देर तक देखते रहे और फिर ठठा कर हंस पड़े.
केशव ने हंसते हुए कहा, ‘‘यार, ये पत्नियां भी खूब हैं. तारीफ करो तो मुश्किल, बुराई करो तो भी मुश्किल. अब पति बेचारा क्या करे?’’
‘‘अब मैं ने मनीषा से यही तो कहा था कि भाभी कितना अच्छा खाना बनाती हैं,’’ नरेश ने कहा, ‘‘तुम कुछ दिन उन के पास रह कर सीख लो.’’
‘‘और मैं ने क्या कहा, यही तो कि मनीषा कितनी अच्छी तरह से अपने को और अपने घर को रखती है. थोड़ा उस से सीख लो,’’ केशव ने कंधे उचका कर कहा, ‘‘बस, हो गई महाभारत शुरू.’’
कैंटीन में कौफी पीते हुए नरेश ने कहा, ‘‘यार, पत्नी बदल लेते हैं. शायद कुछ दिन सुकून मिले.’’
‘‘विचार तो बुरा नहीं है,’’ केशव ने मुसकरा कर कहा, ‘‘लेकिन संभव नहीं.’’
‘‘क्यों?’’ नरेश ने आश्चर्य से पूछा.
‘‘उसे झेल नहीं पाओगे,’’ केशव ने उत्तर दिया, ‘‘और इतनी सफाईपसंद औरत को झेलना मेरे लिए भी मुश्किल होगा. आदतें तो पत्नियों ने पहले ही बिगाड़ दी हैं.’’
‘‘बात तो ठीक है,’’ नरेश ने सहमत हो कर कहा, ‘‘फिर करें क्या?’’
‘‘कुछ नहीं, बस, झेलते रहो,’’ केशव ने फलसफा झाड़ते हुए कहा, ‘‘सात फेरे लिए हैं और सात जनम साथ निभाने के वादे किए हैं.’’
‘‘चलो, हम ही सुधर जाते हैं,’’ नरेश ने गहरी सांस ले कर कहा.
2 दिनों के शीतयुद्ध के बाद दोनों का जीवन सामान्य होने लगा. चेहरों पर हलकी मुसकान आ गई.
कुछ दिन और बीतने के बाद केशव को लगा दफ्तर से आने के बाद घर कुछ अधिक साफसुथरा था. तरला भी धुले और साफ कपड़ों में दिखाई दी.
जब न रहा गया तो केशव ने नरेश से कहा, ‘‘पता नहीं मेरा सपना है या सच देख रहा हूं.’’
‘‘क्या मतलब?’’ नरेश ने आश्चर्य से पूछा. केशव ने घर की सुधरती स्थिति को स्पष्ट किया.
‘‘ताज्जुब है,’’ नरेश ने कहा, ‘‘मुझे भी कुछ ऐसा ही लग रहा है.’’
‘‘क्या मतलब?’’
‘‘आजकल खाना पहले से कुछ अधिक स्वादिष्ठ लग रहा है. खाने में विविधता भी है,’’ नरेश ने खुलासा किया, ‘‘लगता है मनीषा भाभी से टिप ले रही है.’’
‘‘हो सकता है,’’ केशव ने हंस कर कहा.
‘‘क्या मतलब?’’ नरेश ने पूछा.
केशव ने हंसते हुए कहा, ‘‘मेरा टैलीफोन का बिल बढ़ रहा है. और तेरा?’’
‘‘वाह, क्या बात है,’’ नरेश ठठा कर हंस पड़ा, ‘‘और मेरा भी.’’
‘‘और हां, याद रखना,’’ केशव ने मंत्र पढ़ा, ‘‘तारीफ अपनी पत्नी की और बुराई दूसरी पत्नी की. वह भी अगर मजबूरी हो.’’
कुछ सोच कर नरेश ने कहा, ‘‘यार, अगर मेरी कोई संतान लड़की हुई तो उसे पूरी शिक्षा दूंगा. आधीअधूरी नहीं.’’
‘‘यानी, घरगृहस्थी चलाने की पूरी शिक्षा और अपने ऊपर भी खर्च करने में कोई कंजूसी न करे,’’ केशव ने कहा, ‘‘जहां जाए, पूरा योगदान दे और हर क्षेत्र में दिलों को जीत ले.’’