शाम को औफिस से लौटा तो पत्नी ने खबर दी, ‘‘आलिया के मकान का सौदा हो गया है. इसी महीने रजिस्ट्री भी हो जाएगी.’’
यह सुन कर मेरा मन खिन्न हो गया. चाय का कप लिए मैं छत पर आ गया. मेरी छत से लगा हुआ आलिया का मकान सुनसान पड़ा था. बहारों के मौसम में भी पौधों से लदे गमले सूखे, मुरझाए पड़े थे. मैं ने छत से झुक कर उन के पोर्च पर नजर डाली तो सिर्फ नारंगी फूलों वाली बेल फूलों से लदी हुई थी. याद आ गया पिछले महीने ही तो 25 वर्षीया आलिया ने अपनी बेहद नर्म आवाज से बतलाया था- ‘राजू भाई, पूरे 2 साल हो गए इस बेल को लगाए हुए. लेकिन इक्कादुक्का से ज्यादा फूल खिलते ही नहीं. इस बार नहीं फूल खिले तो काट दूंगी.’ यह सुन कर अम्मा बीच में बोली, ‘न न बिटिया, ऐसा न करना. हरी बेल को कभी काटना नहीं चाहिए. पाप लगता है. खादपानी डालती रहो, देखना इस बार लहकेगी.’ ‘ठीक है चाची,’ कह कर आलिया छोटे से लौन की सफाई में लग गई. और वाकई इस साल बेल ऐसी लहकी की पत्तियां दिखलाई नहीं दे रही थीं लेकिन उसे देख कर गद्गद् होने वाली मांबेटी न जाने जीवन की किस उलझन को सुलझाने में लगी थीं. लहकती बेल की खूबसूरती को जी भर कर देखने का वक्त ही नहीं निकाल सकी थीं.
पांच साल पहले मुसलमान परिवार ने घर के बगल में अपना घर बनाना शुरू किया तो अम्मा बड़बड़ाई थी-
‘ये मुसलमान तो बड़े गुस्से वाले और लड़ाकू होते हैं. कहीं हमारी शांति न भंग कर दें.’
मकान बनने में पूरा एक साल लगा. इस बीच आलिया और उस की अम्मी के मृदुल एवं सहयोगी स्वभाव से अम्मा का डर धीरेधीरे कम होता चला गया. गृहप्रवेश के बाद जब वे रहने आ गए तो पंडिताइन अम्मा ने उन के रहनसहन, खानपान और रोजमर्रा की गतिविधियों का बड़ी बारीकी से अध्ययन करना शुरू कर दिया.
‘ग्वालियर वाली जिज्जी तो कह रही थीं कि मुसलमान हफ्ते में एक बार शुक्रवार को ही नहाते हैं. पास बैठते हैं तो तेज गरममसाले और लहसनप्याज की बदबू आती है उन के कपड़ों से. लेकिन आलिया के घर तो…’
मेरी पत्नी बीच में बोल पड़ी, ‘सुबह 5 बजे उठ जाती हैं मांबेटियां. फिर पूरे घर का झाड़ूपोंछा. 9 बजे तक आलिया के दोनों भाई और वो खुद अपनी बुटीक के लिए नहाधो कर, खापी कर निकल जाते हैं. दिन में आलिया की अम्मी किताबें पढ़ती है. पूरा घर चमचमाता रहता है उन का.’ यह सुन कर मुझे तसल्ली हुई.
एक दिन मैं ने देखा अम्मा अपनी सफेद धोती के आंचल से एक कटोरी ढ़ांक कर आलिया के घर दाखिल हो रही है. लौटी तो कटोरी को वैसे ही ढांक कर ले आई और अपनी थाली लगाने लगी. मैं ने उत्सुकतावश पूछ लिया, ‘‘क्या लाई हो अम्मा? और क्या ले गई थी?’
‘कुछ नहीं राजू, आलिया को अर्वी के पत्तों की बेसन वाली सब्जी पसंद है, वही देने गई थी. उस की अम्मी ने पकौड़ों वाली कढ़ी दे दी. ले, थोड़ी तू भी चख ले. खाना बहुत अच्छा बनाती है आलिया की अम्मी.’
छूताछूत पर विश्वास रखने वाली अम्मा मुसलमान के घर उठनाबैठना और खाने की चीजों का अदानप्रदान करने लगी है, देख कर बेहद आश्चर्य हुआ.
मेरा बेटा विक्की 4 साल का होने वाला था लेकिन स्कूल के नाम पर दहाड़ें मारमार कर रोता था. जितने दिन भी नर्सरी स्कूल गया, क्लास की खिडक़ी से बाहर बैठी दादी को बारबार आवाजें देता रहा. आलिया का छोटा भाई 12वीं के बाद प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने लगा था. महल्ले के चारपांच बच्चे शाम को उस के पास ट्यूशन पढऩे आते थे. अम्मा विक्की को बैग के साथ रोज उस के पास ले जाने लगी. अम्मा दूसरे कमरे में आलिया की अम्मी से बातें करती हुर्ई कभी सब्जी काटने लगती, कभी बुटीक की साडिय़ों और ब्लाउज में पीकोफौल करने या बखिया करने लगती. दादी बैठी है इसी भरोसे से और विक्की हमउम्र बच्चों के साथ बैठ कर पढऩे लगा. धीरेधीरे विक्की खुद ही, 3 बजते ही बस्ता उठा कर आलिया के घर जाने लगा.
पढ़ाई खत्म होने के बाद आलिया की अम्मी बच्चों को चौकलेट, बिस्कुट देते हुए कहती, ‘शुक्रिया बोलिए.’ जब मुसलमान बच्चे घर जाते हुए ‘अल्लाह हाफिज’ कहते तो देखादेखी विक्की भी ‘अल्लाह हाफिज’ बोलने लगा. अब वह घर में किसी भी चीज को लेते हुए ‘शुक्रिया’ कहता और घर से जाते हुए अल्लाह हाफिज कहने लगा. घर में तो वह धमाचौकड़ी मचाए रहता लेकिन आलिया के घर बड़ी ही तहजीब से बैठता और आपआप कर के छोटेबड़े सभी से बातें करने लगा.
कट्टर रूढि़वादी पंडित घर की मेरी पत्नि ने विक्की के संस्कारों में उर्दू एवं मुसलिम संस्कृति को घुलतेमिलते देखा तो उस के दिमाग में अलगाववादी कीड़ा कुलबुलाने लगा. क्या सीख रहा है विक्की ये. क्यों धन्यवाद की जगह बातबात पर शुक्रिया कहने लगा है और ट्यूशन पढऩे जाते समय मेरे और अम्मा के पैर छू कर अल्लाह हाफिज कहता है. अगर हमारे परिवार वाले सुनेंगे तो क्या कहेंगे. यही न कि ब्राह्मïण को मुसलिम संस्कार सिखा रहे हो. बचपन में सीखी गई बातें ही तो बच्चा जीवनभर याद रखता है. हमारे वार्त्तालाप के समय मैं ने देखा की विक्की पूजाघर में अम्मा के साथ बैठा श्लोक दोहरा रहा है और बीचबीच में हाथ उठा कर घंटी भी बजा देता है. इत्मीनान की सांस ले कर मैं बोल उठा, ‘रजनी, अब समय बदल गया है. अब हमें बच्चे को अपने संस्कारों के अलावा दूसरे धर्मों, खासतौर पर इसलाम धर्म, के अच्छे संस्कारों से भी परिचित कराना चाहिए ताकि बड़े होने के बाद मुसलमानों के साथ मेलजोल बढ़ाने, साथ रहने, काम करने में जरा भी हिचक पैदा न हो. लोगों ने हिंदू-मुसलमानों के बीच लकीरें खींच कर देश के 2 टुकड़े कर दिए. और अब कितने टुकड़े होते देखते रहेंगे हम.’
‘रजनी हमारे विक्की को अप्रत्यक्ष रूप से बचपन में ही मुसलिम तहजीब वालों के साथ रहने का मौका मिल रहा है, इस से वह अपनी संकीर्ण सोच के दायरे से बाहर निकाल कर दूसरे कल्चर के साथ घुलमिल कर अपने व्यक्तित्व का विकास ही करेगा. उसे सोच का विस्तृत आकाश मिलेगा. वह अपनी कुंठाओं और धार्मिक दायरों से बाहर आ कर हिंदूमुसलमानों के बारे में अलगअलग नहीं साचेगा बल्कि वह सिर्फ इंसानों के बारे में सोचेगा. धर्मनिरपेक्षता का पाठ हम नहीं पढ़ाएंगे बच्चों को तो देश सिर्फ जातिवाद और धर्म को ले कर होने वाले दंगेफसादों का ही मैदान बना रहेगा. बच्चों को बचपन से सिखलाया जाना चाहिए कि हिदू धर्म और इसलाम को मानने वालों में मूलभूत रूप से कोई भेदभाव नहीं है. बच्चों के बड़े होने तक तथाकथित कट्टर पंडित और मौलवियों को अपने रोटी सेंकने व स्वार्थपर्यताभरी कुचालों को तर्कवितर्क कर के समझने की सूझबूझ पैदा करना हमारा कर्तव्य है, तभी तो हम धर्मनिरपेक्ष देश की कल्पना कर सकते हैं.’ मेरी भारीभरकम बातें सुनती रही रजनी लेकिन उस दिन के बाद उस ने कभी भी विक्की को रोका नहीं.
आलिया का परिवार मेरे परिवार के साथ बहुत घुलमिल गया. पत्नि दूसरी बार मां बनने वाली थी. विक्की कभीकभी आलिया के साथ सो जाता. आलिया की सुंदरता और शालीनता देख कर मेरी पत्नी अकसर उसे छेड़ते हुए कहती, ‘जब तुम्हारी शादी होगी तो जवाई बाबू को पहले ही समझा देना कि हम तुम्हारे जैसी ही बहू लाएंगे विक्की के लिए. समझ गई न. सुन कर शर्म से आलिया की कान की लोलकी लाल बिरबुहटी हो जाती. सोच लो हम हिदू हैं. बाद में मुकर तो न जाओगी.’
आलिया तपाक से कहती, ‘हिंदूमुसलमान तो हम ने बनाए हैं, भाभी. पहले तो हम इंसान हैं. वादा रहा. जिंदगी रही तो निभाऊंगी जरूर.’ यह सुन कर कट्टरवादिता मुंह छिपाने लगती और धर्मनिरपेक्षता मस्तीभरी अंगड़ाइयां लेने लगती.
अम्मा ईद के समय आलिया के लिए जोड़ा, मेहंदी और सेवइयों के साथ चूडिय़ां जरूर भिजवाती. दीवालीहोली पर आलिया की मम्मी अपने हाथ से दहीबड़े, खोये के गुलाबजामुन और स्वादिष्ठ गुजिया बना कर भिजवाती. अम्मा और आलिया की अम्मी दोनों शाम को पोर्च में कुरसी डाले दुनियाजहान की बातें करते हुए ठहाके लगातीं.
दोनों पड़ोसी परिवार एकदूसरे के पूरक बन गए थे, लेकिन अचानक आलिया के मकान बेचने के फैसले ने हम सब को विचलित कर दिया.
आलिया ने बुटीक के पेपर गिरवी रख कर लोन ले कर बड़ी मेहनत से मकान बनवाया था. मकान बेचने का उस का अप्रत्याशित फैसला मुझे हजारों सवालों के रेगिस्तान ले गया जहां दूरदूर तक जवाबों की कोई झील नहीं थी. धीरगंभीर आलिया अपनी समस्याओं को अपनी अम्मी के साथ भी नहीं बांटती थी. कहीं सुन कर अम्मी ने सदमा ले लिया तो क्या होगा. आठ साल से अब्बू के इंतेकाल के बाद अम्मी ही तो उस का एक मात्र सहारा थी. भाई की अचानक मौत के बाद आलिया के अब्बू ने उस के दोनों बच्चों को अपने पास रख कर परवरिश की. उन के मरने के बाद आलिया ने उन के कौल को पूरा करने के लिए कमसिन भाइयों को अपने हाथ ही रखा. एक बुटीक की कमाई और खाने वाले 5 पेट. रबर की तरह कहां तक खिंचती उस की आमदनी. मकान के लोन की किस्त भी हर महीने बदस्तूर जमा करनी पड़ती थी.
आलिया से पूछने की हिम्मत नहीं हुई, लेकिन इतना तो समझ में आ गया कि जरूर कोई बड़ी और गहरी वजह है जिस ने आलिया को इतनी मेहनत और प्यार से बनाए गए मकान का सौदा करने के लिए मजबूर किया है.
आलिया का मकान बिक गया. अम्मा तो काठ की हो गई और विक्की का रोरो कर बुरा हाल था. अग्निहोत्री के परिवार का सामान ट्रक से उतरने लगा. तीन बेटियां, दो बेटे, भरापूरा घर. अग्निहोत्री जी नगर निगम में इंजीनियर थे.
बमुश्किल एक रात ही कटी थी कि दूसरे दिन मजदूरों ने मेन गेट उखाडऩे की प्रक्रिया में इतनी जोर से सब्बल की चोटें मारी कि में दिमाग की नसें तडक़ने लगीं. मेन गेट को चेंज किया गया. कमरों के फर्श की मोजाक उखाड़ कर संगमरमर बिठाया गया. लकड़ी की अलमारियां और कबर्ड बनने लगे. पूरे दिन ठकठक की आवाजें आती रहतीं.
झांसी जैसे कसबे में लोग कहीं न कहीं आपस में टकरा ही जाते. उस दिन औफिस में सहकर्मी ने बर्थडे की पार्टी दी तो मैं ने अग्निहोत्री के मंझले बेटे को उसी होटल में दोस्तों के साथ बियर पीते, मटन खाते देखा. इत्तेफाकन एक दिन देररात को औफिस से लौटने लगा तो अग्निहोत्री को इंग्लिश शराब की दुकान से अखबार में बोतल लपेटे गाड़ी में रखते देखा. कट्टर ब्राह्मण परिवार अपने संस्कारों एवं क्रियाकलापों से वास्तव में कितना ब्राह्मण रह गया है, यह सोच कर ही मन अफसोस से भर गया.
उस दिन शाम को सामान लेने मैं पत्नी और विक्की के साथ खरीदारी कर रहा था कि विक्की जोरजोर से चिल्लाने लगा, ‘आलिया दीदी, आलिया दीदी.’ और स्कूटर से उतर कर भीड़भरी सडक़ की दूसरी तरफ खड़ी आलिया और अम्मी की तरफ तेजी से भागने लगा. आलिया उसे गोद में उठा कर प्यार करने लगी और धीरेधीरे सडक़ पार कर के हमारे पास आ कर खड़ी हो गई.
आलिया की अम्मी दुबली हो गई थी और आलिया का गुलाब सा चेहरा वक्त के थपेड़ों में कुम्हला गया था.
‘‘अम्मा बहुत याद करती हैं आंटी आप लोगों को,’’ पत्नी बोली.
आलिया की आंखें पनीली हो गईं और वह मेरी पत्नी के कंधे पर सिर रख कर फफक पड़ी.
‘‘क्यों बेच दिया आलिया तुम ने मकान? ऐसी क्या मजबूरी थी?’’ मैं अपने अंदर की तल्खी को दबा नहीं सका.
भर्राए गले से हिचकियों के साथ बोले गए आलिया के एकएक शब्द मुझे भीतर तक चीरते चले गए.
‘‘मेरे चचाजात दोनों भाई 28-29 साल के हो कर भी आर्थिक रूप से मेरी कोई मदद नहीं करते थे. सिलाई में कम्पीटिशन और कारीगरों की मनमानी की वजह से बुटीक की आमदनी से 5 लोगों का गुजारा नहीं हो पा रहा था. पिछले 6 महीनों से मैं बैंकलोन की क़िस्त भी जमा नहीं कर सकी थी. बेरोजगार भाई ने लवमैरिज कर एक और जिम्मेदारी मेरे कंधों पर डाल दी. अम्मी काम करने के लिए कहती तो वे दोनों सीनाजोरी पर उतर कर कहते, ‘मकान में हमारा भी हिस्सा है. हम यहीं रहेंगे, जब काम मिलेगा तभी तो करेंगे न.’ तो मैं क्या करती, राजू भाई.”
‘‘लडक़े ने शादी करने से पहले एक बार भी नहीं सोचा कि हमें आसरा देने वाली बड़ी बहन अभी तक कुंआरी है. पहले उस की शादी करना चाहिए. इसलिए मकान बेच कर बैंकलोन चुकाया और एक प्लौट लिया शहर से जरा बाहर. अब वहां दोदो कमरों के 2 मकान बनाए जा रहे हैं. एक दोनों लडक़ों के लिए, एक हम मांबेटी के लिए,’’ आलिया की अम्मी ने खुलासा किया, “अपने की खुदगर्जी और बेहिसी, बेमुरव्वती ही इंसान को तोड़ देती है. जिन भाइयों को पालतेपालते आलिया ने अपनी पूरी कमाई, अपनी उम्र का खुशनुमां वक्त सहरा बना कर गंवा दिया, उन निकम्मे भाइयों ने एक बार भी उम्र गंवाती खुशियों से बेदखल हुई बहन के बारे में नहीं सोचा. बस, यही दस्तूर रह गया अब हमारे समाज का.”
‘‘आलिया बूआ घर चलिए न, दादी आज पंजीरी बनाएंगी. आप को बहुत पसंद है न,’’ विक्की आलिया के गले में नन्हींनन्हीं बांहें डाल कर बोला.
‘‘आएंगे बेटा, आएंगे. जब अग्निहोत्री जी गृहप्रवेश करेंगे तब जरूर आएंगे.’’
घर में घुसते ही विक्की ने सब से पहले अम्मा को आलिया से मुलाकात का विवरण दिया तो अम्मा की आंखों में दरिया उतर आया. बूढ़े चेहरे पर अफसोस और उदासी की रेखाएं खिंच गईं.
पड़ोस से घिसाई मशीन की घर्रघर्र और ठोंकनेपीटने की आवाजें बदस्तूर आ रही थीं.
शाम को दूध लेने डोलची ले कर बाहर निकला तो अग्निहोत्री कार से उतर रहे थे. औपचारिक मुसकान के अदानप्रदान के साथ हाथ मिलाते हुए मैं ने पूछ लिया, “कब कर रहे है गृहप्रवेश. मुझे आलिया के आने का बेसब्री से इंतजार था.”
‘‘अभी समय लगेगा. बहुत सारा काम करवाना बाकी है.’’
‘‘लेकिन मकान तो पूरी तरह से रहने लायक था. आलिया का परिवार 7 सालों से रह रहा था और बहुत अच्छा मेनटेन भी किया था.’’
‘‘ऐक्चुअली, अब हम किचन ओटे की टाइल्स और नीचे का फर्श बदल रहे हैं.’’
‘‘क्यों?’’
‘‘वे लोग मुसलमान थे. सालों से नानवेज पका-खा रहे थे. मसालों के और नानवेज के छींटे टाइल्स और नीचे के फर्श पर पड़े होंगे, फर्श पर रख कर मटनमछली काटा और साफ किया होगा. हम सूर्यकुल के ब्राह्मण हैं. ऐसी जगह भाग का कच्चापक्का खाना कैसे पका सकते हैं. और कमरों की जिस फर्श पर उन्होंने नमाजें और फातेहा पढ़ी होगी, वहां भगवान की मूर्तियां कैसे स्थापित कर सकते हैं. वाइफ तो लैट्रीन के इंडियन और कमोड पौट भी बदलने के लिए जोर दे रही है. मुसलमानों द्वारा उपयोग में लाई गई चीजों का हम ब्राह्मण कैसे प्रयोग कर सकते हैं?’’ अग्निहोत्री जी की तर्कहीन बातें सुन कर मेरे कानों में हजारों अलावे धधकने लगे और दिल में अफसोस का हाहाकार मच गया.
खुद को बहुत संयत करने के बावजूद अपने रोष को छिपा नहीं सका. ‘‘अग्निहोत्री जी, जिन की रसोई के मांसाहारी खानों के छींटे पडऩे के भ्रम में आप ने इतना ज्यादा रुपया और समय बरबाद किया है कि वे लोग मांसाहारी थे, हालांकि वे मांसाहारी नहीं थे. मुसलमान हो कर भी पूरी तरह से शाकाहारी भोजन का सेवन करते थे. प्रतिदिन नहाधो कर घर को मंदिर की तरह साफ रखते थे. रहा सवाल नमाज और फातेहा पढऩे के लिए मुसलमान परिवार द्वारा इस्तेमाल किए गए फर्श को उखाड़ कर नया फर्श लगाने का, तो मुसलमान तो अपनी नमाजों में अपने शरीर के अलावा हिंदुओं की तरह रोली, चंदन, दीयाबाती, फूलपत्ती, नारियल धूप प्रसाद, पानी आदि किसी सामग्री का इस्तेमाल नहीं करते, फिर फर्श के अपवित्र या गंदा होने का प्रश्न ही कहां उठता है?”
अग्निहोत्री मेरी बातें सुन कर स्तब्ध रह गए. और निरुत्तर से बोझिल कदम उठाते हुए मेन गेट से टिके, जड़, मूर्तिवत खड़े के खड़े रह गए.