भारत में  गुरु तो गुरु, उन की पादुकाएं तक पैसा कमाती हैं. इसे चमत्कार कहें या बेवकूफी, यह अपने देश में ही होना संभव है. धर्मगुरुओं ने प्रवचनों के जरिए लोगों में आज कूटकूट कर इतनी हीनता भर दी है कि वे मानसिक तौर पर अपाहिज हो कर रह गए हैं. धर्म के कारोबारी नहीं चाहते कि उन के अनुयायी कभी तर्क करें, इसलिए प्रवचनों और धार्मिक किस्सेकहानियों के जरिए उन्हें आस्था की घुट्टी पिलाई जाती है. हमारे धर्मप्रधान भारत देश में धर्मगुरुओं की भरमार है. हरेक नागरिक ने अपनी पसंद और रुचि के अनुसार गुरु बना रखा है.

इन धर्मगुरुओं की बादशाहत और ठाटबाट न तो पहले किसी सुबूत के मुहताज थे, न अब हैं. आम आदमी के मुकाबले औसतन हजारोंगुना ज्यादा संपन्न और सुविधाभोगी धर्मगुरु, हैरत की बात है, कोई उद्यम नहीं करते, न ही सांसारिक लोगों की तरह उन्हें परेशानियां ?ोलनी पड़ती हैं. त्याग, वैराग्य और तपस्या का चोला ओढ़े यह वर्ग सदियों से कंबल ओढ़ कर घी पी रहा है.

धर्म के व्यवसाय का हिसाबकिताब बेहद सरल है. श्रद्धालु जो पैसा चढ़ाते हैं, धर्मगुरु उसे बटोरते हैं. गुरुपूर्णिमा सरीखे पर्व पर तो यह धंधा अरबों का आंकड़ा पार कर जाता है. करोड़ों लोग पागलों की तरह गुरुपूजन में जुट जाते हैं. चूंकि यह एक धार्मिक परंपरा है इसलिए इसे बगैर किसी तर्क के निभाया जाता है. अपने प्रवचनों में तमाम छोटेबड़े धर्मगुरु यह जताने से नहीं चूकते कि बगैर गुरु के जीवन व्यर्थ है. वजह, गुरु रहित व्यक्ति को न तो ज्ञान मिलता, न ईश्वर, न मोक्ष, न मुक्ति और न ही संसाररूपी नरक से वह तर पाता है?.

लोगों का विश्वास, जो मूलतया भ्रम है, बना रहे, इस के लिए हर बार ये गुरु दोहराते हैं कि गुरु होने के नाते हम ईश्वर से भी बड़े हैं, तीनों लोकों के स्वामी हैं. थोड़ी सी दक्षिणा के बदले तुम्हारे कष्ट और विपत्तियां अपने ऊपर ले लेते हैं और यह उपकार महज इसलिए करते हैं कि तुम हमारे शिष्य हो.

ये बड़े खतरनाक और नुकसानदेह शब्द हैं, जो दहशत पैदा करते हैं. औसत आदमी इतने खौफ में आ जाता है कि जेब ढीली करने में ही भलाई सम?ाता है. इस के पीछे मानसिकता यह रहती है कि तकलीफें और परेशानियां और न बढ़ें. अगर गुरुजी आभूषण, वस्त्र और नकदी के एवज में काल्पनिक विपत्तियां अपने ऊपर ले रहे हैं तो सौदा घाटे का नहीं. पैसे का क्या है, वह तो आताजाता रहता है. आता है तो गुरुकृपा से ही है, जाता है तो गुरु की नाराजगी से. लोग हीनता से भरे रहें, इसलिए गुरु पादुका पूजन का विधान भी हर कहीं देखा जा सकता है. पादुका यानी बोलचाल की भाषा में जूता, जिसे एक खास जाति के लोग परंपरागत रूप से बना कर पेट पालते रहे हैं. इन बहिष्कृत और अछूतों का बनाया जूता धर्मगुरु के पांव में जाते ही करोड़ों का हो जाता है, लोग इसे पूजते हैं, कई तो चूमते भी हैं, माथा नवाना तो अनिवार्यता है.

धर्मशास्त्रों में जो लिखा है वह तो मूर्खतापूर्ण, काल्पनिक और ठगी से भरपूर सामग्री है ही मगर जो नहीं लिखा वह धर्म के कारोबारियों के खुराफाती दिमाग की वहशी और पैसाकमाऊ उपज है. पादुका पूजन का उल्लेख या विधान किसी धर्मग्रंथ में नहीं है लेकिन क्षेत्रवार शिष्यों के बढ़ जाने से धर्मगुरुओं ने यह रिवाज फैलाया. वजह, हर जगह तो वे खुद जा नहीं सकते थे, इसलिए जूता नाम की गुल्लक भेजना शुरू कर दी.

दोतरफा ठगी का धंधा

गुरु तो गुरु, उस के जूते भी पैसा कमा सकते हैं. यह चमत्कार या बेवकूफी जो भी कह लें अपने देश में ही होना संभव है. इसे संभव बनाने वाले लोगों में धर्मगुरुओं ने हीनता इतनी कूटकूट कर प्रवचनों के जरिए भर दी है कि वे मानसिक तौर पर अपाहिज हो कर रह गए हैं. किसी आदमी के जूते थाल में सजा कर रखना, उन पर फूल चढ़ाना, दीपक जलाना, अगरबत्ती जलाना लोगों की घटिया मानसिकता ही बताते हैं.

देशभर में यह ‘जूतापूजन’ परंपरा बड़ी भव्यता से संपन्न होती है. करने वाले आस्थावान होते हैं. इसलिए उन की बुद्धि या विवेक तर्क को नहीं स्वीकारती कि यह न केवल ठगी का एक जरिया है बल्कि हास्यास्पद और वितृष्णा पैदा करने वाला कार्य भी है. गुरु को ईश्वर से भी बड़ा मानना या बताना दोतरफा ठगी का धंधा है. ईश्वर चूंकि अस्तित्वहीन है, किसी ने उसे देखा नहीं, इसलिए साक्षात गुरु में उसे देखने की मनोवृत्ति व्यक्तिपूजा फैला कर लोगों से उन का स्वाभिमान छीन रही है.

लोग गुरुओं का जूता पूज रहे हैं, उसे माथे से लगा रहे हैं. चूम रहे हैं. इस से ज्यादा शर्मनाक और तरस खाने काबिल बात शायद ही दूसरी हो. 40-50 रुपए के कीमत की पादुका गुरु के ब्रैंडनेम के मुताबिक हजारोंलाखों रुपए कमा कर दे देती है. देने वाले धन्य हो जाते हैं कि हम ने अपना धार्मिक उत्तरदायित्व निभाया. गुरुपूजन नहीं कर पाए तो क्या, गुरु का पादुका पूजन कर पापों से मुक्त हो गए. मानव योनि में पैदा होने से बड़ा पाप कोई नहीं, ऐसा गुरुजी कहते हैं मगर खुद किन पापों के चलते इस योनि में आए, यह नहीं बता पाते वे.

एक बड़े गुरु की कोई दर्जनभर पादुकाएं अलगअलग हिस्सों में पुजवा कर खासा पैसा इकट्ठा कर लेती हैं. इन पैसों के बारे में कोई सवाल करने की जुर्रत नहीं कर सकता कि यह कहां जाता है. जहां पैसों से पाप धोने अर्थात और पाप करने की छूट हो वहां यह सवाल कोई पूछेगा भी नहीं. इसलिए गुरुद्रोह और गुरुनिंदा नर्क भुगतने वाले अपराध बारबार बताए जाते हैं.

इसी माया से वातानुकूलित आश्रम बनते हैं. शानदार मठमंदिर बनते हैं. महंगी विदेशी कारें आती हैं और अहम बात, गुरु की ब्रैंडिंग होती है जिसे देख दूसरे लोग भी उसे गुरु बनाने को टूट पड़ते हैं. धर्मगुरुओं का पैसों के मामले में दोहरा चरित्र और मानदंड शायद ही लोग कभी सम?ा पाएं. वजह, अपने इर्दगिर्द इन लोगों ने वाकई एक भव्य मायाजाल फैला रखा है जिसे देख मामूली आदमी की आंखें चौंधिया जाती हैं और इसी ऐश्वर्य के स्वामी को वह ईश्वर मान बैठता है.

अब तो उन के पास बड़ेबड़े राजनेता भी आते हैं क्योंकि पूरी राजनीति ही धर्म पर टिकी है. भारतीय जनता पार्टी की खासीयत तो यही है कि वह इन पादुका पुजवाने वाले गुरुओं को असली मार्गदर्शक मानती है. दरअसल, इस ठगी की तह में चमत्कारों के ?ाठे और गढ़े हुए किस्सेकहानी होते हैं जिन का बड़े पैमाने पर लिखित और मौखिक प्रचार गुरु गिरोह के सदस्य करते हैं. किसी को गुरु सपने में आते हैं तो किसी को साक्षात दर्शन दे जाते हैं. किसी की विपत्ति हजारों किलोमीटर दूर अपने आश्रम में बैठे गुरु ने हर ली थी तो किसी को विपत्ति से आगाह किया था. धंधे में फायदा गुरुमंत्र से हुआ था तो नौकरी गुरुकृपा से बची थी. गुरुकृपा से संतान तो आदिकाल से होती चली आ रही है.

इस तरह का प्रायोजित प्रचार कइयों को विक्षिप्त बना कर मनोचिकित्सकों की शरण लेने पर मजबूर कर चुका है. अब इस दिमागी हालत को भी लोग आस्था की अति और गुरुकृपा बताएं तो हालात सुधरने की उम्मीद करना बेवकूफी होगी. हकीकत में पादुका पूजन जातिवाद बनाए रखने के लिए ऊंची जाति के धर्मगुरुओं की नई सांचे में ढली सोच है कि हमें शूद्र स्पर्श न कर पाएं. सामंतवाद की बू भी इस में से आती है. राजेरजवाड़ों के जमाने में छोटी जाति वाले दबंगों के जूते छू कर ही बगैर पिटे आगे बढ़ पाते थे. अब इस प्रथा का स्वरूप बदल गया है- जूते पूजो भी और उस का शुल्क भी दो.

इतना ही नहीं, बड़े पैमाने पर देखें तो पादुका पूजन चलतेफिरते व्यवसाय का रूप भी धारण कर चुके हैं. नामीगिरामी संतों, जिन में शिर्डी के साईंबाबा भी शामिल हैं, की पादुकाएं देशभर में घुमाई जाती हैं, जिस से खासी आमदनी होती है. अभी कुछ माह पहले छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री ने 2 पीठों के शंकराचार्य के रामपुर में पहुंचने पर सपरिवार पादुका पूजन कर आशीर्वाद लिया और राज्य की समृद्धि का आश्वासन भी लिया. एक तरह से सरकार की डोर पादुकाओं में अर्पित करना ही है.

इसी तरह कुछ माह पहले मध्य प्रदेश के गृह मंत्री ताऊध्वज साहू ने शिवगंगा आश्रम में पहुंच कर भंडारे का प्रसाद लिया और शंकराचार्य का पादुका पूजन भी किया. गुरुपूर्णिमा के दिन पादुका पूजन की हर छात्र को पट्टी पढ़ाई जाती है और फिर दक्षिणा देने को भी कहा जाता है. बड़े भी यह करते हैं. उन्हें फिर मिठाई, नैवेद्य, वस्त्र, दक्षिणा भी दी जाती है. बावजूद इन बेहूदगियों के, देश अगर तरक्की कर रहा है तो उस के अपराधी उद्योगपति, वैज्ञानिक, सैनिक और निर्भीक आलोचक हैं जो यह सम?ाते हैं कि जूतापूजन जैसे रिवाज लोगों को मानसिक गुलामी से ज्यादा कुछ नहीं दे सकते.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...