2 स्टार

किसी भी स्पोर्ट फिल्म में जोश और जज्बे के साथ अगर देशशक्ति को भी परोसा जाता है तो दर्शक उस का स्वागत करते हैं. ‘चक दे इंडिया’ (हौकी) ‘भाग मिल्खा भाग’ और ‘मैरी कोम’ (बौक्सिंग), ‘दंगल’ (कुश्ती) और ‘पंगा’ (कबड्डी) को दर्शकों का खूब प्यार मिला.

सैयद अब्दुल रहीम का नाम शायद बहुत से लोगों ने न सुना हो. लेकिन वे एक ऐसे फुटबौलर थे जिन्होंने फुटबौल खेलने से ज्यादा खिलाड़ियों को खिलाने पर ध्यान दिया. 1950 से 1963 में अपनी मृत्यु तक वे फुटबौल टीम के कोच रहे. उन के मार्गदर्शन में भारत ने 2 बार एशियाई खेलों में गोल्ड जीता और 1956 के मेलबौर्न ओलिंपिक में भारत सैमिफाइनल तक जा पहुंचा. वे सब से सफल भारतीय कोच रहे. यह फिल्म सैयद अब्दुल रहीम के आखिरी 12 सालों की कहानी दिखाती है.

1952 में भारतीय फुटबौल टीम को ओलिंपिक में करारी हार का सामना करने के बाद सैयद अब्दुल रहीम ने भारत के कोनेकोने से फुटबौल खिलाड़ियों को चुन कर एक नई फुटबौल टीम का गठन किया. उन की टीम में चुन्नी गोस्वामी, पी के बनर्जी, पीटर यंगराज, जरनैल सिंह जैसे होनहार खिलाड़ी थे.

1956 के मेलबौर्न ओलिंपिक में भातीय टीम चौथे नंबर पर आने में कामयाब हो जाती है मगर 1960 ओलिंपिक में भारतीय टीम क्वालीफाई नहीं कर पाती. सैयद अब्दुल रहीम राजनीति का शिकार होते हैं और उन्हें कोच के पेद से हटा दिया जाता है. फिल्म में खेल पत्रकारिता की राजनीति को भी दिखाया गया है.

रहीम को सदमा लगता है. तभी उसे पता चलता है कि उसे लंग कैंसर है. उन के पास जीने के लिए कुछ समय ही बाकी है. उन की पत्नी सायरा (प्रियामणि) उन्हें दोबारा कोचिंग के लिए प्रेरित करती है. इस बार रहीम अपनी जान की बाजी लगा देते हैं और 1962 में जकार्ता एशियन गेम्स के फाइनल में दक्षिण कोरिया को हरा कर देश को स्वर्ण पदक दिलाते हैं.

फिल्म की सब से बड़ी खूबी है निर्देशक द्वारा कोच सैयद अब्दुल रहीम का कहीं भी महिमामंडन न करना. निर्देशक ने फिल्म को ड्रामेटिक भी नहीं बनाया है. फिल्म की खूबी यही है कि अपनी धुन में खोया फुटबौल का एक दीवाना एक दिन दुनिया के सामने फुटबौल के मैदान में तिरंगा फहराने की ठान लेता है, तो अपना मकसद पूरा कर के ही दम लेता है.

निर्देशक ने अजय देवगन के किरदार को दिखाने के बजाय सहज रखा है. दर्शकों को शाहरुख खान की महिला हौकी टीम पर बनी फिल्म ‘चक दे इंडिया’ याद होगी. क्लाइमैक्स में जिस तरह का टैंपो उस फिल्म में बनाए रखा गया था, ठीक वैसा ही इस फिल्म में दिखाया गया है. फिल्म नायक के जुझारुपन से समझौता नहीं करती. फिल्म के अंत में आखों में नमी आ जाती है.

मध्यांतर से पहले फिल्म एक घंटे की है और मध्यांतर के बाद 2 घंटे की. फिल्म की लंबाई 3 घंटे की है, मगर खलती नहीं. फिल्म के निर्माता बोनी कपूर, निर्देशक अमित शर्मा और अजय देवगन ने फिल्म ‘मैदान’ के जरिए जो कमाल रचा है, वह प्रशंसनीय है. अजय देवगन ने सैयद अब्दुल रहीम के किरदार में जान फूंकी है. फिल्म के संवाद काफी जानदार हैं.

फिल्म में मुंतशिर और ए आर रहमान की जुगलबंदी से बने गाने सुनेसुने से लगते हैं. अजय देवगन का बारबार सिगरेट पीना किरदार को कमजोर बनाता है. तकनीकी रूप से फिल्म अच्छी है. मध्यांतर के बाद दर्शक बंधे से रहते हैं. संपादन अच्छा है. सिनेमेटोग्राफी बढ़िया है. फिल्म यह भी बताती है कि मैदान में फतेह भले ही खिलाड़ी हासिल करते हों लेकिन उन के कोच का भी जीत में कम योगदान नहीं.

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