विधायक और बाहुबली मुख्तार अंसारी को जब जेल में रखा गया तो उस ने लिखित में शिकायत की थी कि उस को धीमा जहर दिया जा रहा है. इस के कुछ दिनों में जब उस की तबीयत खराब हुई तो जेल में ही उस को हार्ट अटैक आ गया, जिस से वह मर गया. मुख्तार अंसारी के परिवार वाले खुल कर कह रहे हैं कि उस को धीमा जहर दिया जा रहा था. अब कई तरह की जांचें शुरू हो गई हैं. इन के पूरा होने पर ही पता चल सकेगा कि क्या सच है. उत्तर प्रदेश में इस के पहले विकास दुबे और अतीक अहमद के साथ इस तरह की घटनाएं घट चुकी हैं.

उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था को सुधारने में पुलिस का प्रयोग जिस तरह से हुआ उस से कामकाज में पुलिस की धमक बढ़ गई. मित्र पुलिस की छवि यहां दबंग की बन गई है. पुलिस के जवान सिंघम जैसे दिखने लगे हैं. आम आदमी के लिए उस का व्यवहार मित्र जैसा नहीं है. पहले की सरकारों के शासन के दौरान नेता और विधायक का दबाव होने के कारण जनता की सुनवाई हो जाती थी. इस दौर में अफसरों के अलावा पुलिस किसी दबाव में नहीं है, जिस से वह मनमानी करने लगी है.

रिटायर डीपीपी सुलखान सिंह कहते हैं कि जब उत्तर प्रदेश में पुलिस जब फर्जी मुठभेड़ कर सकती है तो माफिया मुख्तार अंसारी को जहर क्यों नहीं दिया जा सकता. मसले की सीबीआई से जांच होनी चाहिए. जनता जिस तरह से जाति और धर्म को ले कर उलझी है, उस में पुलिस के प्रति अविश्वास बढ़ता जा रहा है.

हिरासत में मौत के मामलों में यूपी नंबर वन

लोकसभा में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की पेश की गई रिपोर्ट से पता चलता है कि देश में हर दिन 6 लोगों की मौत पुलिस हिरासत में हो रही है. इस मामले में पिछले 2 वर्षों से उत्तर प्रदेश पहले नंबर पर है. पुलिस सुधार को ले कर लंबे समय से बहस चल रही है, इस के बाद भी हिरासत में होने वाली मौतों का आंकड़ा कम नहीं हो रहा.
केंद्रीय गृह मंत्रालय की ओर से लोकसभा में पेश किए गए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के आंकड़े बताते हैं कि पिछले 2 वर्षों में हिरासत में होने वाली कुल मौतों की संख्या 4,484 है. हिरासत में मौत के मामलों में उत्तर प्रदेश पहले नंबर पर है और पश्चिम बंगाल दूसरे पर.

केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने बताया कि अकेले उत्तर प्रदेश में 2021-22 में हिरासत में कुल 501 मौतें हुईं जबकि इस से पहले यानी 2020-21 में हिरासत में मौत के 451 मामले दर्ज किए गए. यूपी के बाद पश्चिम बंगाल और फिर मध्य प्रदेश का नंबर आता है. वहीं देश भर में 2021-22 में हिरासत में हुई मौतों का आंकड़ा 2,544 है जबकि 2020-21 में यह संख्या 1,940 थी.

खाता न बही पुलिस जो कहे वही सही

पुलिस कई बार कुछ मामलों में अभियुक्तों को हिरासत में लेती है और उन से बिना कोर्ट की रिमांड के भी पूछताछ करती है. हालांकि संवैधानिक रूप से उसे 24 घंटे के भीतर अभियुक्त को किसी मजिस्ट्रेट के सामने पेश करना होता है लेकिन कई बार पुलिसकर्मी अभियुक्तों से थाने पर ही पूछताछ करते हैं और रिकौर्ड में दर्ज ही नहीं करते. इस पूछताछ के दौरान अकसर बल प्रयोग भी किया जाता है और कई बार अभियुक्तों की मौत हो जाती है.

पुलिस हिरासत में उत्पीड़न और मौत के मामलों में पूर्व मुख्य न्यायाधीश एन वी रमना ने चिंता जताते कहा था कि “संवैधानिक रक्षा कवच के बावजूद अभी भी पुलिस हिरासत में शोषण, उत्पीड़न और मौत होती है. इस के चलते पुलिस थानों में ही मानवाधिकार उल्लंघन की आशंका बढ़ जाती है. पुलिस जब किसी को हिरासत में लेती है तो उस व्यक्ति को तत्काल कानूनी मदद नहीं मिलती है. गिरफ्तारी के बाद ही अभियुक्त को यह डर सताने लगता है कि आगे क्या होगा.”

सुप्रीम कोर्ट ने साल 1996 में एक मामले में फैसला सुनाते हुए कहा था कि हिरासत में हुई मौत कानून के शासन में सब से जघन्य अपराध है. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद हिरासत में हुई मौतों का विवरण दर्ज करने के साथसाथ संबंधित लोगों को इस की जानकारी देना भी अनिवार्य बना दिया गया. यही नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने किसी भी व्यक्ति की गिरफ्तारी के दौरान पुलिस के व्यवहार को ले कर भी नियम निर्धारित कर दिए. ये नियम न सिर्फ पुलिस पर बल्कि रेलवे, सीआरपीएफ, राजस्व विभाग सहित उन तमाम सुरक्षा एजेंसियों पर भी लागू होते हैं जो अभियुक्तों को पूछताछ के लिए गिरफ्तार कर सकती हैं.

हिरासत में मौत के खिलाफ है कानून

सभ्य समाज में हिरासत में मौत शायद सब से खराब अपराधों में से एक है. भारत में हिरासत में होने वाली मौतों के बारे में मानवाधिकार आयोग ने साल 2021-22 में 28 फरवरी, 2022 तक न्यायिक हिरासत में 2,152 मौतें हुईं और पुलिस हिरासत में 155 मौतें हुईं. 26 जुलाई, 2022 को लोकसभा में एक प्रश्न का उत्तर देते हुए केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने खुलासा किया कि 2020-21 से 2021-22 की अवधि के दौरान भारत में हिरासत में मौत के 4,484 मामले सामने आए.

दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 176 (आई) में कहा गया है कि यदि हिरासत में कोई व्यक्ति मर जाता है या गायब हो जाता है या हिरासत में किसी महिला के साथ बलात्कार होता है तो न्यायिक मजिस्ट्रेट के पास जांच का आदेश देने की शक्ति है. दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 46 में कहा गया है कि पुलिस गिरफ्तारी करते समय किसी की हत्या नहीं कर सकती. भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 330 (ए) और (बी) यातना के मामलों में पुलिसकर्मियों को 7 साल तक की सजा का प्रावधान है.

18 दिसंबर, 1996 को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने डी के बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य मामले में एक खास फैसला सुनाया. इस में हिरासत में लगातार होने वाली मौतों के मुद्दे की जांच करने, गिरफ्तारी के दौरान पालन किए जाने वाले दिशा निर्देश बनाने और हिरासत में यातना या मौत के मामले में पीड़ितों परिवारों को प्रदान किए जाने वाले मुआवजे को तैयार करने का अनुरोध किया गया. फैसले में अदालत ने 11 दिशानिर्देश सुझाए जिन में हिरासत में लिए गए व्यक्ति की मृत्यु के मामले में गिरफ्तारी प्रक्रियाओं और मुआवजे को शामिल किया गया था.

हिरासत में होने वाली मौतों के मामलों में अब पुलिस को सजा भी होने लगी है. इस के बाद भी पुलिस एक पावर सैंटर के रूप में उभर रही है, जो खतरनाक है. इस से न्याय प्रभावित होता है. संविधान ने पुलिस को केवल विवेचक की जिम्मेदारी दी है. पुलिस अब न्याय देने का ही नहीं, पावर सैंटर बनने का काम भी करने लगी है.

गरीब की बीबी सब की जोरू

हिरासत में मौत का सब से बड़ा कारण न्याय व्यवस्था का आम लोगों से दूर होना है. उस में खामियों की वजह से भी हिरासत में मौत के मामलों में बढ़ोतरी हो रही है. असल में न्याय प्रणाली आम नागरिकों के लिए सुलभ नहीं है. संविधान में चाहे जितनी व्यवस्था हो और सुप्रीम कोर्ट के निर्देश हों लेकिन आम आदमी अब भी उस की पहुंच से दूर है. हिरासत में मौत के मामलों में ज्यादातर गरीब, पिछड़े और शोषित वर्ग के लोग ही शिकार होते हैं. अमीर लोगों से पुलिस आमतौर पर इस स्तर पर पूछताछ नहीं करती है क्योंकि उसे कानून का डर रहता है.

ऊंची पहुंच वालों को पुलिस वाले न तो मारपीट पाते हैं और न ही उन्हें लंबे समय तक हिरासत में रख सकते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि यह गैरकानूनी है और अदालत के पचड़े में आ जाएंगे. गरीब और कम पढ़ा लिखा तबका यह नहीं जानता. गिरफ्तारी के संबंध में संविधान में पर्याप्त सुरक्षा उपाय दिए गए हैं लेकिन पुलिस व्यवस्था की घिसीपिटी परंपरा आज भी नागरिकों के अनुकूल नहीं बन पाई. व्यापक तौर पर पुलिस सुधार की जरूरत है अन्यथा देश एक पुलिस राज्य में तबदील हो जाएगा क्योंकि राज्य सरकारों का अकसर पुलिस को समर्थन रहता है और सरकार पुलिस को बचाती भी है.

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