2024 के लोकसभा चुनाव प्रक्रिया शुरू हो चुकी है. अब 80 दिन चुनावी हंगामा होता रहेगा. मजबूत चुनाव प्रबंधन में युवाओं की बहुत जरूरत होने लगी है. लेकिन युवा को राजनीति में आगे बढ़ने के मौके कम मिलते हैं. ऐसे में ये युवा केवल तमाशाई बन कर रह जाते हैं. राजनीति में पैसे और पहुंच की जरूरत होती है, ऐसे में या तो परिवार राजनीति में हो या फिर उस के पास पैसे अधिक हों तभी राजनीति में कदम रखे. अगर ये दोनों नहीं हैं तो केवल नेताओं की गणेशपरिक्रमा करते ही जीवन बीत जाएगा. बूथ मैनेजमैंट में युवाओं का महत्त्व सब से अधिक होता है.

क्या होता है ‘बस्ता’

जब भी कोई चुनाव शुरू होता है तो बूथ प्रबंधन की बड़ी चर्चा होती है. बूथ प्रबंधन शब्द का चलन पिछले 14 सालों से हुआ है जब गुजरात मौडल चलन में आया. पहले इस का ‘बस्ता’ लगना कहा जाता था. आज भी बूथ प्रबंधन में मुख्य काम ‘बस्ता’ ही होता है. सवाल उठता है, यह बस्ता क्या होता है? बचपन में बस्ता बच्चों के कौपीकिताब रखने के झोले को कहते थे. चुनावी बस्ते में क्या होता है?
असल में यह भी बच्चों के झोले जैसा ही होता है. इस को बस्ता इसलिए कहते हैं क्योकि पहले यह बस्ते सा होता था. फाइलों को कपड़े से बांध कर ले जाया जाता था. अब यह लोहे के बौक्स सा होता है. इस में ताला भी लगाया जाता है. इस के अंदर मतदाता सूची, पैंसिल, पैन, मोहर, स्टैंप पैड, मोबाइल चार्जर और पावर बैंक व कुछ सादे पेपर होते हैं. पहले इस में बूथ प्रबंधन में लगे लोग अपने खाने के लिए बिस्कुट, दालमोठ भी रखते थे.

एक लोकसभा क्षेत्र में औसतन 15 सौ से 2 हजार के बीच बूथ होते हैं. हर बूथ के प्रबंध में करीब करीब 11 लोगों की टीम होती है. ऐसे में आप सोच सकते हैं कि 544 लोकसभा सीटों पर बूथ मैनेजमैंट के लिए कितने युवाओं की जरूरत पड़ेगी. अगर एक लोकसभा क्षेत्र में औसतन 1,500 बूथ मान लें तो 16 हजार 500 युवा एक लोकसभा क्षेत्र में चाहिए. 544 लोकसभा सीटों पर 90 लाख यूथ चाहिए. एक दल को पूरे देश में 90 लाख युवा चाहिए.
हर लोकसभा सीट पर 3 से 4 दल ऐसे होते हैं जिन के ‘बस्ते’ लगते हैं. 4 दलों की गणना कर लें तो 3 करोड़ 60 लाख तक यह संख्या पहुंच जाती है. भाजपा के गुजरात मौडल ने ही पन्ना प्रमुख बनाया है. एक मतदाता सूची के एक पन्ने पर 30 नाम होते हैं. एक पन्ना प्रमुख का काम केवल इन 30 लोगों से संपर्क बनाना होता है. भाजपा ने कागजों पर इस को इतना महत्त्व दिया है कि हर युवा पन्ना प्रमुख बनने ही होड़ में रहता है. एक बूथ पर करीब 1,500 मतदाता होते हैं. 50 पन्ना प्रमुख होते हैं. एक बड़ीभीड़ युवाओं की इस में लगी है.

इस्तेमाल कर फेंक दिए जाते हैं ये युवा

इन का काम केवल चुनाव के दिन नहीं होता है. ये पर्ची पहुंचाने, वोटर लिस्ट में नाम का मिलान करने, मतदान स्थल पर गड़बड़ी हो तो होहल्ला मचाने जैसे प्रमुख काम करते हैं. पार्टियों की सब से बड़ी ताकत ये युवा होते हैं. इस के बाद भी इन को मिलता क्या है? बूथ प्रबंधन के नाम पर जो बजट आता है उस में एक छोटा हिस्सा मिलता है. जिस से वे अपने कपड़े का रखरखाव भी नहीं कर सकते. राजनीति में अब स्थान उस को मिल रहा है जिस के घरपरिवार के लोग पहले से राजनीति में हैं. उन के बेटाबेटी को जगह मिलती है.

भारतीय जनता पार्टी युवा मोर्चा में पंकज सिंह जैसे न जाने कितने पदाधिकारी रहे हैं. उन में विधायक बनने का रास्ता केवल पंकज सिंह को मिला, क्योंकि उन के पिता का नाम राजनाथ सिंह है और वे भाजपा के बड़े नेता हैं. उन के दूसरे बेटे नीरज सिंह टिकट के लिए दरवाजे खटखटा रहे हैं. किस चुनाव में टिकट मिल जाए, पता नहीं चलेगा. अपर्णा यादव को भाजपा में इसलिए महत्त्व दिया जा रहा है क्योंकि उन के ससुर मुलायम सिंह यादव थे, जिहोंने समाजवादी पार्टी बनाई, 3 बार यूपी के मुख्यमंत्री रहे. ज्योतिरादित्य सिंधिया के पिता नेता थे तो वे कांग्रेस में भी नेता रहेंगे और भाजपा में भी.
ऐसे नामों की लिस्ट लंबी ही नहीं, बेहद लंबी है. हर दल में है. भाजपा को लगता था कि परिवारवाद से लड़ा जा सकता है. जैसे ही उन की दूसरी पीढ़ी के नेताओं का दखल शुरू हुआ, नेताओं के परिवारों का दखल यहां भी शुरू हो गया. अब भाजपा ने परिवारवाद की नई परिभाषा गढ़ ली है. अब परिवारवाद की जगह उस का हमला वंशवाद पर हो गया है. जैसे ही इन नेताओं की तीसरी पीढ़ी बढ़ेगी, भाजपा का परिवारवाद भी वंशवाद में बदल जाएगा.

राजनीति में सफल हो रहे 60 फीसदी से अधिक नेता वे हैं जो परिवारवाद की सीढ़ी चढ़ कर आए हैं. भाजपा परिवारवाद का विरोध करती थी लेकिन अब उस ने उसे स्वीकार कर लिया है. इसलिए उस की आलोचना अधिक होनी चाहिए. भाजपा ने ‘पार्टी विद डिफरैंट’ का वादा किया था. अब दूसरी पार्टियों से केवल हिंदुत्व के मामले में अलग है, बाकी में वह दूसरों जैसी ही है. ऐेसे में बूथ मैनेजमैंट कर रहे युवाओं को सोचना चाहिए कि उन का क्या हश्र होने वाला है?

क्यों जाते हैं युवा राजनीति में

पहले राजनीति में कालेज और विश्वविद्यालय के छात्रसंघों से युवा जाते थे. अब छात्रसंघों की राजनीति खत्म हो गई है. ऐसे में नेताओं के आसपास रह कर, झंडा बैनर और बूथ मैनेजमैंट कर के ही राजनीति सीखने को मिल रही है. रोजगार और नौकरियों के कम होने से बेरोजगार युवाओं की संख्या बढ़ रही है. वे इस रास्ते कमाई के अवसर देखते हैं. इन का समाजसेवा या देशसेवा से कोई मतलब नहीं रह गया है. ये हर छोटेबड़े नेता के आसपास इसलिए भटकते रहते हैं ताकि इन की पहचान बन सके.

सोशल मीडिया के जमाने में ये अपनी फोटो किसी नेता, विधायक के साथ पोस्ट कर देते हैं जिस से सामने वाले पर इन का रोब पड़ जाता है. इन में से बहुत सारे ऐसे हैं जो अपने नाम के आगे युवा नेता लिख लेते हैं. कुछ खुद को वरिष्ठ युवा नेता भी लिख लेते हैं. कुछ जो समझदार होते हैं वह कोई न कोई संस्था बना कर खुद ही उस के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन जाते हैं. धीरेधीरे जो नेता के बहुत करीबी हो जाते हैं वे ठेका पट्टी, ट्रांसफर-पोस्टिग में हाथ मार लेते हैं.

भगवान जैसा हो गया नेता

आज के दौर में नेता एक भगवान जैसा हो गया है. राजनीति एक मंदिर की तरह से है. जैसे मंदिर में दर्शन करने लोग जाते हैं तो मुख्य मूर्ति पर ज्यादा प्रसाद चढ़ाते हैं, उस की पूजापरिक्रमा अधिक करते हैं. उसी मंदिर में छोटीछोटी मूर्तियां भी लगी होती हैं. दर्शन करने वाला कम प्रसाद व कम चढ़ावा वहां भी चढ़ा देता है. उसी तरह से राजनीति में भी है, बड़े नेता के साथ ही साथ छोटे नेता को भी महत्त्व मिलता है. साधारण युवा की जगह पर नेता प्रसाद उस को देता है जो अलग किस्म की खासीयत रखता है.

इस प्रसाद की अभिलाषा में युवा नेता के साथ लगा रहता है. कई दंबग नेताओं के साथ लगे युवा तो वसूली और दबंगई भी करते हैं. इन के लिए नेता अच्छे किस्म के जूते, कपड़े और मोबाइल का प्रबंध कर देते हैं. इस के बाद ये नेता के साथ उस के सुरक्षा दस्ते ही तरह चलते हैं. सुबह होते ही नेता के घर पहुंच जाते हैं. देररात तक उसके साथ रहते हैं. इन को माह में 5 से 10 हजार रुपए की नकदी भी मिल जाती है. खानापीना, गाड़ियों से चलने का सुख नेता के साथ मिलता ही रहता है. नेता के करीबी बन कर रह जाते हैं.

नेता जब नए लड़कों को साथ ले लेता है तो पुरानों की छुट्टी कर देता है. ऐसे में युवा का प्रयोग राजनीतिक दल और नेता दोनों ही कर के फेंक देते हैं. कई बार ये दूसरे नेता के पास अपनी जगह बना लेते हैं, कई बार खाली ही रह जाते हैं. नेता ज्यादातर अपनी जाति के लड़कों को ही साथ रखते हैं. जब यही नेता बड़े हो जाते हैं या वे टिकट दिलाने की हैसियत में आ जाते हैं तो वे अपने परिवार के लोगों को ही आगे बढ़ाते हैं. कई भक्त ऐसे भी हैं जो पहले पिता की सेवा में लगे होते हैं, फिर पुत्र की सेवा में भी लग जाते हैं. युवा चाहे नेता के साथ हों या राजनीतिक दल के, वे अपना भविष्य खराब कर रहे होते हैं.

 

 

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