विपक्षी दलों के ‘इंडिया’ गठबंधन के टिकने के आसार पहले ही दिन से कम थे पर धीरेधीरे जब लगने लगा कि इंडिया ब्लौक का अर्थ होगा कि कांग्रेस को ज्यादा सीटें देना, तो पार्टियां बिदकने लगीं. इस देश में जीतने वाले नेताओं का दबदबा तो होता है, पर दूसरेतीसरे नंबर पर आने वाले नेताओं का रुतबा कम नहीं होता. इंडिया ब्लौक अगर एकजुट हो कर लड़ेगा तो दूसरेतीसरे नंबर पर हारने वाले उन नेताओं को सीटें छोड़नी पड़ेंगी जो बरसों से विपक्षी पार्टी की राजनीति करते रहे हैं.

हर पार्टी के नेता चाहते हैं कि वे सत्ता में बैठें, इस के लिए वे जमीनी लड़ाई में चुनाव लड़ने का अवसर गंवाना नहीं चाहते. जीतने वाला 2 लाख वोट पाए और चाहे वह भारतीय जनता पार्टी का हो, हारने वाले को अगर 50,000 वोट भी मिलते हैं तो यह सर्टिफिकेट होता है कि उस को इतनों का समर्थन मिल रहा है.

लोकसभा के बाद विधानसभा, जिला पंचायत, नगरपालिका, कोऔपरेटिव बैंक, स्पोर्ट्स क्लब, रोटरी या लायंस क्लब, जिमखाना क्लब, ट्रेड एसोसिएशनों आदि सब में चुनावों में हारने वाले नेता को भी पूजा जाता है और लोकसभा में हारने वाले भी छोटे चुनावों में जीत कर अपनी नेतागीरी कायम रख सकते हैं.

इंडिया ब्लौक में सम?ाते के अंतर्गत उन्हें अपनी इस हार का प्रमाणपत्र नहीं मिलना था, इसलिए जैसे ही सुगबुगाहट शुरू हुई कि सीट किसी दूसरी पार्टी को जाएगी, विपक्ष दलों में फूट पड़ने लगी. बड़े सम्राट के छोटे से जागीरदार बने रहने से हमेशा छोटे राजा अपनेअपने छोटे देश में खुश रहे हैं. छोटे देशों के राजाओं की अपनी शानशौकत बड़े देश के राजा से कम नहीं होती थी. अंगरेजों ने यह मानसिकता सम?ा ली थी और जब वे 1857 में ही पूरे देश पर आसानी से कब्जा कर सकते थे, उन्होंने राजाओं, रजवाड़ों को रहने दिया जो 600 से ज्यादा थे. उन में से ज्यादा भारत को मिले, कुछ पाकिस्तान और बंगलादेश के हिस्से में गए.

छोटे होने के बावजूद उन्हें दिल्ली के वायसराय के दरबार में इज्जत मिली थी. दिल्ली में उन के भवन आज भी इंडिया गेट के चारों ओर बिखरे हैं जबकि राजघराने और रजवाड़े 70 साल पहले खत्म हो गए थे.

यही हाल छोटी पार्टियों के हारने वाले नेताओं का है. वे अपने मुट्ठीभर समर्थकों को अपनी सहयोगी पार्टी के नेता के हवाले नहीं करना चाहते क्योंकि इस से उन का रुतबा छोटे मालिक की जगह बड़ा नौकर बन कर रह जाएगा. 20-25 पार्टियों के नेता चाहे कोई फैसला कर लें, सीटों के बंटवारे पर रस्साकशी तो होगी ही. छोटी पार्टियों के हारे नेता दूसरी हारी पार्टी के हारे नेता की जगह जीतने वाली पार्टी के अर्दली बनना पसंद करेंगे.

हां, जो नीतीश कुमार या अजित पवार की तरह पलटी मार कर भाजपा में जा बैठे, वे विपक्षी दलों, खासतौर पर कांग्रेस, का भला करेंगे. जिन्हें भाजपा को वोट नहीं देना, उन के वोट अब कम करेंगे. जिन की भाजपा से कोई सैद्धांतिक लड़ाई नहीं है वे भाजपा में रहें, यही अच्छा है.

भाजपा की संस्कृति यह है कि वहां सब को समा लेने की क्षमता है. पौराणिक कथाओं में राजा लड़ते थे दूसरे राजाओं से भी और तथाकथित दस्युओं, दानवों और राक्षसों से भी पर ऋषिमुनि एकदूसरे पर हमले करते थे, ऐसा कथाकारों ने कहीं नहीं लिखा. चूंकि पौराणिक ग्रंथ ऋषिमुनियों की महानता दर्शाने के लिए ही रचे गए, इसलिए उन से यह उम्मीद भी नहीं थी पर उन का असर आज भी है कि भारतीय जनता पार्टी में रूठने वाले भी दुबक कर बैठ जाते हैं, दूसरे दलों के नेताओं की तरह छिटक कर अपना दल नहीं बना लेते.

इंडिया ब्लौक इन बातों को सम?ाता है और इसीलिए कांग्रेस व कम्युनिस्ट पार्टियों को छोड़ कर हर दल भाजपा के साथ दुश्मनी एक हद तक ही करता है. इंडिया ब्लौक के मुख्य दलों को दिक्कत तब होगी जब गैरभाजपा वोट बंटेंगे, तब नहीं जब विपक्ष में बैठे कुछ लोग भाजपा में जा बैठें.

अप्रैलमई तक इंडिया ब्लौक का नामोनिशान चाहे रहे या न रहे, यह सोच भारतीय जनता पार्टी के लिए चुनौती रहेगी कि देश की 60 फीसदी जनता अब भी राम के नाम की पार्टी के साथ नहीं है.

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