Supreme Court Recognized Invaluable Contribution of Housewives : दुर्घटना में जान गंवाने वाली एक महिला के परिवार को मुआवजा दिए जाने के एक मामले की सुनवाई करते हुए देश की सब से बड़ी अदालत ने जो कहा वह घर संभालने वाली महिलाओं की आंखें खोलने वाला है. कोर्ट की टिप्पणी सचेत करती है कि अब उन्हें अपना मूल्य समझना चाहिए.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि घर चलाने वाली महिला के काम को कम नहीं आंकना चाहिए. एक गृहिणी की भूमिका वेतनभोगी परिवार के सदस्य जितनी ही महत्त्वपूर्ण है. शीर्ष अदालत ने आगे कहा कि एक गृहिणी के महत्त्व को कभी कम नहीं आंकना चाहिए. शीर्ष अदालत में जस्टिस सूर्यकांत और के वी विश्वनाथन की पीठ ने 2006 में एक दुर्घटना में मरने वाली महिला के परिजनों को मुआवजा राशि बढ़ा कर 6 लाख रुपए कर दिया. सुप्रीम कोर्ट ने वाहन मालिक को मृत महिला के परिवार को 6 सप्ताह में भुगतान करने का निर्देश देते हुए कहा कि किसी को गृहिणी के महत्त्व को कभी कम नहीं आंकना चाहिए. गृहिणी के कार्य को अमूल्य बताते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि घर की देखभाल करने वाली महिला का मूल्य उच्च कोटि का है और उस के योगदान को मौद्रिक संदर्भ में आंकना कठिन है. पीठ ने कहा कि चूंकि जिस वाहन से वह यात्रा कर रही थी उस का बीमा नहीं था, इसलिए उस के परिवार को मुआवजा देने का दायित्व वाहन के मालिक पर है.

इस से पहले एक मोटर दुर्घटना दावा न्यायाधिकरण ने उन के परिवार, उन के पति और नाबालिग बेटे को 2.5 लाख रुपए का हर्जाना देने का आदेश दिया था. परिवार ने अधिक मुआवजे के लिए उत्तराखंड हाईकोर्ट में अपील की थी, लेकिन 2017 में उन की याचिका यह कहते हुए खारिज कर दी गई कि चूंकि महिला एक गृहिणी थी, इसलिए मुआवजा नहीं बढ़ाया जाएगा.

शीर्ष अदालत ने हाईकोर्ट की उस टिप्पणी को अस्वीकार कर दिया और कहा कि एक गृहिणी की आय को दैनिक मजदूर से कम कैसे माना जा सकता है. हम इस तरह के दृष्टिकोण को स्वीकार नहीं करते हैं.

महिला के काम का मूल्यांकन नहीं

सच पूछें तो एक आम भारतीय परिवार में गृहिणी अमूमन सुबह 5 से रात 12 बजे तक लगातार घर के अनेक कार्यों को निबटाती है. एक नौकरीपेशा पुरुष मात्र 8 से 10 घंटे कोई एक तरह का काम करता है और अपनी कमाई की धौंस पूरे घर पर जमाता है. जबकि एक औरत प्रतिदिन करीब 18 घंटे काम करती हैं, ये काम कई प्रकार के होते हैं, अर्थात वह कई प्रकार के कार्यों को करने में दक्ष होती है, मगर उस के काम का न कोई मूल्यांकन होता है और न कोई भुगतान.

पानी भरना, सब के लिए खाना पकाना, घर की साफ़सफाई करना, घर सजाना, बागबानी करना, बरतन धोना, कपड़े धोना, कपड़े प्रैस करना, बच्चों को स्कूल लाना-लेजाना, बच्चों का होमवर्क करवाना, घर के लिए सब्जीभाजी खरीदना, सासससुर और अन्य परिजनों की देखभाल करना, उन के लिए दवा या अन्य चीजों की खरीदारी करना, उन को समय से भोजनपानी और दवा देना, अधिक बुजुर्ग या चलनेफिरने में लाचार सासससुर को नहलानाधुलाना, तीजत्योहारों की तैयारी और खरीदारी करना, कृषक परिवार में इन कार्यों के अलावा कृषि से जुड़े काम, ऐसी तमाम चीजें हैं जो एक गृहिणी प्रतिदिन करती है.

इन कामों के लिए यदि नौकर रखने पड़ें तो एक नहीं बल्कि कई लोग रखने पड़ेंगे, जैसे खाना पकाने के लिए रसोइया, पेड़पौधों की देखभाल के लिए माली, झाड़ूपोंछा और डस्टिंग के लिए मेहरी, नालियां और बाथरूम साफ़ करने के लिए जमादार, बरतन मांजने वाली, कपड़े धोने के लिए धोबिन, कपडे प्रैस करने के लिए प्रैसवाला, बच्चों की देखभाल के लिए आया, बुजुर्गों की देखभाल के लिए नर्स, बच्चों को स्कूल लाने-लेजाने के लिए ड्राइवर, बच्चों का होमवर्क करवाने के लिए ट्यूटरटीचर आदि. इन में से प्रत्येक को हर महीने दिए जाने वाले भुगतान को यदि जोड़ लें तो वह घर के पुरुष की प्रतिमाह कमाई से कहीं ज्यादा बैठेगा. यानी, एक गृहिणी इतने लोगों के कार्य और इतने प्रकार के कार्य न सिर्फ अकेले करती है बल्कि मुफ्त में करती है और उस को इन तमाम कार्यों के लिए कोई अहमियत, कोई शाबाशी, कोई रिकग्निशन नहीं मिलती.

नौकरी करने वाली महिलाएं

जो महिलाएं घर के इन कार्यों के साथसाथ नौकरी भी कर रही हैं, उन की हिम्मत और कार्य तो किसी भी पुरुष के कार्य से कई गुना ज़्यादा अहमियत रखते हैं. मगर, अफ़सोस कि पितृसत्तात्मक और बेहद संकुचित भारतीय मानसिकता वाला समाज औरत के किसी कार्य को कोई मान्यता नहीं देना चाहता. वह सिर्फ पुरुष द्वारा किए जाने वाले कुछ घंटों के दफ्तरी कार्य का ही महिमामंडन करने में पूरी ऊर्जा लगाता है.

दरअसल जिन महिलाओं ने खुद को घर के कामों में झोंक रखा है उन्हें अब अपनी दक्षता को आंकना, उस को जताना और अपने कार्यों का मूल्यांकन कर के घर के लोगों के सामने उस आंकड़े को रखने की जरूरत है. जो महिलाएं पढ़ीलिखी हैं, जो महिलाएं किसी विधा में दक्ष हैं, उन्हें अपना जीवन चूल्हेचौके में झोंकने के बजाय अपनी क्षमताओं के अनुसार घर से निकल कर काम करने, पैसा कमाने और अपनी उन्नति पर ध्यान देने की आवश्यकता है. नहीं करती हैं तो वे स्त्री जाति की सब से बड़ी दुश्मन हैं. ऐसी अनेक महिलाएं हैं जिन्होंने अपने पिता के घर में रह कर अपनी पढाई पर उन का खूब पैसा खर्च करवाया, मगर शादी के बाद खुद को घर की चारदीवारी में कैद कर के अपने सारे ज्ञान को चूल्हे में झोंक दिया. ऐसी अनेक महिलाएं हैं जिन के पास लौ की डिग्री है, डाक्टर की डिग्री है, इंजीनियर की डिग्री है मगर वे घर में खाना पका रही हैं और मर्द के बच्चे पाल रही हैं. ऎसी महिलाएं स्त्री जाति के लिए कलंक हैं. ऐसी ही औरतों ने औरतों की तरक्की में रोड़े डाल रखे हैं.

क्या घर सिर्फ स्त्री का है? क्या घर के लोगों की जिम्मेदारी सिर्फ औरतों की है? क्या खाना पकाना, बच्चे पालना, बूढ़ों की सेवा करना, घर की साफसफाई करना, कपड़े धोना आदि सिर्फ औरत अपने नाम लिखा कर मां की कोख से जन्मी है? ये तमाम कार्य पुरुष क्यों नहीं कर सकते? एक औरत यदि औफिस के साथसाथ घर के काम भी कर सकती है तो वही काम पुरुष क्यों नहीं कर सकता है? क्यों औरतों ने सारे काम सिर्फ अपने सिर पर उठा रखे हैं? क्यों नहीं वह काम का बंटवारा अपने पति के साथ करती है? क्यों वही औफिस से आ कर किचन में खाना बनाए? क्यों नहीं उस का पति बनाए? क्या उस के शरीर में औरत से कम ताकत है?

जब तक औरत यह नहीं समझेगी कि घर सिर्फ उस का नहीं, बल्कि उस के पति और घर के अन्य सदस्यों का भी है और उन सब को भी घर के कामों को उसी तरह करना चाहिए जैसे कि वह करती है, तब तक पितृसत्तात्मक समाज औरत को मजदूर बना कर उस को रौंदता रहेगा. जिस दिन औरत खुद यह बात समझ गई कि घर चलाने की जिम्मेदारी सिर्फ उस की नहीं है, उसी दिन से समाज और परिवार की सोच में बदलाव आने लगेगा. उसी दिन से समाज को औरत के काम का सही मूल्यांकन करना आ जाएगा.

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