20 फरवरी को 58 साल की होने जा रहीं सिंडी क्रौफर्ड 80-90 के दशक की कामयाब और चर्चित माडल व ऐक्ट्रैस थीं जिन के पोस्टर युवा अपने कमरों में लगाया करते थे. न केवल अमेरिका बल्कि पूरे यूरोप और दुनियाभर के युवा सिंडी क्रौफर्ड के दीवाने थे. यह वह दौर था जब भारत के युवा ड्रीमगर्ल के खिताब से नवाज दी गईं ऐक्ट्रैस हेमामालिनी के पोस्टर अपने कमरों में लगाया करते थे.

दुनिया की टौप फैशन ब्रिटिश मैगजीन ‘वोग’ ने फरवरी 2024 के मुख पृष्ठ पर सिंडी की तसवीर उन की बेटी केया गेरवर के साथ छापी है लेकिन इस बार ‘वोग’ का फ्रंट पेज फैशन से ज्यादा पढ़नेपढ़ाने को ले कर चर्चित हो रहा है.

22 वर्षीया केया गेरवर ने हाल ही में अपना बुक क्लब ‘लाइब्रेरी साइंस’ लौंच किया है. बकौल केया, किताबें पढ़ना उन का जनून है. लाइब्रेरी साइंस को वे एक ऐसा कम्युनिटी मंच बताती हैं जिस में वे नए लेखकों को पेश करती हैं, किताबों को साझा करती हैं और पसंदीदा कलाकारों के इंटरव्यूज लेती हैं.

केया का उत्साह बेवजह नहीं है क्योंकि बड़ी तादाद में युवा किताबों की तरफ लौट रहे हैं. 1997 से ले कर 2012 के बीच जन्मी पीढ़ी को जेन जी कहा जाता है. अब अमेरिका और यूरोप के ये युवा सोशल मीडिया के शोरगुल और गपों से तंग आ चुके हैं और तेजी से किताबों के पन्नों में सुकून, ज्ञान और मनोरंजन ढूंढ़ रहे हैं जो उन्हें मिल भी रहा है.

साल 2023 के आंकड़े युवाओं के इस बदलते रुझान की पुष्टि भी करते हैं. अमेरिका और ब्रिटेन में इस साल कोई 145 करोड़ किताबें बिकीं. सुखद व हैरानी की बात यह है कि इन में से 80 फीसदी खरीदार युवा थे. यानी, युवाओं का मोह अब सोशल मीडिया और काफीहाउसों के शोरगुल से भंग हो रहा है. उन के कदम 70 के दशक के युवाओं की तरह लाइब्रेरियों की तरफ मुड़ रहे हैं, जहां आ कर किताबें पढ़ने वाले युवाओं की तादाद बीते साल 71 फीसदी बढ़ी है.

साहित्य और किताबों के लिए चर्चित प्लेटफौर्म ‘बुक्स औन द बेडसाइड’ की कोफाउंडर हैली ब्राउन युवाओं की दिलचस्पी को उधेड़ते बताती हैं कि उन की किताबों की दुनिया अविश्वसनीय रूप से व्यापक है. उस में कथा साहित्य के अलावा अनुदित कहानियां, संस्मरण और परंपरागत साहित्य भी लोकप्रिय हैं. एक और आंकड़े के मुताबिक, बीते साल अमेरिका में प्रिंटेड किताबों की बिक्री बढ़ी है. यूगाव की एक स्टडी के मुताबिक, 2023 में 40 फीसदी अमेरिकियों ने कम से कम एक किताब पढ़ी.

हमारे युवा कहां खड़े हैं

अमेरिका घोषित तौर पर क्यों विश्वगुरु है, केया गेरवर जैसी यंग सैलिब्रिटीज की सार्थक पहल इस सवाल का जवाब देती हुई कहती हैं कि आप को अगर दौड़ में बने रहना है तो पढ़ना तो पड़ेगा ही. मंदिरों में नाचगाने और राजनीति से आप देश के युवाओं को कुछ नहीं दे सकते, हां, काफीकुछ छीन लेने का गुनाह जरूर करते हैं. और यह गुनाह आज से नहीं, बल्कि सदियों से हो रहा है कि पढ़नेलिखने का अधिकार सिर्फ एक वर्गविशेष का हो, जिसे ब्राह्मण और अब दक्षिणापंथी कहा जाता है.

हिंदू धर्मग्रंथों में पढ़ने का हक केवल ब्राह्मणों को ही दिया गया है. यह उन की रोजीरोटी का जरिया भी रहा है. अब हालांकि पूरी तरह ऐसा नहीं है लेकिन एक साजिश के तहत युवाओं का ध्यान और रुझान साहित्य से भटकाया जा रहा है. कैसे, इसे समझने से पहले यह समझना जरूरी है कि आखिर सब को पढ़नेलिखने का अधिकार मिला कैसे और अब कैसेकैसे इसे छीना जा रहा है.

साल 1850 तक देश में गुरुकुल प्रथा चली आ रही थी जिन में केवल ऊंची जाति वाले युवाओं को ही शिक्षा दी जाती थी. यह शिक्षा भी धर्म आधारित होती थी. लार्ड मैकाले ने इसे खत्म किया जिस से ब्रिटिश हुकूमत को क्लर्क मिलते रहें (क्योंकि साहब लोग तो ब्रिटेन से ही आए थे). आजादी के बाद सरकारी के साथसाथ कौन्वेंट और पब्लिक स्कूल खुलना शुरू हुए जिस से आजादी के बाद शिक्षा सभी को सुलभ हो गई. यह और बात है कि यह केवल कहनेभर को रही.

जैसी भी हुई, हो तो गई लेकिन हिंदी दुर्लभ होती गई. अब आज मोबाइल और इंटरनैट के दौर में हिंदी केवल बोलने की भाषा होती जा रही है. नए दौर के बच्चे न तो इंग्लिश प्रभावी ढंग से जानते हैं और न ही उन की पकड़ अपनी मातृभाषा पर रह गई. नतीजतन, वे त्रिशंकु जैसे अधर में लटके हैं.

यों बदनाम किया उत्कृष्ट साहित्य को

जब थोक में अधकचरी भाषा वाले बच्चे जिंदगी के मैदान में उतरे तो उन का इकलौता मकसद नौकरी हासिल करना रह गया, जो अब तक है. लेकिन यह पीढ़ी बौद्धिकता के मामले में यूरोप और अमेरिका के युवाओं से काफी पिछड़ी हुई है. थोड़ी इंग्लिश और कंप्यूटर लैंग्वेज जानने वाले देश में और विदेश जा कर भी पैसा तो अच्छा कमा रहे हैं पर सुकून की तलाश में वे भटक भी रहे हैं. उन की इस ऊहापोह का फायदा धर्म के ठेकेदार उठा रहे हैं जिन्होंने धर्म को ही ज्ञान साबित कर दिया है.

लाख टके का सवाल यह है कि भारतीय युवा क्यों पढ़ाई के मामले में पिछड़ रहे हैं तो उस की एक बड़ी वजह भाषा है. ये युवा रागदरबारी पढ़ और समझ नहीं पा रहे हैं. जब इस दिक्कत को कुछ जागरूक प्रकाशकों ने समझा तो उन्होंने नफानुकसान की परवा न करते बहुत सस्ते दामों में अच्छी पत्रिकाएं उपलब्ध कराना शुरू किया. अब तक बड़ी तादाद में पिछड़े युवा पढ़ने लगे थे और कुछ दलित आदिवासी भी औपचारिक शिक्षा से इतर साहित्य में रुचि लेने लगे थे.

80-90 के दशक में जासूसी उपन्यास भी इफरात से पढ़े गए. इन से, हालांकि पाठकों को सिवा मनोरंजन के कुछ और हासिल नहीं हो रहा था लेकिन अच्छी बात यह थी कि लोगों की दिलचस्पी पढ़ने में बढ़ रही थी जिस के चलते वे धर्म संबंधी बहुत से सच नजदीक से समझने लगे थे.

चौकन्ने, चालाक श्रेष्ठ वर्ग को इस से चिंता होना स्वाभाविक बात थी क्योंकि शिक्षित कौम उन की गुलामी करना बंद कर देती है. मैकाले का मकसद कोई भारत को शिक्षित करना नहीं था बल्कि उसे लोग चाहिए थे जो बहीखाता और हिसाबकिताब लिखने लगें जिस से ब्रिटिश राज चलता रहे. इस चक्कर में आजादी के बाद लोग सचमुच पढ़ने लगे तो दिक्कत धर्म के दुकानदारों को हुई. इसी दौर में प्रेमचंद हुए और इसी दौर में भीमराव अंबेडकर भी हुए जिन्होंने साबित कर दिया कि देश के पिछड़ेपन की वजह अशिक्षा यानी शिक्षा पर एकाधिकार एक वर्ग का है.
ऐसी ही एक पत्रिका ‘सरस सलिल’ है लेकिन दक्षिणापंथियों ने इस के बारे में यह प्रचार करना शुरू कर दिया कि यह घटिया और सैक्सी मैगजीन है जो युवाओं को बिगाड़ रही है. इस में नंगीपुंगी तसवीरें छपती हैं. उलट इस के, हकीकत यह थी कि ‘सरस सलिल’ युवाओं को तर्क करना सिखा रही थी, अंधविश्वासों और पाखंडों से आगाह कर रही थी. यह चूंकि धर्म के धंधे पर चोट कर रही थी, इसलिए दक्षिणापंथियों को अखरने लगी थी. आज भी स्थिति ज्यों की त्यों है. ‘सरस सलिल’ दिलचस्पी से पढ़ी जा रही है लेकिन उस के बारे में दुष्प्रचार यथावत है.

इस तरह की पत्रिकाओं और साहित्य को हर स्तर पर हतोत्साहित करने का एक बड़ा फर्क यह जरूर पड़ा कि नए पाठक पैदा होना बंद हो गए, जो महंगी पत्रिकाएं और साहित्य अफोर्ड नहीं कर सकते थे. इत्तफाक से इसी दौर में मोबाइल का चलन बढ़ा था जिस के खतरों से अब हर कोई चिंतित है. इस की अधिकता से हैरानपरेशान युवा कैसे किताबों की तरफ भाग रहे हैं, इस से आगाह करने को हमारे पास कोई केया गेरवर नहीं है. लेकिन आज नहीं तो कल होगी जरूर क्योंकि हमारे युवा भी मोबाइल से ऊबने लगे हैं. लेकिन बाजार में दिमाग को खुराक देने वाली पत्रिकाएं और किताबें बहुत सीमित बची हैं. वे हमेशा की तरह ही पैसे वालों के लिए हैं जो आमतौर पर ऊंची जाति वाले आज भी हैं.

कथावाचकों की चांदी

बाजार में जो बहुतायत से मौजूद हैं वे समाज को भ्रष्ट करने वाले कथावाचक हैं. उन्हें हिंदू समाज का पथभ्रष्टक न कहना उन के साथ ज्यादती ही होगी. उन के फलनेफूलने की एक बड़ी वजह युवाओं के सामने अच्छे ज्ञानवर्धक, व्यावहारिक और तार्किक साहित्य की सीमितता तो है ही लेकिन दूसरी इस से बड़ी वजह हमारी पढ़ने की कम, सुनने की आदत ज्यादा है जिसे, अपने स्वार्थ के लिए ही सही, लार्ड मैकाले ने ध्वस्त किया था.

पंडेपुजारी हमें सदियों से ही कथाएं सुनाते रहे हैं. इस से जो नुकसान हुए उन में एक यह था कि धर्मग्रंथों का सच लोग जानसमझ ही न पाएं. कथावाचकों ने अपने हिसाब से इसे तोड़ामरोड़ा और पैसा बनाया. आज भी हो यही रहा है कि व्यास पीठ पर विराजा महाराज बड़ी बेशर्मीभरे आत्मविश्वास से कहता है कि लहसुन और प्याज कुत्ते के पेशाब से उत्पन्न हुए और पृथ्वी शेषनाग के फन पर टिकी है तो भक्तों की भीड़ तालियां बजा कर उसे सच मान लेती है.

ऐसी सैकड़ोंहजारों बातें धर्म की आड़ में बोली जाती हैं और उस से भी ज्यादा चिंता और अफसोस की बात कि वे पूरी श्रद्धा से सुनी जाती हैं. ऐसे में भारत कैसे विश्वगुरु बनेगा, सवाल तो है. इस के बजाय सोचा यह जाना चाहिए कि क्या ऐसे ही भारत, कथित तौर पर, विश्वगुरु बना होगा.

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