देश के हर शहर में एक इलाका ऐसा होता है जिसे कराची, इसलामाबाद या लाहौर कहा जा सकता है. इन इलाकों के बारे में प्रचार यह किया जाता है कि यहां दुनियाभर के जुर्म पनपते हैं, देशदुनिया के तस्कर यहां पनाह लेते हैं. चोरी, तस्करी, देह व्यापार यहा आम होते हैं. और सब से बड़ी बात, हिंदू इन इलाकों में पांव रखने से भी खौफ खाते हैं क्योंकि यहां राज मुसलमानों का चलता है. पुलिस प्रशासन, कानून व्यवस्था इन इलाकों में आ कर बेबस हो जाते हैं. यही अब बनभूलपुरा के बारे में कहा जा रहा है.

उत्तराखंड के हल्द्वानी में जो हुआ उस की वजह कहने को भले ही एक नाजायज मजार या मसजिद, कुछ भी कह लें, को हटाना हो पर हकीकत कुछ और भी है. एक दुष्प्रचार के तहत यह कहा जा रहा है कि बीती रात यानी 8 फरवरी को कट्टरपंथी दंगाइयों ने जो उपद्रव किया वह कोई अप्रत्याशित घटना नहीं थी. दंगाइयों ने इस की तैयारी बहुत पहले से ही कर रखी थी. जब से यहां की ढोलक बस्ती, गफूर बस्ती और नई बस्ती में रेलवे वन विभाग व राजस्व की जमीनों पर अतिक्रमण किए जाने का मामला सुर्खियों में आया तब से यह आशंका जताई जा रही थी कि एक न एक दिन ऐसा होगा.

हल्द्वानी बना कुरुक्षेत्र

बनभूलपुरा हल्द्वानी का मुसलिमबाहुल्य इलाका है जिस में मुसलमानों की आबादी 90 फीसदी है. एकाएक ही सुर्खियों में आए इस इलाके में 8 फरवरी की हिंसा में 4 लोग मारे गए थे और 100 के लगभग घायल हुए थे. इस दिन नगर निगम की जेसीबी मशीनों की मौजूदगी ही बयां कर रही थी कि कुछ अनहोनी होने जा रही है. ये मशीनें जैसे ही मसजिद तोड़ने लगीं तो हिंसा भडक उठी. इस के पहले 29 जनवरी को पुलिस की मौजूदगी में बनभूलपुरा के मालिक के बगीचे की कोई 2 एकड़ जमीन अतिक्रमण से मुक्त कराई गई थी. लेकिन उस दिन मसजिद और मदरसे को नहीं तोड़ा गया था. प्रशासन ने वहां फेंसिंग कर दी थी.

प्रशासन ने नोटिस जारी करते 1 फरवरी तक बकाया अतिक्रमण हटाने का हुक्म दिया था. लेकिन इस दिन कोई कार्रवाई नहीं की गई. 3 फरवरी को बनभूलपुरा के वाशिंदों ने नगर निगम पर विरोध प्रदर्शन किया था. जो आया गया, हो गया था. 4 फरवरी को सुबह 6 बजे अधिकारियों ने अतिक्रमण हटाने का फैसला किया जिस की भनक मिलते ही सैकड़ों औरतें मालिक के बगीचे के पास दुआ करने बैठ गईं. इस पर अधिकारियों ने फैसला लिया कि मसजिद व मदरसा नहीं तोड़े जाएंगे.

लेकिन प्रशासन ने देररात मसजिद और मदरसे को सील कर दिया. फिर 8 फरवरी को फिर तोड़फोड़ शुरू की गई जिस से गुस्साए लोग सड़कों पर आ गए और तोड़फोड़ का विरोध किया जिस का कोई असर न होते देख दंगा किया जाने लगा, आगजनी की, गाड़ियां फूंकीं और पुलिसकर्मियों व कर्मचारियों पर हमला बोल दिया. जवाबी कार्रवाई में पुलिस ने गोलियां चलाईं, कर्फ्यू लगाया और थोड़ी देर बाद देखते ही गोली मारने का आदेश जारी कर दिया. देखते ही देखते हल्द्वानी कुरुक्षेत्र का मैदान बन गया. देररात इंटरनैट सेवाएं भी बंद कर दी गईं.

यह तो आगाज है

हल्द्वानी में नया कुछ नहीं हुआ है. वहां दूसरे तरीके से वही हुआ है जो दिल्ली के शाहीन बाग में हुआ था जो हरियाणा के नूंह में हुआ था. जो आएदिन छिटपुट तौर पर खासतौर से भाजपाशासित राज्यों में होता रहा है. उत्तराखंड में एक मुहिम के तहत अवैध धर्मस्थल हटाए जा रहे हैं जिस के तहत कोई 450 मजारें और 50 के लगभग मंदिर हटाए जा चुके हैं. यह स्वागतयोग्य बात है क्योंकि धर्मस्थल हिंदुओं के हों या मुसलमानों के या किसी और धर्म के, लोगों का वक्त और पैसा ही जाया करते हैं और आपसी बैर ही फैलाते हैं. ये धर्मस्थल कहने को ही आस्था के प्रतीक होते हैं.

नैनीताल से 43 किलोमीटर दूर हल्द्वानी में जो हुआ वह स्वागतयोग्य नहीं है. यह ठीक है कि मसजिद हाईकोर्ट के आदेश पर हटाई जा रही थी पर इस के लिए हुई हिंसा का जिम्मेदार किसी एक को ठहराया जाना न्यायसंगत नहीं लगता और न ही यह दुष्प्रचार स्वागतयोग्य है कि बनभूलपुरा जैसे इलाकों में समानांतर इसलामी हुकूमत चलती है और वहां हिंदू चैन से नहीं रह पाते. यह दुष्प्रचार जानबूझ कर किया जा रहा लगता है जिस का एक खास मकसद भी है.

मकसद यह जताना है कि यह प्रशासन और मुसलमानों की नहीं बल्कि हिंदुओं और मुसलमानों की लड़ाई है. जब जरूरत इस बात की थी और हमेशा रहेगी कि कोई भी ऐसा काम न करें जिस से देश का सांप्रदायिक माहौल बिगड़े तब सोशल मीडिया पर दुष्प्रचार यह किया जा रहा है कि यह मुसलमानों की बौखलाहट है जो अयोध्या में राम मंदिर बन जाने के बाद देश में हर कहीं देखने में आ रही है.

खासतौर से हिंदीभाषी राज्यों में हालात बहुत खराब हैं जहां आम मुसलमान दहशत में जी रहा है. 22 जनवरी को तो मुसलमान घरों से ही नहीं निकला था. इस डर की व्याख्या शायद ही कोई समाजशास्त्री कर पाए. असल में यह धर्म का डर था. धार्मिक उन्माद की दहशत थी जिस पर सवर्ण हिंदुओं की छाती फूलकर 56 इंच की हो जाती है. आम नागरिक, चाहे वह किसी धर्म को मानने वाला हो, का यह डर लोकतंत्र के मुलभूत सिद्धांतों से मेल नहीं खाता.

इत्तफाक पर इत्तफाक

हल्द्वानी में जो हुआ वह तो होना तय ही था लेकिन क्यों था, इस पर गौर किया जाना जरूरी है. यह राममंदिर निर्माण और उद्घाटन वगैरह की प्रतिक्रिया तो कहीं से नहीं कही जा सकती. यह मसजिद के वैधअवैध होने को ले कर हुआ फसाद था जिस में मुसलिम पक्ष अदालती लड़ाई हारा था. लेकिन क्या यह पूरे मुसलिम समुदाय की लड़ाई थी, यह सवाल तो मुंहबाए हमेशा ही खड़ा रहेगा. जब कहीं नाजायज मसजिद या मदरसा हटाया जाएगा तो उस से हुई हिंसा को मुसलमानी खीझ बता कर क्या साबित करने की कोशिश होगी. यही कि मुसलमान देश को हिंदू राष्ट्र बनते देख जलताकुढ़ता है. वह बनभूलपुरा जैसी बस्तियां बना कर अपनी बादशाहत चलाता है.

असल बात तो यह है कि भगवा गैंग यह जताने की कोशिश कर रहा है कि हम तो मुसलमानों को खदेड़ रहे हैं लेकिन चंद वामपंथी हिंदू उन के साथ हैं, इसलिए देश के हिंदू राष्ट्र बनने में देर हो रही है. अब यह हिंदू राष्ट्र है क्या बला और इस में क्या क्या होगा, यह उन हिंदुओं को भी नहीं मालूम जो इसी शर्त पर भाजपा को वोट दिए जा रहे हैं.

हल्द्वानी की हिंसा के ठीक पहले ही उत्तरखंड सरकार ने समान नागरिक संहिता कानून पारित किया था. अब यह कहना कि हल्द्वानी की हिंसा मुसलमानों ने उस के एवज में की, निहायत ही साजिशभरी बात है. इस के ठीक पहले उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ मुसलमानों से अपील कर रहे थे कि ये 3 मंदिर हमें दे दो, हम किसी और मसजिद की बात नहीं करेंगे.

यह सब क्या है और देश में यह हो क्या रहा है, इस पर अब उस हिंदू को विचार करना होगा जो महाभारत के युद्ध को धर्म और अधर्म की लड़ाई समझता है. पांडवों ने भी 5 गांव मांगे थे, हम भी सिर्फ 3 मंदिर मांग रहे हैं जैसी अपील, अपील कम धौंस ज्यादा लगती है कि सीधे से नहीं दोगे तो हम छीन लेंगे. सरकार हमारी है, कानून और अदालतें भी हमारी हैं, ईडी जैसी अधिकारसंपन्न एजेंसियां हमारी हैं जिन के जरिए हम चुनी हुई सरकारों को गिरा देते हैं, मुख्यमंत्रियों को इस्तीफा देने को मजबूर कर देते हैं, जगहजगह छापे पड़वा देते हैं तो तुम किस खेत की मूली हो.

यह सब कानून और लोकतंत्र का मखौल है. पांडवों और कौरवों की लड़ाई भी जर, जोरू और जमीन वाली थी. आज उस की दुहाई देना यह एहसास कराना है कि युद्ध हो तो हम तैयार हैं. यह कैसा लोकतंत्र है जहां खुलेआम धर्मयुद्ध के शंख बजाए जा रहे हैं. दुनियाभर में यही होता रहा है. आज से कोई 930 साल पहले पोप ने ईसाईयों का आव्हान किया था कि यरुशलम को मुसलमानों के कब्जे से आजाद कराना है.

यह धर्मयुद्ध यानी क्रुसेड भी एक तरह का महाभारत ही था. इन युद्धों में सैकड़ों बेगुनाह मारे जाते हैं, लाखों औरतें विधवा होती हैं, बच्चों के सिर पर कोई साया नहीं रहता और जो तबाही होती है उस की भरपाई होने में सदियां लग जाती हैं.

हल्द्वानी को इस का आगाज समझना चाहिए जिस का अंजाम कभी किसी के लिए अच्छा नहीं होता. हां, धर्मगुरुओं की जरूर चांदी हर दौर में रहती है. इस दौर में इंसानी समझ बहुत विकसित है, ऐसा कहने की कोई वजह नहीं दिख रही जिसे युद्ध रास आ रहे हैं. धर्म और उस के स्थलों के विवाद जगहजगह हो रहे हैं. हल्द्वानी के झरोखे में झांक कर बहुसंख्यक सवर्ण हिंदुओं को सबक लेना चाहिए कि यह उन के लिए भी शुभ नहीं है. उन्हें तो दक्षिणापंथी बहका रहे हैं कि यह जमीन तुम्हारी है, प्राकृतिक संसाधन तुम्हारे हैं जिन पर मुसलमान कब्जा कर रहे हैं, वे तुम्हारे टैक्स के पैसे पर मुफ्त की खा रहे हैं वगैरहवगैरह. हम तो इसे तुम्हें देने की लड़ाई लड़ रहे हैं, इसलिए हमें वोट और दक्षिणापंथियों को दान देते रहो.

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