सभ्य समाज में ड्राइवरों की हैसियत वही है जो वर्णव्यवस्था के तहत अछूत शूद्रों की हुआ करती है. इसे समझने का एक ताजा उदाहरण काफी है. हिट एंड रन कानून के विरोध में हुई हड़ताल के दौरान प्रशासन जगहजगह ड्राइवरों को समझाने की कोशिश कर रहा था कि हड़ताल वापस ले लो और ड्राइवर थे कि अपनी मांगों पर अड़े थे.

मध्यप्रदेश के शाजापुर जिले में कलैक्टर किशोर कन्याल साल के दूसरे दिन वाहनचालकों को सरकारी भाषा में समझाइश दे रहे थे कि बातोंबातों में गरमी पैदा हो गई. किसी बात पर कलैक्टर साहब भड़क कर एक ड्राइवर से बोल ही उठे कि समझ क्या रखा है, क्या करोगे तुम, आखिर तुम्हारी औकात क्या है.

बात सिर्फ इतनी सी थी कि एक ड्राइवर, जो शायद नए साल की बधाइयों की खुमारी में था, ने  कलैक्टर साहब से यह गुजारिश कर दी थी कि वे उन से अच्छे से बोलें, तो कलैक्टर साहब `अच्छे` से ही बोल उठे. यानी, जबां पर दिल की बात आने से खुद को रोक नहीं पाए.

ड्राइवर का दर्द भी इन शब्दों में फूट ही पड़ा कि यही तो लड़ाई है कि हमारी कोई औकात नहीं. मीटिंगरूम में पिनड्रौप साइलैंस छा गया. कलैक्टर के अंगरक्षक ड्राइवर की तरफ झपटे और सभी एकदूसरे का मुंह ताकने लगे क्योंकि ब्रह्मा का मुंह टांग पर बिफर गया था. बात आईगई तब हुई जब पैरों ने मुंह से माफी मांग ली. जबकि, माफी मुंह को पैरों से मांगनी चाहिए थी.

बहरहाल, एक बार फिर साबित हो गया कि ड्राइवरी कोई सम्मानजनक पेशा नहीं है. मुमकिन है इसलिए भी कि कोई 85 फीसदी ड्राइवर दलितपिछड़े तबके के हुआ करते हैं. हां, जब से ओला-उबर टाइप की टैक्सियां चलनी शुरू हुई हैं तब से कुछ ऊंची जाति वाले भी इस पेशे में आ गए हैं, ठीक वैसे ही जैसे कुछ सवर्ण अब चपरासी और सफाईकर्मी वगैरह भी बनने लगे हैं.

नजरिया तो पौराणिक ही है

तुम्हारी औकात क्या है, 4 लफ्जों की यह चाबुक एक कलैक्टर ने ही नहीं मारी बल्कि यह ड्राइवरों के प्रति सामाजिक नजरिए की अभिव्यक्ति भी है जो हिट एंड रन कानून में ठीक वैसे ही चस्पां थी जैसे कृषि कानूनों के वक्त किसानों के प्रति थी. सरकार और उस के नुमाइंदे किसानों को पानी पीपी कर कोस रहे थे कि ये लोग नक्सली, खालिस्तानी, पाकिस्तानी एजेंट और देशद्रोही वगैरहवगैरह हैं.

बात बहुत सीधी और साफ है कि किसानों ने बहुत बड़े पैमाने पर संगठित हो कर सरकार की चूल से चूल हिला दी थी. बेइंतिहा दमन के बाद भी किसान नहीं झुके तो मजबूरी में सरकार ही झुक गई क्योंकि वह टूटना नहीं चाहती थी.

ड्राइवरों की हड़ताल की बात थोड़ी जुदा थी. वे तादाद में किसानों जितने नहीं हैं. वे भी हालांकि रोज कुआं खोद कर ही प्यास बुझाते हैं लेकिन उन के पास रब, खरीफ और जायद जैसे मौसम नहीं होते कि कुछ महीने जमापूंजी के सहारे गुजरबसर कर लें.

दरअसल, वे अपने मालिकों के रहमोकरम पर जी रहे होते हैं क्योंकि वे दिहाड़ी या फिर वेतनभोगी होते हैं. इस के बाद भी उन का स्वाभिमान जागा या जागरूकता उन में आई तो सरकार की भौंहें तिरछी होना कुदरती बात थी.

महज 36 घंटे ही उन की हड़ताल चली. वह भी लड़खड़ाते हुए लेकिन इन चंद घंटों में ही साबित हो गया कि ड्राइवर अपनी जगह सही हों या गलत, सरकार उन की अनदेखी करने की या वैसी गलती करने का जोखिम नहीं ले सकती जो किसानों की हड़ताल के वक्त उस ने ली थी. लिहाजा, सरकार ने ड्राइवरों की औकात समझी, फिर बातचीत हुई और अस्थाई तौर पर हड़ताल खत्म हो गई लेकिन अभी समस्या हल नहीं हुई है, टली भर है.

इन चंद घंटों में ही आम लोगों की जिंदगी पर कम रेक्टर वाले भूकंप का सा असर हुआ. खानेपीने के आइटमों की सप्लाई पर संकट आया, जरूरी सामान, थोड़े ही सही, महंगे हुए, स्कूल बंद हो गए, डीजलपैट्रोल की किल्लत होने लगी, सड़कों पर जाम लगने लगे, छिटपुट हिंसा होने लगी और इन से भी बड़ी बात, तरहतरह की अफवाहें और आशंकाएं सिर उठाने लगीं तो सरकार को लगा कि बात सुन लेने और कर लेने में ही भलाई है क्योंकि 22 जनवरी के अयोध्या मेगा इवैंट में महज कुछ दिन ही बचे हैं, ऐसे में कोई छोटाबड़ा लोचा अफोर्ड नहीं किया जा सकता. इस शुभकार्य में कोई विध्न तो दूर की बात है, उस की परछाईं भी नहीं पड़नी चाहिए.

हिट एंड रन के बदले रंग

मौजूदा सरकार ने सिर्फ शहरों, इमारतों और रेलवे स्टेशनों के ही नाम नहीं बदले हैं बल्कि कानूनों के भी नाम कुछ मसौदे के साथ बदले हैं. इन में से आईपीसी का नाम अब बीएनएस यानी भारतीय न्याय संहिता 2023 कर दिया है. हिट एंड रन कोई नई समस्या या जुर्म नहीं है जिस में आमतौर पर भारी वाहन, मसलन बस और ट्रक ड्राइवर किसी को भी कुचल कर भाग जाते हैं.

पीड़ित को इलाज की सहूलियत भी नहीं मिलती. बीएनएस में सरकार ने सख्ती बरतते बदलाव ये किए हैं कि यदि गलत ड्राइविंग या फिर लापरवाही के चलते किसी व्यक्ति की मौत हो जाती है तो फिर वाहनचालक को अधिकतम 10 साल की सजा और 7 लाख रुपए तक के जुर्माने से दंडित किया जाएगा. सैक्शन 104 ए और बी में इस के जिक्र में साफ लिखा है कि यदि कोई हादसा होता है और गाड़ी से टक्कर के बाद ड्राइवर खुद मौके से या वाहन सहित भाग निकलता है तो उसे 10 साल की सजा होगी.

आसान शब्दों में कहें तो हादसे के बाद ड्राइवर घटना की जानकारी पुलिस अधिकारी या फिर मजिस्ट्रेट को नहीं देता है तो उसे 10 साल तक की सजा हो सकती है और जुर्माना भी देना होगा. अभी तक यह सजा आईपीसी की धाराओं के तहत दी जाती थी. इस की धारा 279 लापरवाही से वाहन चलाने की है, इस में 2 साल की सजा का प्रावधान है.

धारा 304 ए ड्राइवर की पहचान के बाद लागू होती है और मामला धारा 338 (जान जोखिम में डालना) के तहत दर्ज होता है. 304 ए गैरइरादतन हत्या वाली धारा है जिस में सजा ए मौत का भी प्रावधान है लेकिन हिट एंड रन के मामलों में जुर्म आमतौर पर साबित नहीं हो पाता.

हिट एंड रन के मामलों में सब से बड़ी दिक्कत यह है कि अपराधी के खिलाफ किसी भी प्रत्यक्ष सुबूत का अभाव होता है. ऐसे में पुलिस हवा में हाथपैर मारती रह जाती है और अधिकतर मामलों में दोषी पकड़ा ही नहीं जाता और जिन में पकड़ में आ जाता है उन में 2 साल की सजा भुगत कर बाहर आ जाता है.

चिंता की बात हिट एंड रन के बढ़ते मामले हैं. साल 2022 में हिट एंड रन की 67,387 वारदातें हुईं जिन में 30,486 लोगों की मौतें हुईं. इन में से कितने दोषी पकड़े गए और कितनों को सजा हुई, यह आंकड़ा अभी किसी एजेंसी ने जारी नहीं किया है. 2021 में हिट एंड रन की 57,415 वारदातें हुईं थीं जिन में 25,938 लोगों की जानें गई थीं. 2020 में ऐसे 52,448 मामले दर्ज हुए थे जिन में 23,159 मौतें हुई थीं.

ड्राइवरों की दलील

नए कानून और उस के प्रावधानों पर ड्राइवरों का डर यह है कि यदि वे हादसे में घायल व्यक्ति की मदद करते हैं तो उन्हें भीड़ के गुस्से का शिकार होना पड़ेगा जिस में उन की भी जान जा सकती है. अलावा इस के, सजा और जुर्माना राशि दोनों ज्यादा हैं. भारत में किसी ड्राइवर के पास 7 या 10 लाख रुपए जमा नहीं हो सकते क्योंकि वे 8 से 25 हजार रुपए की पगार पर नौकरी करते हैं, इसी में से उन्हें घर चलाना और पालना होता है.

अब यहां एक तर्क यह बनता है कि मरने वाले का भी तो घर था, उसे कौन चलाएगा और पालेगा. इस सवाल का जबाब खोजती दुलाल गुहा निर्देशित फिल्म ‘दुश्मन’ साल 1971 में बनी थी जिस में राजेश खन्ना और मीना कुमारी प्रमुख भूमिकाओं में थे. ट्रक ड्राइवर बने राजेश खन्ना के ट्रक से टकरा कर मीना कुमारी के पति की मौत हो जाती है तो यही सवाल जज बने रहमान के सामने आ खड़ा होता है.

एक नया प्रयोग करते अदालत राजेश खन्ना को बतौर सजा मीना कुमारी के खेतों में खेती कर उस के परिवार का भरणपोषण करने की सुनाती है. शुरू में मृतक के घर वाले हीरो को दुश्मन कहते और समझते उसे दुत्कारते हैं लेकिन फिर धीरेधीरे वह गांव वालों का दिल जीत लेता है और गांव की ही एक लड़की से शादी कर वहीं बस जाता है और मृतक के घर का हिस्सा बन जाता है. नायिका की भूमिका मुमताज ने निभाई थी. यह हिट फिल्म प्रयोगवादी थी जिसे 70 के दशक के दर्शकों ने हाथोंहाथ लिया था.

ऐसा होना हकीकत में भी नामुमकिन नहीं है लेकिन सरकार का इरादा किसी प्रयोग का न हो कर सीधे सजा देने का है जिस से ड्राइवरों के दिल दहले हुए हैं. नए कानून में खोट कहांकहां है, यह गिनाते आल इंडिया मोटर ट्रांसपोर्ट कांग्रेस के अध्यक्ष अमृतलाल मदान कहते हैं कि संशोधनों के पहले जिम्मेदार लोगों से सुझाव नहीं लिए गए. इस के अलावा देश में ऐक्सिडैंट इन्वैस्टिगेशन प्रोटोकौल का अभाव है. पुलिस वैज्ञानिक जांच किए बिना ही दोष बड़े वाहन पर मढ़ देती है.

उलट इस के, गृहमंत्री अमित शाह की संसद में दी गई यह दलील सुनने में दमदार लेकिन एकतरफा थी कि उन लोगों के लिए सख्त सजा का प्रावधान है जो सड़क दुर्घटना के बाद मौके से भाग जाते हैं और पीड़ितों को मरने के लिए छोड़ देते हैं. गृहमंत्री का तब यह कहा कानून में कहीं नहीं दिख रहा कि उन लोगों के लिए कुछ उदारता दिखाई जाएगी जो खुद से पुलिस को सूचित करेंगे और घायलों को अस्पताल ले जाएंगे.

पर इन का क्या होगा

चूंकि उदारता नए प्रावधानों में कहीं नहीं है और है भी तो नाम मात्र की. जमानत का प्रावधान भी इस में नहीं है. इसलिए भी ड्राइवर अड़ गए. उन का डर अपनी जगह वाजिब और जायज है कि भीड़ उन्हें छोड़ेगी नहीं और पुलिस वालों का बरताव भी पुलिसिया ही होगा तो हम क्यों हवन करते हाथ जलाएं. रही बात हिट एंड रन की, तो कोई भी जानबूझ कर एक्सिडैंट नहीं करता. यानी, कोई गलती महसूसते उसे सुधारने की गरज से पीड़ित को अस्पताल ले जाने की बात सोचे भी तो भीड़ और पुलिस का डर उसे ऐसा करने से रोकने वाला साबित होता है.

समस्याएं कई हैं. मसलन, सड़कों पर बेजा कब्जे जो कच्चीपक्की दुकानों और गुमठियों की शक्ल में हर शहर के बाहर कई किलोमीटर तक दिखते हैं, ये भी हादसों की बड़ी वजह बनते हैं लेकिन इन का जिक्र कहीं किसी कानून या संहिता में नहीं है. समस्या वे दुपहिया चालक भी हैं जो तेज रफ़्तार से फिल्मी हीरो की तरह वाहन दौड़ाते हैं और अकसर खुद बड़े या भारी वाहन की चपेट में आ जाते हैं.

इन से भी बड़ी समस्या शराब की उपलब्धता है. हाईवे पर शराब के ठेके इफरात से मिल जाते हैं. वहां के ढाबों और बड़े रैस्टोरैंट्स और होटलों में जायजनाजायज शराब पानी की तरह बिकती है. इन पर रोक तय है हादसों में कमी लाने वाली साबित होगी लेकिन जब हादसों का जिम्मेदार खासतौर से बड़े वाहन ड्राइवरों को मान ही लिया गया है तो इन छोटीमोटी मगर अहम बातों पर गौर और फ़िक्र करने की फुरसत किसे है. भोपाल से विदिशा की दूरी महज 45 किलोमीटर है, इस बीच सड़क से ही 8 दुकानें शराब की दिखती हैं जो हादसों को नयोता ही देती हैं.

हाईवे और एक्सप्रैसवे तो ठीक हैं लेकिन बाकी सड़कों की दुर्दशा, मसलन गढ्ढे वगैरह भी बड़े हादसों की वजह बनते हैं. इन पर सरकार और कानून खामोश ही रहते हैं क्योंकि दोष देने को वाहनचालक जो हैं. सड़क दुर्घटना कि किसी इन्वैस्टिगेशन में शायद ही कभी सड़क की बदहाली को जिम्मेदार मानते संबंधित विभाग के अधिकारियों को तलब किया गया होगा.

समझौते की छाछ

ड्राइवरों की हड़ताल का आम लोगों ने विरोध नहीं किया क्योंकि नए प्रावधान निजी वाहनों पर भी लागू होते हैं जिस से आम लोग भी सहमे हुए हैं. हड़ताल वापस लेने का समझौता बड़े ही ड्रामाई तरीके से अमृतलाल मदान और केंद्रीय गृह सचिव अजय भल्ला के बीच हुआ जिस का खुलासा करते अमृतलाल मदान ने विजयी मुद्रा में कहा कि सरकार और ट्रांसपोर्टर्स के बीच सहमति बन गई है. अभी नए कानून के प्रावधान लागू नहीं हुए हैं. गृहमंत्री अमित शाह ने 10 साल की सजा और जुर्माने को रोक दिया है. ट्रांसपोर्ट कांग्रेस की अगली बैठक होने से पहले यह कानून लागू नहीं होगा.

अव्वल तो कोई उस वक्त तक इस बात पर भरोसा नहीं कर सकता जब तक ये बातें संसद में न कही जाएं क्योंकि कृषि कानूनों के विरोध के दौर में भी ऐसी बातें सामने आई थीं कि सरकार मान रही है या विचार कर रही है या फिर झुक रही है.

हालफिलहाल तो हड़ताली 90 लाख ड्राइवर मान गए हैं, आगे क्या होता है, यह देखना दिलचस्प होगा क्योंकि यह सरकार बहुत अड़ियल और जिद्दी है जिस के अफसर ड्राइवरों को उन की औकात याद दिलाते हैं.

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