मंडल यानी पिछड़ी जातियों के सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने वाले मंडल के मसीहा वी पी सिंह को उत्तर भारत की राजनीति में लावारिस हालत में छोड़ दिया गया था. उन की प्रतिमा अब तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई में लगाई गई है. तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने मूर्ति के अनावरण समारोह में उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को विशेष अतिथि के रूप में बुलाया गया. 2024 के लोकसभा चुनाव पिछड़ों के मुद्दे पर जिस तरह से केन्द्रित होते दिख रहे हैं, उस से वीपी सिंह अहम होते जा रहे हैं.

1988-89 में देश में एक नारा खूब सुनाई पड़ता था ‘राजा नहीं फकीर है देश की तकदीर है’. इस नारे में जिस राजा का जिक्र किया जाता था वह थे उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद (अब प्रयागराज) की मांडा रियासत के रहने वाले विश्वनाथ प्रताप सिंह. आजादी के बाद रियासतों और राजाओं को विलेन की नजरों से देखा जाता था.

विश्वनाथ प्रताप सिंह की राजनीति कांग्रेस से शरू हुई थी. वह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रहे. उन के कार्यकाल में उत्तर प्रदेश में चंबल के डाकुओं का बहुत आतंक था. डाकुओं ने विश्वनाथ प्रताप सिंह के बड़े भाई जस्टिस चन्द्र शेखर प्रताप सिंह और उन के 14 साल के बेटे की हत्या कर दी गई थी.

मुलायम के साथ सहज रिश्ते नहीं रहे

मुख्यमंत्री के तौर पर दस्युओं के सफायें लिए विशेष अभियान चला रहा था. इस के विरोध में डाकुओं ने वी पी सिंह के परिवार को ही निशाना बना लिया था. करीब 2 साल वह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे. समाजवादी पार्टी (उस समय लोकदल) के नेता मुलायम सिंह यादव वी पी सिंह के दस्यु उन्मूलन अभियान के विरोधी थे. वीपी सिंह और मुलायम सिह यादव के बीच संबंध अच्छे नहीं थे. विश्वनाथ प्रताप सिंह लोकदल के नेता चौधरी अजीत सिंह का समर्थन करते थे.

विश्वनाथ प्रताप सिंह उत्तर प्रदेश के दूसरे ऐसे मुख्यमंत्री थे जो देश के प्रधानमंत्री भी बने. उन के अलावा चौधरी चरण सिंह पहले नेता थे जो यूपी के मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री बने. कभी कांग्रेस नेता और प्रधानमंत्री राजीव गांधी के बेहद करीबी रहे वीपी सिंह ने 1987 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को हरा कर देश के प्रधानमंत्री बने थे.

प्रधानमंत्री बनने के बाद वीपी सिंह का नाम इतिहास में दर्ज हो गया. इस का कारण था ‘मंडल आयोग’ को लागू करना. 1979 में प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने देश की 52 फीसदी पिछड़ी जातियों के आर्थिक और सामाजिक स्तर का अध्ययन करने के लिए वी पी मंडल की अगुवाई में एक आयोग का गठन किया था जिसे मंडल आयोग कहा गया. मंडल आयोग ने बहुत सारी सिफारिशों के साथ मुख्य तौर पर कहा कि पिछड़ों को 27 फीसदी आरक्षण दिया जाए.

कमंडल के मुकाबले आया मंडल

आयोग ने 1980 में जब अपनी रिपोर्ट पेश की तब तक प्रधानमंत्री की कुर्सी पर इंदिरा गांधी बैठ चुकी थी. वह इस रिपोर्ट को लागू करके अगड़ी जातियों को नाराज नहीं करना चाहती थी लिहाजा मंडल आयोग की सिफारिशी ठंडे बस्ते में चली गई. मंडल आयोग की सिफारिशों की याद वी पी सिंह को तब आई जब उन के प्रधानमंत्री बनने के बाद भारतीय जनता पार्टी ने अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का आंदोलन तेज कर दिया.
भाजपा के कमंडल यानी अगड़ी जातियों की राजनीति का मुकाबला करने के लिए वी पी सिंह ने सोचा कि अगर वह मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू कर देगें तो 52 फीसदी पिछड़ा वर्ग उन के साथ खड़ा होगा. जिस से लोकसभा चुनाव में उन को जीत हासिल हो जाएगी. मंडल बनाम कंमडल की लड़ाई में वी पी सिंह देाहरी मात खा गए. उन की कुर्सी भी गई और उन की आगे की राजनीति भी खत्म हो गई.

पिछड़ी जातियों के नेताओं ने मुंह मोड़ा

वी पी सिंह की सरकार में भाजपा उन की सहयोगी पार्टी थी. उस ने अपना समर्थन वापस ले लिया. जिस से केन्द्र में वी पी सिंह सरकार गिर गई. कांग्रेस के सहयोग से चन्द्रशेखर प्रधानमंत्री बने. मंडल के मसीहा विश्वनाथ प्रताप सिंह की पार्टी 1991 के लोकसभा चुनाव हार गई. उन की राजनीति यहीं पर खत्म हो गई. मंडल से उभरे पिछड़ी जातियों के नेता मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, शरद यादव जैसे नेताओं ने मंडल के मसीहा के रूप में वी पी सिंह को कभी स्थापित नहीं किया.

लालू प्रसाद यादव कांग्रेस के साथ हो गए तो मुलायम सिंह यादव इधरउधर की राजनीति करते यूपी में अपनी पार्टी को मजबूत करते रहे. इस के बाद मुलायम सिंह यादव बसपा के साथ मिला कर 1993 और लोकदल के साथ मिल कर 2004 में मुख्यमंत्री बने. 2012 में समाजवादी पार्टी ने बहुमत की सरकार बनाई. अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बने. समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश में सब से बड़ी पार्टी रही.

अपनी सरकार के दौर में मुलायम सिह यादव और अखिलेश यादव दोनों ने ही कई समाजवादी नेताओं जैसे जनेश्वेर मिश्र और डाक्टर राममनोहर लोहिया के नाम पर बड़ेबड़े पार्क और अस्पताल बनावाए. कभी मंडल के मसीहा कहे जाने वाले वीपी सिंह के नाम को याद नहीं किया. उत्तर प्रदेश की राजनीति में यह वह दौर था जब सभी राजनीतिक दल अपने अपने महापुरूषों को स्थापित कर रहे थे.

अपनी पार्टी चलाने में रहे विफल

उस दौर में वीपी सिह के साथ राजनीतिक अछूत जैसे व्यवहार किया गया. कांग्रेस की नाराजगी स्वाभाविक थी. भाजपा के वह प्रबल विरोधी थे. बसपा सवर्ण होने के नाते उन से कोई रिश्ता नहीं रखना चाहती थी. अगड़ी जातियों के लोग उन से नाराज थे क्योंकि मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किया था जिस का प्रभाव अगड़ी जातियों पर पड़ा था. उस समय तमाम अगड़ी जातियों के युवकों ने आत्मदाह तक कर लिया था.

मंडल आयोग की जिन पिछड़ी जातियों के लिए वह लड़े उन सभी ने दूध में गिरी मक्खी की तरह वीपी सिंह को बाहर फेंक दिया था. उन का अपना जनता दल तमाम दलों का दलदल बन गया था. राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल यूनाइटेड, जनता दल और जनता दल सेक्यूलर जैसे टुकडे इधरउधर बिखरे रहे. एक ऐसा नेता जिस ने सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ी अपने अंतिम दिनों में वह लावारिस सा हो गया था.

33 साल के बाद क्यो याद आये वीपी सिंह

2024 के लोकसभा चुनाव के पहले तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने वी पी सिंह की एक प्रतिमा चेन्नई में लगाई. उस के अनावरण समारोह में उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को विशेष अतिथि के रूप में आमंत्रित किया. इस के साथ ही साथ वी पी सिंह की पत्नी सीता सिंह और उन के बेटों अजय और अभय सिंह को गणमान्य लोगों की हैसियत से आमंत्रित किया. एमके स्टालिन के पिता करूणानिधि के साथ भी वी पी सिंह के अच्छे रिश्ते थे.

वैसे तो यह कार्यक्रम दक्षिण भारत का है. इस की गूंज देशभर में हो इस के लिए सूचना और जनसंपर्क विभाग चेन्नई के द्वारा देश के हर इलाके के अखबारों में पूरे पन्ने का विज्ञापन दे कर मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने अपने संदेश में कहा ‘वीपी सिंह के प्रोत्साहन के कारण हमारी सरकार सामाजिक न्याय की यात्रा बिना किसी समझौते के काम कर रही है’. जो काम उत्तर भारत के नेता नहीं कर सके उस को करने का हौसला दक्षिण भारत के नेता ने दिखाया.

वी पी सिंह के इस अचानक महिमामंडन के पीछे 2 प्रमुख वजहे हैं. पहली वजह यह है कि जिस तरह से भाजपा ने पिछले कुछ सालों में महात्मा गांधी, अम्बेडकर, कांशीराम, सरदार पटेल जैसे तमाम महापुरूषों को अपने पाले में खीचने का काम किया, उस तरह से वह वीपी सिंह को अपने पाले में नहीं कर सकती. 2024 की लड़ाई पिछड़ी जातियों को लेकर है ऐसे में मंडल के मसीहा वी पी सिंह का नाम मददगार हो सकता है.

अखिलेश स्टाालिन की दोस्ती क्या रंग दिखाएगी

दूसरी वजह यह है कि इंडिया गठबंधन में छोटे दलों का एक धड़ा ऐसा है जो हमेशा से गैर कांग्रेसवाद या तीसरे मोर्चे की लड़ाई लड़ता रहा है. वह भाजपा के विरोध में कांग्रेस के साथ खड़ा है लेकिन कांग्रेस से अलग धारा में दिखना चाहता है. ऐसे दलों के नेता आपसी तालमेल से अपना अस्तित्व दिखाना चाहते हैं. 5 राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, तेलंगाना और मिजोरम के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत के बाद इंडिया गठबंधन में उस का प्रभाव पहले से अधिक बढ़ जाएगा. ऐसे में क्षेत्रीय नेता अपनी एकता और ताकत को दिखाना चाहते हैं.
एमके स्टालिन और अखिलेश यादव के बीच दोस्ती जैसा यह व्यवहार कांग्रेस के लिए चेतावनी जैसा है. मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और अखिलेश यादव के बीच जो संवाद हुआ वह सब के सामने हैं.

अखिलेश यादव ने मध्य प्रदेश में अपने प्रत्यशी चुनाव मैदान में उतार कर कांग्रेस को सबक सिखाने की बात कही. लोकसभा चुनाव को ले कर अखिलेश की राय साफ है कि वह उत्तर प्रदेश में तभी समझौता करेंगे जब कांग्रेस मध्य प्रदेश और राजस्थान में लोकसभा की 15 सीटें देगी. ऐसे में अब स्टालिन और अखिलेश की दोस्ती क्या रंग खिलाएगी यह देखने वाली बात है ?

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